रविवार, 30 नवंबर 2008

बालको ने शिमला में घोला जहर, भूखे-नंगे आदिवासी बन रहे पहचान


छत्तीसगढ का शिमला कहे जाने वाले मैनपाट की प्राकृतिक वादियों में लगातार एक ऐसा जहर घुल रहा है जो इस शिमला के अस्तित्व के लिए कभी संकट बन सकता है। बॉक्साईट खादानों में होने वाले विस्फोटों के कारण प्रदूषण की समस्या तो वहीं जहां-तहां अवैध उत्खनन के कारण प्राकृतिक सुंदरता पर ग्रहण लग गया है। यहां के आदिवासियों के पास दो वक्त की रोटी बात तो दूर इस कड़कडाती ठण्ड में तन पर लपेटने के लिए ठीक से कपड़े तक नसीब नहीं हो रहा है।
सरकार द्वारा मैनपाट को पर्यटन के दृष्टि से विकसित करने प्रयास किया जा रहा है। पर्यटकों के रूकने के लिए होटल बनाया जा रहा है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि करोड़ों खर्च करने के बाद भी यहां की प्राकृतिक सौंदर्य को बचाने की कोशिश नहीं की जा रही है। सबसे बड़ी बात है कि यहां 15 साल से बालकों द्वारा बॉक्साईट का उत्खनन किया जा रहा है। बालकों ने उत्खनन के लिए हजारों पेड़ों की बली चढ़ा दी। लेकिन इस कंपनी ने इन 15 सालों में एक भी पेड़ तैयार नहीं किया है। जांच में बालको को दोषी भी पाया गया लेकिन अर्थदण्ड के अलावा प्रशासन ने जिम्मेदार प्रबंधन के अधिकारियों के खिलाफ अपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं कराया । बॉक्साईट के खदानों में उत्खनन के लिए नियम कानून को ताक पर रखकर विस्फोट किये जा रहे है और प्रदूषण की समस्या बढ़ गई है लेकिन सरकार गंभीर नहीं है। अब तक बालको के खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति ही हुई है। जानकारी के अनुसार बालको को आईबीएम (इंडियन ब्यूरो माइंस) तथा पर्यावरण विभाग ने मैनपाट की प्राकृतिक संतुलन को ध्यान में रखते हुए बॉक्साईट उत्खनन करने का लाइसेंस दिया था लेकिन इसे नजरअंदाज कर बालको तीन साल से अवैध उत्खनन करती रही। इसकी जांच आईबीएम को करनी थी लेकिन इस पर भी खानापूर्ति कर ली गई। इस मामले में बालको के साथ ही कलेक्टर भी कटघरे पर दिखे थे आईबीएम ने खुद रास्ता साफ कर दिया । बताया तो यह भी जाता है कि इसमें आईबीएम के एक बड़े की मिलीभगत थी। इसके लिए बालको को लाखों का भेंट देना पड़ा। यह मामला मैनपाट की प्राकृतिक वातावरण पर हमले से जुड़ा हुआ था। इसके बाद भी प्राकृतिक संपदा और उसकी सुरक्षा का दंफ भरने वाले संगठन चुप्पी साधे हुए हैं।
बालकों ने जहां मैनपाट की प्राकृतिक संतुलन को तहस-नहस करना शुरु कर दिया है वहीं खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूरों को सुअरों के लिए बनाये गये बाड़े जैसे झोपड़ियों में रहना पड़ रहा है। बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे है। खदानों में तीन हजार से अधिक मजदूर काम कर रहे है और बालको प्रबंधन द्वारा मजदूरों की हित में हर साल लाखों रूपये खर्च करने का दावा किया जाता है पर सच्चाई को छुपाया नहीं जा सकता है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य की बात क्या हो सकती है कि खदानों में कई बार बच्चे भी काम करने के लिए मजबूर दिखाई देते है। बालको प्रबंधन द्वारा हमेशा से छला जा रहा है। मजदूरों का कहना है कि जब भी आंदोलन करते है तो उन्हें आश्वासन मिलता है लेकिन अब उम्मीदें नहीं है। बालको की इस रवैये का फायदा यहां के मजदूर संगठन और नेता उठाते रहे हैं। अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि जब मजदूर नेताओं का जेब खाली हो जाता है तो वे आंदोलन के लिए मजदूरों को उकसाते है और ऐसा आंदोलन हर माह दो माह में चलता ही रहता है। यह बताना लाजमी होगा कि मजदूर इन तथाकथित नेताओं के दलाली का शिकार हो रहे है। जब तक इन मजदूरों को सही नेता नहीं मिलेगा तब तक बालको प्रबंधन इनका शोषण करता ही रहेगा। कई बार ऐसी भी स्थिति बनती है जब मजदूरों के दिल में बालको प्रबंधन के खिलाफ विरोध की वाला भड़कती है तो वह भी दबकर रह जाती है क्योंकि मजदूर यादा दिनों तक विरोध करेंगे तो दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पायेगी। वहीं सरकार को तो बालको से यादा से यादा राजस्व चाहिए उसे मजदूरों की कराह सुनने की फुर्सत ही कहां है? मैनपाट के वातावरण में घुल रहे जहर का घातक परिणाम कभी भी भयावह हो सकता है और इसे यहां के रहने वाले माझी जनजाति को जूझना पड़ेगा। जब यहां बॉक्साईट की खदानें खुली तो आदिवासियों को सुखद अनुभूति हुई थी। लेकिन अब तो उनकी समाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को सुरक्षित बचाये रखना मुश्किल हो गया है।
मैनपाट के बदले हालात का अंदाजा पहली बार में नहीं लगा सकता आज से दस साल पहले जो मैनपाट गया होगा वह अब जाकर वहां की बदहाली को समझ सकता है। छत्तीसगढ़ के इस अभागे शिमला में रायपाल से ही कई नेता मंत्री हमेशा जाते रहे है। शायद उन्हें यहां के भूखे, नंगे आदिवासियों को देखकर खुशी होती है और वे इसी को आदिवासियों की पहचान मानते हैं। नये साल में बड़े-बडे अधिकारी मौज-मस्ती के लिए पहुंचते है। पिछले साल भी अधिकारी मौज-मस्ती के लिए पहुंचे थे जहां बच्चों ने उनके कप-प्लेट धोये थे और जूठा खाया था। अब नया साल आने वाला है ऐसे में ऐसा फिर हो तो कोई बड़ी बात नहीं। वैसे भी अब तो यहां यह रोज की बात हो गई है।
बालको द्वारा यहां से हर रोज सैकड़ों मिट्रिक टन बॉक्साईट का उत्खनन कर परिवहन किया जा रहा है। ओवरलोड की शिकायत आम रही है। इससे यहां की सड़क खस्ताहाल हो चुका है। यहां आने वाले पर्यटकों के लिए यह किसी खतरे से कम भी नहीं है लेकिन बड़ी बात तो यह भी है कि नेता मंत्रियों पर पहुंच रखने के कारण प्रशासन का आदेश भी बेअसर साबित होता है। सरगुजा कलेक्टर ने बालको प्रबंधन को जर्जर सड़क को बनाने कई बार निर्देश दिये लेकिन प्रबंधन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा।
सवाल यह उठता है कि अगर बालको ने ईमानदारी से मैनपाट के विकास के लिए काम किया होता तो मैनपाट के सपूतों को जूठे प्लेट और जूठन नहीं खाना पड़ता। शायद यही कारण है कि जशपुर में पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिलीप सिंह जुदेव वहां बॉक्साईट का विशाल भंडार होने के बाद भी उत्खनन का विरोध करते रहे है। जब भी उनसे बॉक्साईट उत्खनन के विरोध का कारण पूछा जाता है तो उनका एक ही विचारणीय जवाब होता है कि आप मैनपाट और रायगढ़ की हालत नहीं देख रहे हैं। हम जशपुर को बदहाल नहीं बनना चाहते। श्री जुदेव का यह भी कहना है कि उद्योगों को बढ़ावा देने की जगह उसी धरती पर कृषि को उद्योग से क्यों नहीं जोड़ा जाता। चाहे जो भी हो मैनपाट का दर्द सुनने वाला कोई भी नहीं है और इस शिमला के आदिवासी प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के बाद भी बदहाली के बीच जीने को मजबूर है। वे अपनी प्रकृति की सुरक्षा करने में बेबस और लाचार दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में जरुरत है एक ऐसे मसीहा की जो फिर से लौटा सके यहां की आबो हवा में पसीना बहाने वालों की जिंदगी में खुशहाली ताकि पर्यटकों की तरह मुस्कुराता रहे मैनपाट।
प्रस्तुतकर्ता- दिलीप जायसवाल

बुधवार, 19 नवंबर 2008

गरीबी की मार, सजा सूअर का कच्चा मांस

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले कुपोषित बच्चे सुअर का कच्चा मांस खाने मजबूर हैं। कुछ बच्चे इतने पतले हैं कि उनकी हड्डियां दिख रही है । तीन-चार साल के उम्र के अधिकांश बच्चों का पेट निकला हुआ है। गर्भवती महिलाओं को सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने की बात तो दूर उन्हें योजनाओं के बारें में कुछ भी नहीं मालूम है । लेकिन विधानसभा चुनाव प्रचार करने वाले नेताओं की नजर जानबूझकर यह हालात नहीं देखना चाहती ।
रायपुर में रईसों की कमी नहीं है । इनके बीच एक ऐसा वर्ग भी है जिसके पास न तो रहने के लिए घर है और न ही बच्चों का पेट भरने के लिए अनाज । यह जरूर है कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा तीन रूपये किलों में चांवल दिया जा रहा है। रिंग रोड़ स्थित न्यू राजेन्द्र नगर के बजाज कॉलोनी के बाजू में रहने वाले झुग्गी झोपड़ी निवासी ठाकुर राम पटेल के चार बच्चे हैं और उसकी पत्नी गर्भवती है। विधानसभा चुनाव के एक दिन पहले यानी आज 19 नवम्बर की सुबह से दोपहर तक ठाकुर राम पटेल के बच्चों ने कुछ भी नहीं खाया था । सूअर का मांस उसकी मां काट रही थी और बच्चे उसे खा रहे थे । कच्चा सूअर का मांस खाने की बात किसी को सहसा यकीन नहीं होता लेकिन राजधानी के गरीबों के बीच जाकर हकीकत देखी जा सकती है।
ठाकुर राम पटेल का कहना है कि भाजपा तथा कांग्रेस वाले वोट देने के लिए शराब बांट रहे है । उससे उसका क्या होने वाला है। कम से कम उन्हें अनाज देना चाहिए ताकि वह बच्चों का पेट पाल सके। वह दिन भर कबाड़ का काम करने के बाद भी इतना नहीं कमा पाता कि दोनों वक्त की रोटी बच्चों को खिला सके। उसकी झोपड़ी में कांग्रेस और भाजपा दोनों का चुनावी झण्डा लहरा रहा है। वह कहता है कि दोनों पार्टी के लोग झण्डा लगाकर चले गये हैं, लेकिन किसी ने उनका दर्द समझने की कोशिश नहीं की ।
प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

शनिवार, 1 नवंबर 2008

भगवान ने उसके लिए बंद कर ली है आंख

कहते है कि भगवान के करीब रहने वालों पर कोई आंच नहीं आती। यही कारण है कि लोग मंदिर और मस्जिद जाया करते है। लेकिन अगर कोई अपनी जिंदगी का महत्वपूर्ण पल मंदिर में गुजार दे और जब उसका शरीर जवाब दे तो उसे आसियाना की बात तो दूर दो वक्त की रोटी ही नसीब न हो। इसे क्या कहा जाये?
राजधानी रायपुर स्थित लाखेनगर भोईपारा स्थित भवानी मंदिर में शांति नामक एक महिला अपने पति के साथ तब तक काम की जब तक उसके हांथ-पैर चले और जब उसके पति की मौत हो गई तो उसे मंदिर प्रबंधन ने मंदिर से बाहर निकाल दिया। इस महिला की हालत यह है कि आज उसके हांथ पैर तक नहीं चल रहे और उसे दो वक्त की रोटी के लिए ही नहीं तरसना पड़ रहा है बल्कि सिर छुपाने के लिए कोई जगह भी नहीं है। वह मंदिर से चंद कदम की दूरी पर एक चौराहे में बने घर की ओट पर पिछले तीन सालों से पड़ी हुई है। वह बताती है कि आस-पास के लोग उसे खाने के लिए कुछ ला देते है।
मंदिर प्रबंधन यह बात जरुर स्वीकार करता है कि शांति अपने पति के साथ मंदिर में काम करती थी लेकिन उसे वृध्द होने पर बाहर क्यों निकाला गया। मंदिर प्रबंधन के पदाधिकारियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। शांति की एक बेटी है जिसकी शादी के बाद उसके पति की भी मौत हो गई है। वह भी उसे कभी-कभार ही देखने पहुंचती है।
शांति कहती है कि उसने तो अपनी जिंदगी का अहम दिन मंदिर में मां भवानी की सेवा में ही गुजार दी। उसके बाद भी उसे यह दिन देखने पड़ रहे है। शायद भगवान को यही मंजूर है। वह मंदिर प्रबंधन को दोष नहीं दे रही है। लेकिन आस-पास के लोग यह कहने से भी नहीं चुकते की कम से कम मंदिर प्रबंधन को चाहिए था कि वह शांति की देख-रेख नहीं कर पाने पर वृध्दाआश्रम पहुंचा देता। उसके कमर में गिर जाने के कारण चोट लगी हुई है और वह इस कारण उठ भी नहीं पाती । वह घर की ओट में नाली के किनारे इस तरह पड़ी हुई है जैसे इस दुनिया में उसका कोई न हो। आस-पास के लोगों ने बताया कि शांति ने अंतरजातीय प्रेम विवाह किया था और उसके पति की मौत मंदिर में काम करने के समय ही दमा से पीड़ित होने के कारण हो गई।
प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल