शनिवार, 19 दिसंबर 2009

सरकारी तंत्र का दुरूपयोग, चुनाव आयोग खामोश

छत्तीसगढ़ में इन दिनों नगरीय निकाय के चुनाव में सरकारी धन और संसाधनों का खुलेआम दुरुपयोग किया जा रहा है। इस ओर सरकार और चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं गंभीर नहीं हैं। पार्षद पद के लिए प्रत्याशी लाखों रुपए तक खर्च कर रहे हैं, लेकिन जब चुनाव आयोग को खर्च का ब्योरा सौंपा जाएगा । उसमें साफ तौर पर चुनाव खर्च की जानकारी फर्जी प्रतीत होने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की जाती है।
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह खुद चुनाव प्रचार में जिस तरह से गरीबों के विकास की बात कर सरकारी मिशनरी का दोहन कर रहे हैं, उसी से समझा जा सकता है कि दूसरे मंत्री और विधायक अपने क्षेत्रों में जनता के पैसों की किस तरह से बर्बादी कर रहे होंगे। जबकि मंदी के इस दौर में केन्द्र सहित कई राज्यों की सरकारें धन के अपव्यय को रोकने की बात कर रहे हैं।

चुनाव जीतने के लिए प्रत्याशी मतदाताओं को दारू, मुर्गा और अच्छा भोजन देकर रिझाने की कोशिश कर रहे हैं।ं सत्ता दल के प्रत्यासी कहीं गाड़ियों का तो कहीं सरकारी मानव संसाधन का खुलेआम दुरुपयोग कर रहे हैं। राजधानी होने के नाते रायपुर में अधिक समझदार और पढ़े-लिखे लोगों की जमात मानी जा सकती है, लेकिन यहां भी चुनाव में धन की बर्बादी को लेकर न तो अखबारों में कुछ लिखा जा रहा है और न ही टेलीविजन के पत्रकार इस ओर ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में क्या कोई सक्षम व्यक्ति अदालत की शरण लेकर इस फिजूलखर्ची पर गुहार नहीं लगा सकता। जहां तक मीडिया संस्थानों की बात है वे इन प्रत्याशियों और राजनैतिक दलों से चुनाव में मिलने वाले विज्ञापन और चुनाव पैकेज पर शायद बिक गए हैं।

ऐसे में जरूरत इस बात की है कि आखिर हमारा समाज कब जागेगा। चुनाव को लोकतंत्र का त्योहार माना जाता है और इसमें गरीबों को कुछ दिनों तक भरपेट भोजन मिल जाता है। वह भी तब जब वे प्रत्याशियों के प्रचार में आगे-पीछे चलते हैं। शहर में ऐसा कोई भी झुग्गी-बस्ती नहीं है जहां इन दिनों त्योहार जैसा माहौल न हो। लेकिन कम-से-कम इन गरीब की बस्ती में बुनियादी सुविधाओं की हमेशा के लिए व्यवस्था हो पाए वही सार्थक होगा।

चुनाव में पैसे भी बंट रहे हैं। ऐसे में हमारे विचार से पैसे लेने से मतदाताओं को पीछे नहीं हटना चाहिए, क्योंकि इस तरह से बटने वाला पैसा पसीने की कमाई का नहीं होता है, वह कहीं-न-कहीं गरीबों के हक का ही पैसा होता है, जो उन तक दूसरे रास्ते से पहुंच गया होता है। पैसा लेने के बाद अपने विचार को मजबूत रखते हुए वोट देना चाहिए।

यह तो रही झुग्गी-झोपड़ियों से निकलकर वोट डालने वालों के लिए लेकिन समाज में सबसे संपन्न समझा जाने वाला वर्ग वोट देने के लिए लाईन में खड़ा ही नहीं होना चाहता, जब तक की उसका कोई स्वार्थ न जुड़ा हो। यहां स्वार्थ का मतलब प्रत्यासी उनसे किसी प्रकार से जुड़ा न हो और उसके जीतने या हारने से उन्हें किसी प्रकार का फर्क पड़ता हो। यहां हमने मंदी से धीरे-धीरे उबर रही परिस्थितियों में फिजूलखर्ची के साथ ही वोट पर बात की, लेकिन यह तभी सार्थक हो सकता है जब हम गंभीर हों और इस सोच के साथ की हमें अपने अधिकारों के लिए अब चक्काजाम, हड़ताल और विरोध प्रदर्शन नहीं करना है। दिलीप जायसवाल

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

आनंद का मतलब सेक्स...?

मीडिया पूरी तरह बाजार में शामिल हो गया है और मीडिया संस्थान दुकान बन गए हैं। पैसे के लिए वे कुछ भी बेचने को तैयार है। संस्कृति और सभ्यता के ठेकेदार बनने वाले इस पर अंधे की भूमिका में बैठे हुए है। वे सिर्फ वेलेन्टाइन डे और फे्न्डशीप डे का ही विरोध करते हैं। प्यार करने वालों का मुंह काला कर घुमा सकते हैं। लेकिन नारी देह और स्वस्थ मनोरंजन के नाम पर सेेक्स को सार्वजनिक रुप बेचने वालों के खिलाफ मुहं भी नहीं खोल सकते। जबतक कोई स्वार्थ न हो ।

पिछले कई दिनों से रायपुर के रेडियो मिर्ची पर मोबाईल फोन पर कालर ट्यून बनाने के लिए एक विज्ञापन चल रहा है, विज्ञापन में एक टीवी चैनल पर राशि बताने वाले ज्योतिषी का अभिनय करते हुए कालर ट्यून का मतलव आनंद बताता है और आनंद के तत्वों में सेक्स को इस तरह बताता है मानो इसके बिना उसका विज्ञापन सफल नहीं होगा। हद तो तब हो जाती है जब ज्योतिषी के रोल में विज्ञापन का एक्टर वह सबकुछ बकता है जो उस टेलीविजन के कार्यक्रम की गरिमा को भी प्रभावित करता है।

एफएम रेडियो चैनलों में इस तरह के अश्लील विज्ञापन या दो अर्थी संवाद कोई नई बात नहीं है। इस मामले में रेडियो टीवी चैनलों को भी पार कर रहे हैं। स्वस्थ मनोरंजन के नाम पर जैसी सामग्री परोसी जा रही है उस पर समाज के जागरूक समझे जाने वाले वर्ग ने भी कोई आपत्ति नहीं दिखाई दे रही है, वल्कि वे भी परिवार के साथ यह सब देखने-सुनने के अभ्यस्त हो गए हैं।
समाज में अश्लीलता फैलाने वाले इन माध्यमों के खिलाफ अदालत का दरवाजा भी खटखटाया जा सकता है, लेकिन इतना जहमत कोई नहीं उठाना चाहता। ऐसे में काश कोई सिरफिरा अदालत तक पहुंच जाता।
चुनावों में अगर आचार संहिता का उल्लंघन होता तो नेता फोरन अदालत और दूसरी संस्थाओं तक पहुंचकर कार्यवाही की मांग करने लगते, लेकिन यहां तो किसी का कोई स्वार्थ ही नहीं है। आखिर कब तक समाज सबकुछ देखता-सुनता रहेगा।
दिलीप जायसवाल

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

कितना बचा, कितना बदला मेरा गांव

हमने कभी बस नहीं देखी थी। गांव में शादी-ब्याह होता था तो टेक्टर से बारात आती-जाती थी। एक दिन पापा के साथ गांव से शहर गया तो वहां बस देखी। उस समय कक्षा तीन में पढ़ रहा था। गांव से बस चलनी शुरू हुई। बस का नाम गरीब नवाज था। सड़कें इतनी खराब थी कि बस कुछ दिन बाद चलनी बंद हो गई। सुबह जब बस शहर के लिए निकलती तो दोस्तों के साथ हम सब देखने के लिए पहुंच जाते थे। ड्राइवर हमें गांव से गुजरने के दौरान कुछ दूरी तक बस में बैठा लेता था। इससे हम काफी खुश होते थे और उछलते-कुदते घर आते थे।

इस समय मेरी उम्र आठ साल के करीब थी। गांव में आज भी एक ही मिनी बस चलती है। यहां से कई बसें चलती है और बंद हो जाती हैं। 15 साल बाद भी सड़क जैसी की तैसी है। एक साल पहले सड़क का निर्माण शुरू हुआ जो पूरा नहीं हो पाया है। गांव की गलियां भी वैसी ही हैं जैसे पहले थी। यह बात जरूर है कि पहले के मुकाबले लोगों के पास ज्यादा पैसा आ गया है। लोगों के पास पैसा खेती के माध्यम से आया है। गांव में औसतन हर मोहल्ले में दो-चार टेलीविजन और मोटरसायकल भी हो गया है। अब वे दूसरों की खेतों में मजदूरी नहीं करना चाहते। गांव में पहले की तरह मेझरी और कोदो की खेती नहीं होती। किसान अब गन्ना और दूसरी नगदी फसलों की खेती करते हैं। व्यवसायिक दृष्टि से किसान सब्जियों की खेती कर रहे हैं जिसे बेचने बस, सायकल और अपनी दुपहिया गाड़ियों से बाजार तक पहुंचते हैं।

इतना सब कुछ होने के बाद भी शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा सही नहीं हो पाई है। लोग अभी भी नदी किनारे रेत को खोद कर पानी पीने के लिए निकालते हैं। हाईस्कूल तो है लेकिन शिक्षकों की कमी है। गणीत के शिक्षक का पद स्कूल खुलने के दस साल बाद भी खाली पड़ा हुआ है। बीमार होने पर लोग झोला छाप डाॅक्टरों से ईलाज कराते हैं। इन सब के बाद भी लोगों में जागरूकता आई है। वहीं विकास में शराब बड़ी समस्या है। लोग जितना पैसा कमाते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा शराब में बर्बाद कर देते हैं।

लोगों को रहन-सहन बदला है। संचार की इस दुनिया में यहां भी मोबाईल फोन युवाओं के हाथों में देखे जा सकते हैं। बाजारवाद का असर यहां के दुकानों में मिलने वाली कोको-कोला और पेप्सी की बोतलों से पता चलता है। लोगों डेढ़ दशक पहले राख से कपड़े और मिट्टी से बाल धोते थे। अब इनका स्थान ब्राॅन्डेड साबुनों ने ले लिया है। पारम्परिक त्यौहारों में बदलाव आया है। एक समय बच्चे छेरता (नव वर्ष पर मनाये जाने वाला त्यौहार) पर पिकनिक जाते थे। इससे पहले वे एक-दूसरे के घर समूहों में जाकर छेर-छेरा, कोठी कर धान निकाल दे, चिल्लाते थे। महिलाएं उन्हें अपने हाथों से एक-एक मुठ्ठी धान देती थीं और धीरे-धीरे बच्चों के झोले भर जाते थे। जिनके पास झोले नहीं होते थे वे बांस से बनी टोकरियां रखते थे। अब धीरे-धीरे यह परम्परा धूमिल होती जा रही है।

गांव में शैला नृत्य भी होता था। शैला नृत्य की टीमें एक गांव से दूसरे गांव जाती थी और सप्ताह-सप्ताह भर का घूम-घूम कर नृत्य करते थे। ये हर किसी के घर जाते थे जहां उनका पारम्परिक रूप से आदर सम्मान होता था। चरवाहे भी दशहरा के मौके पर मांदर की थाप के साथ निकलते थे। वे उनके घर जाते थे जिनका मवेशी चराते थे। इनका भी मवेशी मालिक चावल, दाल और महुआ शराब देकर सम्मान किया करते थे। अब तो यह सब दूर, गाय-बैलों की संख्या भी कम होती जा रही है। अब न तो पहले जैसे मवेशी मालिक रह गये हैं और न ही चरवाहे। बस इसी से समझा जा सकता है कितना बचा, कितना बदला मेरा गांव।
-दिलीप जायसवाल

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

मंहगाई का ऐसों को अर्थ भी मालूम है क्या...?


वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने राज्यसभा में मंहगाई को लेकर उठे सवालों पर अपनी मानसिक स्थिति को असंतुलित दिखाते हुए जो प्रयास किया उससे आम जनता का कोई तालुकात नहीं है। उनका कहना था कि मांग और उत्पादन में असमानता के कारण ऐसे स्थिति बनी है। सवाल उठता है कि सरकार जमाखोरी के खिलाफ कानून को कितने सख्त तरीके से क्रियान्वित कर रही है। व्यवसायियों के बड़े गोदामों में छापा मार कार्यवाही क्यों नहीं होती और जब कार्यवाही शुरू होती है तो राजनैतिक दबाव शुरू हो जाता है। दो-चार दिनों की कार्यवाही कर सरकारी नुमांईदों को खानापूर्ति करनी पड़ती है। जमाखोरों के पकड़े जाने के बाद भी उनके खिलाफ अदालती कार्यवाही क्यों नहीं हो पाती।

जमाखोरी के कारण बढ़ती मंहगाई को देखते हुए छत्तीसगढ़ में कुछ व्यवसायियों के गोदामों पर छापे पड़े तो व्यवसायी एकजुट हो गये। मुख्यमंत्री के सामने भण्डारण छमता बढ़ाने की मांग कर गिड़गिड़ाने लगे। उसके बाद से जमाखोरों के खिलाफ कार्यवाही बंद हो गई है। हालात जैसी है उससे स्पष्ट है कि सरकार व्यसायियों के सामने घुटने टेक चुकी है। चाहे चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रूपये की जरूरत हो या फिर दूसरे राजनैतिक गतिविधियों के लिए। व्यवसायी और उद्योगपति इसमें मदद करते हैं।

सदनों में मंहगाई पर इन नेताओं का नाटक आम आदमी अच्छी तरह समझ रहा है। देश में वित्तमंत्री द्वारा मंहगाई पर मांग और आपूर्ति को लेकर रोना कुछ हद तक सही है। लेकिन जवाब में यह बताना और बच निकलना समस्या का हल नहीं है। मंहगाई के लिए सरकार द्वारा आनलाईन खरीदी-बिक्री पर प्रतिबंध लगाने चर्चा भी शुरू हुई, लेकिन उस पर अभी तक कोई सार्थक विचार नहीं हो सका।

मंहगाई रोकने के लिए इन नेताओं और अफसरों द्वारा ईमानदारी से प्रयास करने की उम्मीद करना बेमानी है। मंहगाई पर ये नेता तभी बात करते है जब वोट बैंक की बात हो। इन्हें मंहगाई से कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि जिनके अरबों रूपये विदेशी बैंकों में जमा हो उन्हें मंहगाई का अर्थ भी कैसे मालूम हो सकता है। मंहगाई का मतलब तो मध्यम और गरीब तबके के लोग ही समझते है। जो दो किलो दाल की जगह एक किलो खरीददता है और उसे उतने दिन तक परिवार के साथ खाता है जितने दिन तक दो किलो दाल को खाता था।

बात साफ है मंहगाई रोकने के लिए ऐसे लोगों को ही आगे आकर इन नेताओं से सवाल पूछने की जरूरत है िकवे व्यवसायियों के गोदामों में क्या कभी छापा मारेगें, नहीं तो जमाखोरों के खिलाफ सरकारी नुमांईदें की जगह आम आदमी खुद से ही यह कार्यवाही करें। यह अलग बात है कि यह रास्ता सरल नहीं है, लेकिन जब दूसरे रास्ते बंद दिखने लगे, गाड़ी पंचर प्रतीत हो तो अपने पैर से ही सफर तय करना होता है, चाहे रास्ता कितना भी लम्बा या कठिन क्यों न हो।
दिलीप जायसवाल

सोमवार, 30 नवंबर 2009

सरकारों के लिए आम आदमी आज भी गाजर-मूली


चारों तरफ लाश ही लाश, अंतिम संस्कार के लिए श्मसान में भी जगह नहीं, हजारों लोग सोने के बाद कभी उठ भी नहीं पाये। यह खौफनाक मंजर भोपाल में आज से ठीक 25 साल पहले हुआ। लोगों को वह दिन आज भी जब याद आता है तो वे खामोष हो जाते हैं, आंखें डबडबा जाती है लेकिन इसके बाद भी हमारी सरकारों ने इस घटना के बाद भी कुछ नहीं सीखा। लगातार विदेशी कंपनियों को नेवता दिया जा रहा है। वे यहां कारखाने लगा रही हैं और आम आदमी की सुरक्षा से बेफिक्र होकर पैसे के लिए कुछ भी कर रहे है। कहीं इतना भयावह प्रदूषण है कि लोग भयावह बीमारियों की चपेट में आकर मर रहे हैं। तो कहीं मजदूर मारे जा रहे हैं और उनकी लाशें गायब हो जाती हैं।

दुनिया की औद्योगिक इतिहास में सबसे बड़ी घटना सन् 1984 के दो दिसम्बर की रात हुई। दिन था रविवार और कंपनी थी अमेरिका की यूनियन कार्बाइट। श्ाम के कोई आठ बजने वाले थे कि टैंक नम्बर 610 से मिथाईल आईसो साइनामाईट का रिसाव शुरू हुआ। रात बारह बजे के बाद इसका खौफनाक मंजर पता चला तो कंपनी के लोग सक्रिय हुए लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और मौत का हवा पूरे भोपाल में फैल चुकी थी। इस घटना में 22 हजार लोग मारे गये और पांच हजार से अधिक जिंदा लाश की तरह कई बीमारियों से पीड़ित हो गये। घटना के बाद जांच के लिए कमेटियां बैठी लेकिन नौकरशाही तंत्र और राजनैतिक स्वार्थ के कारण आज भी इस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका है। मुआवजा जिन्हें मिलना था, उन्हें न मिलकर ऐसे लोगों को मिला जिनकी पहुंच सरकारी दफ्रतरों तक थी।

भोपाल के इस गैस कांड के बाद यह उम्मीद थी कि सरकारों की नींद खुलेगी लेकिन आज भी सरकारों को कोई असर नहीं हुआ है। देश में लगातार मल्टीनेशनल कम्पनियों को उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है और भले ही अब ऐसी घटना नहीं हो रही है लेकिन जयपुर में पिछले दिनों पेट्रोल की टंकियों में लगी आग और इसके बाद बनी स्थिति ने एक बार फिर शाबित कर दिया कि अभी भी भोपाल गैस कांड जैसी स्थिति कभी भी बन सकती है।

छत्तीसगढ़ भी उद्योगों एवं कारखानों का दंश झेल रहा है। हजारों एकड़ जमीन में उद्योगों के कारण फसलें नहीं लहलहा पा रही हैं। लोग उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले धुआं और राखड़ के कारण गंभीर बीमारियों से पीड़ित हो रहे हैं। पीने तक के लिए पानी तक नहीं मिल रहा है। बात यहीं खत्म नहीं होती, आखिर कोरबा के बालको वेदांता की बिजली उत्पादन के लिए बनाये जा रहे चिमनी में 100 से अधिक मजदूरों के दब कर मरने की खबर को कैसे भुलाया जा सकता है। यह अलग बात है कि सरकारी रिकार्डों में 42 मजदूरों की ही लाशें निकाली गई, बाकि मजदूरों के लिए चिमनी ही कब्र बन गया। यहां भी जांच के लिए कमेटियां बनी है और घटना के बाद नेताओं ने घड़ियाली आंसु बहाये,लेकिन आज भी छत्तीसगढ़ के उद्योगों में सुरक्षा की स्थिति सही नहीं हो पाई है।

उद्योगों में आपदा प्रबंधन की व्यवस्था सुधारने की जब भी बात आती है, सरकारी दस्तावेजों में सब दुरूस्त रहता है। वहां काम करने वाले कर्मचारियों के प्रशिक्षित होने की बात कही जाती हैं। उन्हें नियमतः उतना वेतन भी दिया जाता है लेकिन कागजों से बाहर निकल कर देखें तो हालत कुछ और ही होती है। यूनियन कार्बाइट जहां कीटनाशक दवाईयां बनाई जाती थी और जब हादसा हुआ उस समय वहां भी अप्रशिक्षित और नये कर्मचारी काम में लगे हुए थे।

कल कारखानों और उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की जिदगीं हमेशा मौत से जुझ रही है। ये उद्योग जहां भी लगे हुए है वहां के लोग दहशत में जीने को मजबूर है कि कहीं मौत का ताण्डव श्ुरू न हो जाये। लेकिन ऐसा हालत तब तक बना रहेगा जब तक पैसे को ही भगवान मानने वाले नेता इस देश में रहेंगे और आम आदमी उन्हें गाजर-मूली नजर आता रहेगा। -दिलीप जायसवाल

बुधवार, 25 नवंबर 2009

मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक सीमित न हो संवेदना




मुम्बई में हुए आतंकी हमले के एक साल बाद आज अखबारो और मीडिया के दूसरे साधनों में इस पर जमकर चर्चा हुई है। देश की सुरक्षा व्यवस्था पर अभी भी कई सवाल उठ रहे है। आतंकी हमले में मारे गए लोगों के परिजनो को मिलने वाले न्याय पर भी अखबारों में संपादकीय और लेख छपे हैं। कहीं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सरकार की आलोचनांए दिख रही है।

इन सब मुद्वो के बीच सवाल उठता है कि इस घटना के बाद हम कितने संवेदनशील हुए। सरकारी तंत्र को छोड दे तो हम कितने जागरुक हुए। ऐसा नहीं हुआ है तो और कितनी लाशे गिनना चाहते हैं। वहीं हमारी नींद खुली है तो सरकारी तंत्र की नींद नहीं खुले, ऐसा नहीं हो सकता है।

ऐसी घटनाओ के बाद हमारी संवेदना मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। व्यवस्था की आलोचना कर चुप हो जाना ही हमारा कत्वर्य नहीं है। हम सात समुंदर पार भी है। वहां से भी हम अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

यह भी समझने की जरुरत है कि हिन्दुस्तानी होने का चादर ओढने वालों के हाथ कितने पाक साफ है। हिन्दुस्तान के हित की बात करने वाले कितने स्वार्थी हैं ? खूफिया एजेसियों का नेटवर्क कितना बेहतर हुआ है। सुरक्षा व्यवस्था के लिए काम करने वाली संस्थाओ के सदस्यो में कितना सामांजस्य है। ईमानदारी की खुशबू के लिए कोई प्रयास हुई या नहीं।

ऐसा नहीं हुआ है तो नेता मंत्रियों और सरकारी नुमाइंदो की ही सुरक्षा हो सकती है। आम आदमी तो उसी तरह मरता रहेगा, जिस तरह 26/11 को मुम्बई के रेल्वे स्टेशन का खौफनाक मंजर था।
दिलीप जायसवाल

मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक सीमित न हो संवेदना

मुम्बई में हुए आतंकी हमले के एक साल बाद आज अखबारो और मीडिया के दूसरे साधनों में इस पर जमकर चर्चा हुई है। देश की सुरक्षा व्यवस्था पर अभी भी कई सवाल उठ रहे है। आतंकी हमले में मारे गए लोगों के परिजनो को पर भी अखबारों में संपादकीय और लेख छपे हैं। कहीं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सरकार की आलोचनांए दिख रही है।




इन सब मुद्वो के बीच सवाल उठता है कि इस घटना के बाद हम कितने संवेदनशील हुए। सरकारी तंत्र को छोड दे तो हम कितने जागरुक हुए। ऐसा नहीं हुआ है तो और कितनी लाशे गिनना चाहते हैं। वहीं हमारी नींद खुली है तो सरकारी तंत्र की नींद नहीं खुले, ऐसा नहीं हो सकता है।




ऐसी घटनाओ के बाद हमारी संवेदना मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। व्यवस्था की आलोचना कर चुप हो जाना ही हमारा कत्वर्य नहीं है। हम सात समुंदर पार भी है। वहां से भी हम अपनी भूमिका निभा सकते हैं।




यह भी समझने की जरुरत है कि हिन्दुस्तानी होने का चादर ओढने वालों के हाथ कितने पाक साफ है। हिन्दुस्तान के हित की बात करने वाले कितने स्वार्थी हैं ? खूफिया एजेसियों का नेटवर्क कितना बेहतर हुआ है। सुरक्षा व्यवस्था के लिए काम करने वाली संस्थाओ के सदस्यो में कितना सामांजस्य है। ईमानदारी की खुशबू के लिए कोई प्रयास हुई या नहीं।




ऐसा नहीं हुआ है तो नेता मंत्रियों और सरकारी नुमाइंदो की ही सुरक्षा हो सकती है। आम आदमी तो उसी तरह मरता रहेगा, जिस तरह 26/11 को मुम्बई के रेल्वे स्टेशन का खौफनाक मंजर था।
दिलीप जायसवाल

जंगल में शहीद होने वाले क्या दोयम दर्जे के ?

26/11 की घटना के बाद देश में देशभक्ति की भावना और हिन्दुस्तानी होने का जज्बा दिखाई दिया था। शहीदों को चैक-चैहारों पर मोमबत्तियां जला कर नमन किया गया था। वैसा जज्बा जंगल में कई-कई दिनों तक आंतरिक सुरक्षा के लिए अभिशाप बन चुके नक्सलियों से लड़ने वालों के शहीद होने पर दिखाई नहीं देता है। विषम परिस्थितियों में बहादुरी के साथ लड़ कर शहीद होने पर उनके बारे में कोई नहीं जानना चाहता।

छत्तीसगढ़ के बस्तर और दूसरे नक्सल जिलों में कभी सीआरपीएफ तो कभी पुलिस के जवान शहीद होते है, जब उनकी लाशें ट्रकों में भर कर लाई जाती हैं तो हमारे दिल में इतना भी उफान नहीं होता कि कम से कम उनका चेहरा तो देंखे। जिन्होंने हमारे लिए अपनी जान गंवा दी।

पिछले साल भर से रायपुर में हूं, यहां अमीरजादों की कमी नहीं है। जब भी नक्सली मोर्चे में शहीद होने वाले जवानों की लाशें यहां पहुंचती है तो शहरी लोग शहीदों के लिए दो पल भी नहीं निकाल पाते। क्या यही है हमारी देश-भक्ति की भावना, जिनके शहीद होने के खबर मिलने के बाद भी हमारा दिल नहीं पसीजता। क्या मुंबई जैसे हमलों में शहीद होने वाले ही शहीद होते हैं और उनके लिए ही मोमबत्तियां जलाई जा सकती हैं ? ये सब बातें इसलिए क्योंकि घर, परिवार और समाज छोड़कर जंगल में ड्यूटी करने वाले सिर्फ पैसे के लिए ही नहीं जीते हैं। अगर किसी नेता-मंत्री या उसके परिवार के किसी सदस्य की मौत हो जाती है तो आंसू बहाने वालों का तांता लग जाता है, विज्ञप्तियां जारी होती हैं, शोक संदेश छपते हैं, क्या बस्तर में शहीद होने वाले इनके काबिल भी नहीं है।

देश में आंतरिक सुरक्षा, बाहरी हमलों से भी खतरनाक हो चुकी है। इस पर गंभीरता से राजनीतिक स्वार्थ के कारण कोई नीतिगत निर्णय नहीं लिया जा सका है। हाल यही रहा तो शहरों में खुद को महफूज समझने वाले लोगों के बंगलों में भी एके-47 की आवाज सुनाई देगी। शायद तब इस समस्या के प्रति सरकार कोई सही निर्णय ले सकेगी और यहां शहीद होने वालों को कुछ दिनों के लिए याद किया जायेगा।

सरकार द्वारा नक्सलवाद को विकास विरोधी माना जाता है। सरकार कहती है कि जहां सही तरीके से विकास नहीं हो सकें हैं वहां नक्सली समस्या प्रमुख है। सवाल यह है कि जहां नक्सलवाद जैसी कोई समस्या नहीं है, वहां ईमानदारी के साथ प्रयास क्यों नहीं किया जाता।

कुछ दिन पहले बस्तर में तैनात एक पुलिस अफसर से बात हो रही थी। उनका घर बस्तर में ही है। वे दो साल से घर नहीं गये हैं। उनके घर जाने पर परिवार वालों को नक्सली मार डालेंगे। परिवार वाले उनसे बाजार के दिन चोरी-छूपे ही मिल पाते है। इस अफसर ने कहा कि वे अच्छे से जानते है कि बस्तर में नक्सली क्यों पैदा होते हैं और यह समस्या यहां कब तक रहेगी।

वे बताने लगे कि यहां ऐसे कई घर है जहां शाम को लोग कंदमूल खाकर या भूखे पेट ही सो जाते हैं। कई बार उन्होंने अपनी आंखों से नक्सली अभियान के दौरान यह सब देखा है।

हालत यह है कि आदिवासी का बेटा नक्सली बन रहा है या नक्सली उसे जबरन अपने साथ रहने को मजबूर कर रहे है। आपस में पुलिस और नक्सलियों के बीच होने वाले टकराव में भी गरीब का बेटा ही मारा जा रहा है। चाहे वह नक्सली के रूप में मरता हो या फिर सरकारी फोर्स के जवान के रूप में। इन दोनों के बीच जंगल और खेत में पसीना बहाने वाला मरता है।

ऐसे में आखिर एयर कण्डिशनर वाले इन्हें मरने से पहले या इसके बाद याद क्यों करेंगे। याद तो तब करेंगे जब ताज और नरीमन जैसे होटलों या रइसों के क्लबों में मौत का यह खूनी खेल हो।
-दिलीप जायसवाल

सोमवार, 23 नवंबर 2009

संपादक ने शादी के लिए न ली छुट्टी और न दी

पत्रकारिता क्या है और क्या हो रहा है, यह हर रोज वरिष्ठ पत्रकारों से सुनने को मिलता है। कल एक न्यूज एजेंसी के दफतर में पहुंचा तो एक परिचित वरिष्ट पत्रकार से मुलाकात हो गई। वे कुछ महिने पहले ही एक बड़े अखबार की नौकरी छोड़कर वहां से कम वेतन पर यहां काम कर रहे हैं। हालचाल जानने से शुरू हुई चर्चा पत्रकारिता के किस्से कहानियों तक पहुंच गई। इस पर वे बताने लगे कि जब एक अखबार में काम कर रहे थे, उस समय जब उन्होंने शादी के लिए छुट्टी मांगी तो संपादक ने कहा-शादी के लिए भी कोई छुट्टी की जरूरत है। उन्होंने बताया कि संपादक ने भी अपनी शादी के लिए छुट्टी नहीं ली थी। मंडप में शाम को शादी संपन्न होते ही रात में वे ड्यूटी के लिए आ गए थे।

यह बात वे आज की पत्रकारिता के तौर पर चर्चा के साथ बताने लगे थे। उन्हांेने कहा कि अब जमाना वैसा नहीं रहा। वे आफिस जाने की सोच के साथ घर से नहीं निकलते, वल्कि महसूस करते हैं कि किसी बनिए की दुकान में काम करने जा रहे हैं।

चर्चा में संपादकों के साथ रिर्पोटरों के समाचार लेखन में सामंजस्य को लेकर भी बात होने लगी। वे कहने लगे की जब कोई नया संपादक आता है तो रिर्पोटरों को सामंजस्य बनाने में काफी समय लग जाता है। जैसा कि मैंने भी अनुभव किया है-आपकी कोई बात उस संपादक को अच्छी लगती है, जबकि वह दूसरे संपादक के हाजमे लायक न हो। समाचार लिखने का तरीका भी अलग-अलग हो सकता है। जिस नजरिए से रिपोर्टर समाचार लिखता है, हो सकता है वह नजरिया संपादक को अच्छा न लगे। अब तो रिपोर्टिंग से पहले अधिकतर मीडिया संस्थानों में किस नजरिए से रिपोर्टिंग करनी है, यह पहले ही बताकर भेजा जाता है।

इन सबके अलावा बातों-ही-बातों में और भी कई ऐसी बिंदुओं पर चर्चा हो गई । कुल मिलाकर वे पत्रकारिता की वर्तमान हालत पर काफी आहत थे। सवाल उठता है कि जब पत्रकारिता के क्षेत्र में पैसे की चाहत से लोग पहुंचेंगे और समाज एक-दो रुपए में अखवार पढ़ना चाहेगा तो हालत बाजार का ही बनेगा और बाजार में दुकान तो होती ही है।
दिलीप जायसवाल

शनिवार, 21 नवंबर 2009

अभिव्यक्ति पर रोज हो रहा शिवसेना से खतरनाक हमला

जाति-धर्म और भाषा पर राजनीति करने वालों की आंखो की मीडिया किरकिरी बन गया है। आईबीएन के न्यूज चैनल लोकमत के कार्यालय में शिव सेना के कार्यकत्ताओं ने तोडफोड की गई। इस घटना के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चाह्मण का यह बयान कि मीडिया को अपनी सुरक्षा खुद करना चाहिए, लेकिन सवाल उठता है कि फिर उनके जैसे नेताओं को भी अपनी सुरक्षा खुद करनी चाहिए। जनता का करोडो रुपये नेताओ के बंगलों और बीबी-बच्चों की सुरक्षा में खर्च होता है। क्या मीडिया का महत्व इनसे भी कम है। वैसे भी जब आतंकियों की तरह जिस राजनैतिक दल के कार्यकर्ता काम कर सकते हैं वे अपने नेताओ की सुरक्षा भी तो कर सकते हैं।


यह पहली बार किसी पत्रकार या मीडिया संस्थान के दफ्रतर में मारपीट और तोड़-फोड़ नहीं हुई है, इससे पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी है। तीन वर्ष पूर्व भी एक चैनल के दफ्रतर में इसी तरह की घटना हुई थी। मीडिया पर होने वाले हमलों को लेकर सरकारें गंभीर नहीं है। सरकारों से इनका उम्मीद करना भी बेमानी है।


आईबीएन के लोकमत दफ्रतर में हमले के बाद शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का यह बयान की उनके कार्यकर्ताओं ने कोई गलत काम नहीं किया है। हमला करने वाले कार्यकर्ता उनके शेर हैं और मीडिया खुद को भगवान न समझे। ठाकरे का यह बयान उसकी सोच को बताने के लिए काफी है।

शिवसेना ही नहीं बल्कि देश में इस तरह की और भी राजनैतिक दल हैं, जिनके विचार ऐसी घटनाओं के माध्यम से सामने आता रहा है। कल की इस घटना पर शिवसेना का यह भी कहना है कि उनके प्रमुख के लिए आपत्तिजनक श्बुढ्ढाश् शब्द का प्रयोग किया गया। शिवसेना और मनसे जैसे पार्टियां इस शब्द से भी अपमानित करने वाले शब्दों का प्रयोग करते रहे है। चाहे वह उत्तर भारतीयों के लिए हो या फिर मराठी नहीं बोलने और सुनने वालों के लिए।

शिवसेना जैसी राजनैतिक पार्टियों द्वारा जिस तरीके से करतूत किये जा रहे है, उससे साफ है कि इन दलों को भारतीय लोकतंत्र की राजनीति से बाहर कर देना चाहिए। महाराष्ट्र की जनता ने पिछले दिनों चुनाव में शिवसेना के प्रति जिस तरीके से अपने मत का प्रयोग किया वह भी इसी की ओर इशारा कर रहा है। वहीं उसी से खींज खाकर पार्टी के कथाकथित कार्यकर्ताओं ने मीडिया के दफ्रतर में हमला किया।


देश भर के पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को आपसी व्यवसायिक प्रतिस्पर्धाओं को अलग होकर एकजुट होने की जरूरत है, ऐसा नहीं हुआ तो ऐसी घटनाएं आम हो जायेंगी और लोकतंत्र की चैथे स्तंभ की भूमिका में खड़े मीडिया के खम्भे को खड़ा रखना मुश्किल होगा। वैसे भी इस संक्रमण काल में पत्रकार अपने दायित्वों को विषम परिस्थितियों में पूरा कर रहे हैं। इसका नतीजा क्या मिल रहा है, उदाहरण कल की घटना पर्याप्त है।

जब ऐसी घटनाएं होती है तो समाज में मीडिया पर गैर जिम्मेदाराना होने का भी आरोप लगता है। इस पर भी मीडिया को आत्ममंथन करने की जरूरत है। खास कर उद्योगों की दुनिया से मीडिया में कदम रखने वाले मालिकों को। नहीं तो मीडिया की अभिव्यक्ति पर अप्रत्यक्ष रूप से बाजार और दूसरी शक्तियां जो हमला कर रही हैं, वह इस हमले से भी खतरनाक होगी। फिलहाल जरूरत इस बात की है कि पत्रकार अपने दायित्वों के प्रति हर परिस्थिति में काम करते रहें।

-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

प्यास...

भीषण गर्मी पड़ रही थी, मैं यूं ही अकेला पैदल चला जा रहा था। दूर-दूर तक कोई पेड़ या घर भी नजर नहीं आ रहा था। पैदल चलते-चलते बिल्कुल ही थक चुका था। पैर भी लड़खड़ाने लगे थे। वे आराम मांग रहे थे। प्यास से गला सूख चुका था। मुंह में लार भी नहीं बची थी कि मुंह को गीला रख सकूं। होठ तो कब के सूख चुके थे।

एक नदी दिखाई दी। यह सोच कर कि वहां चेहरा धो लूंगा, एक उम्मीद के साथ कदम आगे बढ़ाया, लेकिन नदी रेत से पटी हुई थी। रेत आग की तरह जल रही थी। गर्म हवा के थपेड़ों से जान निकली जा रही थी। इसी बीच पानी निकालने का एक तरीका सूझा। नदी की रेत को खोदना शुरू किया पर एक बूंद पानी की बात तो दूर नमी भी नहीं मिली।

मेरी नजर तभी मरी हुई मछलियों पर पड़ी, उन्हें एक कौआ खा रहा था। मैं यहां से आगे निकल गया, उस समय दोपहर के कोई दो बज रहे होंगे। कुछ ही दूर पर एक पेड़ दिखाई दिया। पेड़ पर पत्ते नहीं थे, वह पूरी तरह सूख चुका था। चिड़ियों के घोसले के तिनके नीचे बिखरे पड़े थे। मेरी हालत प्यास से बिगड़ने लगी थी। मुझे घर से निकले कई दिन हो चुके थे।

मन ही मन अपनी इस हालत पर सोच रहा था कि मेरी ओर दौड़ता हुआ आठ-दस साल का एक बालक पहुंचा। वह मुझे देख कर रूक गया। वह भी दौड़ने के कारण काफी थक चुका था और हांफ रहा था। वह मेरे पास आकर बैठ गया, उसके हाथ में पानी से भरी बोतल थी। मैंने उससे पूछा कहां से आ रहे हो तो वह बोला पानी की बोतल चोरी करके, पुलिस वाले मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

मेरे पीने के बाद बोतल में बचे हुए पानी को वह पी गया और बोतल को वहीं पर छूपा कर बैठ गया। बोतल में अब भी थोड़ा पानी बचा था। मुझे डर लगने लगा कि बालक को ढूंढ़ती हुई पुलिस यहां तक न आ पहुंचे। मेरा डर सच निकला, कुछ देर में एक पुलिस वाला वहां आ पहुंचा। तब तक मुझे नींद आ चली थी और मैं ऊंघन लगा था। उसने मुझे कोंचकर जगाया और पूछा- तुम्हारे पास पानी है ? मैंने देखा उसकी सांस तेज चल रही थी, बालों व चेहरे पर धूल जमी थी और होठ सूखे थे।

मैंने उसे बोतल दे दी। दो घूंट पानी पीकर उसे राहत मिली। उसने बालक को देखा और पूछा- और ला सकता है ? वहां कोई चोर या पुलिस नहीं था। प्यास ने हम सबको एक बना दिया था।
-दिलीप जायसवाल

पंचसितारा होटल में खाने वालों ने किसानों का जख्म देखा..?

देश की राजधानी दिल्ली में किसानों ने गन्ने के समर्थन मूल्य को लेकर अपने ताकत का प्रदर्शन किया, वह यह बताने के लिए काफी है कि किसानों का जख्म अब सहन से बाहर हो गया है। हालांकि आज दिल्लीवासियों को इससे परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन कम से कम शहर में रहने वालो को ये तो पता चला कि वो वातानुकुलित, पंचसितारा होटलों में बैठ कर जो स्वाद लेते हैं। वह इन्हीं किसानों से ही संभव है।

आजादी के पचास साल बाद भी किसानों की जैसी दुर्दशा हो रही है, वह शोषण और भ्रष्टाचार की सोच रखने वाले नेता-मंत्रियों के रहते कोई बड़ी बात नहीं है। किसानों के अंदर का आग तो बिना किसी राजनीति के भड़क जाना चाहिए था, लेकिन वह हमारे देश में नहीं हो पाता है। दिल्ली की सड़कों में किसानों की जो आवाज सुनाई दी, उसमें भी उनके साथ वही नेता दिखाई दे रहे थे जो चाहते तो किसानों को सड़क में आये बिना ही उनके अधिकार मिल जाते। लेकिन नेता भी ऐसा नहीं करना चाहते। किसानों को सड़क में उतार कर वे अपनी रोटी सेकना चाहते है। इसे किसानों को समझने की जरूरत है और हमारे किसान यहीं पर भूल कर जाते है।

किसानों को सड़क पर उतार कर इनका कथित रूप से समर्थन कर रहे नेता खुद को बलवान समझ रहे होंगे। लेकिन सोचने की जरूरत है कि जो किसान अपना पसीना बहा कर खेत से मिठास पैदा कर सकता है वह बिना राजनीति के अपने हक के लिए लड़ने का मद्दा रखता है।

छत्तीसगढ़ के किसानों को भी विपक्ष में बैठे कांग्रेस ने धान के समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी के लिए सड़क पर उतारा है। किसानों का आंदोलन राज्य में पहली बार मजबूती के साथ उभरती हुई दिखाई दी है, लेकिन यहां भी राजनैतिक स्वार्थ हावी है। ऐसे में स्वार्थ पूरा होते ही साथ देने का वादा करने वाली नेता कब तक उनके साथ रहेंगे, इस पर भी संदेह है।

किसानों की ही बात हो रही है तो यह भी सोचने को मजबूर करती है कि छत्तीसगढ़ के जशपुर के लुडेक में टमाटर की खेती किसानों द्वारा जला दी जाती है। खेत से टमाटर को निकालने के बाद इतना भी पैसा नहीं मिल पाता कि उसे तोड़ने की मजदूरी मिल सके। वहीं सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण ही मांग के बाद भी यहां टमाटर रखने के लिए कोल्ड स्टोर की स्थापना नहीं हो सकी है और आज बाजार में टमाटर 40 रूपये किलो मिल रहा है। अगर सरकार सचमुच किसानों के विकास के लिए सोचती तो ऐसा हाल न होता।

वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने अंततः आज इस बात को स्वीकार कर लिया कि देश में चावल की कमी है और इसका आयात करना पड़ेगा। कृषि प्रधान देश में खेती और उसके किसान किस हालत में जी रहे हैं। इस पर सरकार को सोचने की फुर्सत नहीं है। जबकि हमारे देश की अर्थव्यवस्था का कृषि बड़ा साधन है।

दुर्भाग्य की बात है कि पचास साल बाद देश के किसान एकजुट नहीं हो सके हैं। यही कारण है कि आज भी किसानों को अपने हक के लिए सड़क पर उतरना पड़ रहा है। इसके बाद भी जब किसानों की आवाज नहीं सुनी जाती तो वे आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते है। नेता, मंत्रियों और सरकारी नुमाईंदों ने जो व्यवस्था बना कर रखी है, उसके रहते किसानों के विकास की बात करना बेमानी है।

यही हाल रहा तो किसान पैकेट बंद दाल-चावल खरीदते हुए बाजार में दिखाई देगा, जो विदेशी कंपनियों के बनाये हुए होंगे। ऐसी स्थिति शहरों में दिखने लगी है लेकिन ऐसी स्थिति उस समय सोचने के लिए मजबूर करेगा जब- किसान की जमीन पर धुंआ उगलती फैक्ट्री लगी है और वह उसमें मजदूरी कर रहा है। पास के दुकान में शाम को दुकान में जायेगा और गुणवत्ता मापक वाले सिम्बाल लगे पैकेटों में बंद चावल-दाल खरीदेगा। -दिलीप जायसवाल

सोमवार, 16 नवंबर 2009

मीडिया में गरीबों और शोषितों की बात करने वाला बन जाता है नक्सली


राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस के अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्रीपाल जोशी ने कहा कि मीडिया में गरीबों, शोषितों की बात करने वाला नक्सली बन जाता है। मीडिया में तट्स्थता और निष्पक्षता का मतलव मीडिया के मालिकों का हित बनकर रह गया है। पूरी पत्रकारिता कार्पोरेट हो गई है। अन्याय, पीड़ा और अत्याचार छापने वाले वर्तमान में सबसे ज्यादा पीड़ा का सृजन कर रहे हैं।

कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर में आयोजित कार्यक्रम में छात्रों को संबोधित करते हुए वरिष्ठ संचार विशेषज्ञ श्रीपाल जोशी ने कहा कि वर्तमान में प्रभाष जोशी के युग की पत्रकारिता मर गई है। अमेरिकन और यूरोपियन सिद्धांतों पर पत्रकारिता की शिक्षा दी जा रही है। उन्हांने इस पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि यही कारण है कि बड़ा किसान आज मजदूर बन रहा है और शहरों की गंदी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है।


श्री जोशी ने कहा कि आज ऐसे लोग नहीं के बराबर हैं जो अपने मूल्यों के लिए आंदोलन और कष्ट सह सकें। पहले जब संचार माध्यम राज्यों के हवाले था और राज्य सरकारों से आम हाथों में आया, उसके बाद हालत और बिगड़ा। इसका नतीजा है कि मीडिया चंद लोगों के हाथों में चला गया है। खोजी पत्रकारिता का मतलब बेड रूम तक पहुंचना हो गया है, वहीं रियलिटी शो का मतलब इस देश की रियलिटी नहीं बल्कि राखी का स्यंबर है।

कार्यक्रम में भोपाल से पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार कमल दीक्षित ने वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी से अपने संबोधन को शुरू करते हुए कहा कि उनमें सरोकारी और मूल्य भ्रष्ट होती पत्रकारिता को लेकर चिंता थी। पत्रकारिता लगातार गैर जिम्मेदाराना हुई है। निष्पक्षता और सरोकारी पत्रकारिता हांसिए पर चली गई है। इसके लिए उन्होंने उपभोक्तावाद और बाजारवाद को जिम्मेदार बताया।

श्री दीक्षित ने कहा कि कुछ दशक के बाद से मीडिया में नियंत्रण करने वालों में होड़ मची हुई है। सत्ता और पूंजी वालों के अलावा बिल्डरों और ठेकेदारों का मीडिया पर नियंत्रण हो गया है। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए मीडिया को सबसे सस्ता साधन मानते हैं। यही कारण है कि मीडिया आज पिछड़े क्षेत्रों के उत्थान के लिए काम नहीं कर रही है।

मीडिया को खुद से आत्म अवलोकन कर नियम बनाना चाहिए। दस वर्षों से पत्रकारिता को कैरियर के रूप में ही देखा जाने लगा है। इसमें कैरियर के अलावा रसूख और ग्लैमर आ गया है । मीडिया सही को गलत और गलत को सही करने का काम कर रहा है। इस पर चिंता करने वालों की संख्या भी काफी कम है। प्रभाष जोशी के निधन पर उन्होंने कहा कि निधन की खबर अखबारों में सिंगल काॅलमों में सिमट गई। जनसत्ता के लिए उन्होंने पूरी जिंदगी बिताई वहां भी निधन के बाद उन्हें खबरों में पर्याप्त सम्मान नहीं मिली। ऐसी बेईमानी और वाहियात स्थिति सोचनीय है। इन मीडिया माध्यमों से उनपर अच्छी चर्चा ब्लागों में हुई ।

उन्होंने प्रभाष जोशी द्वारा छात्रों के लिए कहे गए एक कथन को दुहराया - मैं ज्योतिषियों के पास नहीं जाता । मेरा भविष्य तो आप हैं। पत्रकारिता का भविष्य बनाएंगे तो वह मेरा भविष्य होगा।

पत्रकारिता दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी सहित प्रोफेसर और विश्वविद्यालय से अध्ययन कर निकले मीडियाकर्मी मौजूद थे।
दिलीप जायसवाल/ राम मालवीय

रविवार, 15 नवंबर 2009

जंगल से पहले संसद में बैठने वालों से निपटना जरूरी

नक्सवाद की समस्या को लेकर अब से पहले सरकार इतनी गंभीर पहले क्यों नहीं थी, जितनी गंभीर वह अब दिखाई दे रही है। सरकार कभी नक्सलियों से बातचीत करने की बात करती है, तो कभी उनके आक्रामक तेवर को देखकर बुलेट के बल पर निपटने की योजना पर गंभीरता से काम करने की बात कहती है। सरकार में बैठे कुछ लोेग नक्सलियों पर हमले का विरोध करते हैं। तो कुछ अप्रत्यक्ष तरीके से यह कहने की कोशिश करते हैं कि नक्सली लोकतंत्र पर विष्वास कर रहे हैं और उनके साथ कुछ नक्सली नेता अब लोकतांत्रिक विचारधारा के साथ लौट आये हैं। वहीं कुछ बंदूक के बल पर निपटने की रणनीति को कारगर मानते हैं।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चितम्बरम अपने बयानों से इन परिस्थितियों में उलझते नजर आ रहे हैं। प्रधानमंत्री कभी नक्सलवाद को आदिवासियों का सही विकास नहीं होने और उन पर होने वाले अत्याचार को जिम्मेदार बताते है। गृहमंत्री नक्सलियों को संगठित गिरोह बताते हैं।

हमारा मानना है कि जब तक एयर कण्डिशनरों में बैठ कर नक्सलियों और उनसे प्रभावित क्षेत्रों के बारे में योजनाएं बनाई जायेंगी, तब तक हालत में सुधार होने के बजाय यह समस्या और गंभीर होगी। यह समझने की जरूरत है कि नक्सलियों ने कोई दो-चार साल में अपना जड़ इतना गहरा नहीं किया है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर और उससे लगे क्षेत्रों की बात करे तो आज भी सरकारी तंत्र नक्सलियों के जड़ को मजबूत करने खाद-पानी दे रहा है। क्षेत्र के गांव में पटवारी और ग्राम सेवक जैसे जमीनी सरकारी नुमाईंदें आज भी आदिवासियों का षोषण कर रहे हैं। जिस बात का जिक्र नक्सल समस्या को लेकर प्रधानमंत्री ने हाल ही के दिनों में किया था।

छत्तीसगढ़ के सरगुजा में पांच साल पहले जिस तेजी के साथ नक्सलियों ने अपना विस्तार किया और उसके जो सहायक तत्व बने वे अभी भी विद्मान हैं। यहां आदिवासियों के विकास और उनके लिए किये गए अधोसंरचना के कार्यों में इतना भ्रष्टाचार हो रहा है। इसे वहां जाकर ही समझा जा सकता है। इस पर न तो राज्य सरकार गंभीर दिखती है और न ही दिल्ली की सरकार। ऐसे में अगर नक्सली यहां अपनी पैठ फिर से मजबूत करते हैं तो इसके लिए जिम्मेदार किसे माना जायेगा। ऐसा नहीं भी होता है तो क्या यहां रहने वालों को उसी हाल में छोड़ दिया जाये और यह मान लिया जाये कि सरकारी नुमाईंदों और नेता मंत्रियों को आम आदमी के विकास के लिए बनने वाली योजनाओं में कमीषन खोरी करने की आजादी मिली हुई है।

ऐसा इसलिए लिखना पड़ रहा है कि चुनाव जीतते ही सांसद और विधायक, मधुकोडा बनना चाहता है। वहीं कई ऐसे कई मुधकोणा भी हैं जिनका चेहरा परदे के पीछे है और असल में इन्हें आज के दौर में नक्सलवाद को पोषित करने के लिए जनक की उपाधी दी जाये तो कोई अतिषयोक्ति नहीं होगी। जंगल और गांव में नक्सलियों से निपटने के पहले ऐसे हस्तियों से निपटने की जरूरत है तभी तो जंगल में भी सूरज की किरणें दिखाई देंगी और रोशनी हमेशा कायम रह सकेगी।

-दिलीप जायसवाल

शनिवार, 14 नवंबर 2009

डिग्री की अहमियत तुम समझते नहीं

आज पत्रकारिता विष्वविद्यालय में अपने ही बैच के एक छात्र से पत्रकारिता की डिग्री को लेकर बहस हो गई। उसका कहना था कि डिग्री मिलने पर वे इस क्षेत्र में अनुभव वाले व्यक्ति को पछाड़ कर पत्रकारिता के षिखर तक पहुंच सकते हैं। पत्रकारिता के अनुभव वाले व्यक्ति और सिर्फ डिग्रीधारी जब नौकरी मांगने कहीं जायेंगे तो डिग्रीधारी को ज्यादा महत्व मिलेगा।

मैं इसे स्वीकार नहीं करते हुए बोल रहा था, तो वह दूसरे क्षेत्रों का उदाहरण देने लगा। कुछ ही देर में वह सरकारी नौकरी में प्रमोषन के पेटर्न से इसे भी जोड़ने लगा। वह कहने लगा कि अगर 12वीं पास को तृतीय श्रेणी की नौकरी मिलती है तो ग्रेजुएषन वाले को दूसरे श्रेणी की नौकरी मिलती है।
उसकी समझ और उसके उदाहरणों के आगे मैं चुप रहना ही बेहतर समझा। मन ही मन सोचने लगा कि ये छह महीने बाद डिग्री लेकर निकलने वाला है। उसे रूटिन की रिपोर्टिंग कर दो काॅलम की खबर बनाने कह दिया जाये तो पत्रकारिता के प्लेटफार्म में पहुंचते ही खुद खबर बन जायेगा। मैं किसी डिग्री का अपमान नहीं कर रहा हूं। लेकिन यह सच्चाई मैंने कई बार अपने आंखों से देखी है। जब पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए हजारों-लाखों रूपये खर्च करने के बाद भी कलम का सौदागर बनने की तमन्ना रखने वाले इसके प्लेटफार्म में आकर एबीसीडी सीखते हैं। -दिलीप जायसवाल

हर गांव में पैदा हो जाती माता राजमोहनी

छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विकास में षराब बड़ा अवरोधक बन चुका है। नये राज्य बनने के बाद यह और भी खतरनाक रूप में दिखाई देने लगा है। पिछले दिनों रायगढ़ जिले के घरघोड़ा क्षेत्र में षराब के नषे में एक व्यक्ति ने मां, पत्नि समेत बच्चों की हत्या कर आत्महत्या कर ली। ऐसी घटनाएं इस आदिवासी बाहुल्य राज्य के परिपे्रक्ष्य में सोचने को मजबूर करती है।
कुछ सालों के भीतर विदेषी षराब यहां के दूर-दराज गांव में भी मिलने लगा है। षराब के बिक्री के मामले में राज्य, देष में दूसरे स्थान के बाद पहला स्थान में आता दिखाई दे रहा है। इससे सरकार नुमाईंदांे और नेता, मंत्री, षराब माफिया ही खुष हो सकते है।

घर का महुआ षराब पीने वाला आदिवासी समाज अब विदेषी षराब भी षौक से पीने लगा है। इसके खतरनाक रूप को देखते हुए राजधानी रायपुर के आस-पास ही नहीं बल्कि सरगुजा के दूरस्थ गांवों की महिलाओं ने भी षराब के खिलाफ मोर्चा खोला है। षराब कोचियों के खिलाफ महिलाओं द्वारा आंदोलन किये जाने की खबरें मीडिया में आती रही है, सरगुजा के वाड्रफनगर क्षेत्र के एक गांव की महिलाओं ने गांवों में षराब बनाने और बेचने के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है। षराब बनाने पर जुर्माना तय किया है। लेकिन वे महिलाएं भी षराब ठेकेदारों के गुर्गो के सामने मजबूर हैं।राज्य बनने के बाद यहां षराब दुकानें दूगुनी हुई हैं। कई दुकानें विरोध के बाद भी रिहायषी स्थानों पर चल रही है। वहीं दूसरी तरफ विकासखण्ड स्तरों पर संचालित मयखानों से कोचिये षराब गांवों तक पहुंचा रहे हैं। इससे ग्रामीण युवा भी बोतल बंद विदेषी षराब की ओर खिंचा जा रहा है।

छत्तीसगढ़ में षराब के दुष्परिणामों को बहुत पहले ही माता राजमोहनी देवी ने समझ लिया था। उन्होंने षराब बंदी के लिए राज्य के सरगुजा, कोरिया, जषपुर, रायगढ़ सहित कई जिलों में सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा की थी। सरगुजा के प्रतापपुर क्षेत्र में जन्मी यह बेटी अगर राज्य के हर गांव में कम से कम एक बार भी पैदा हो जाये तो हालत कैसी होगी? फिलहाल माता राजमोहनी देवी की तरह महिलाआंे को आगे आने की जरूरत है। हालांकि वर्तमान समाज में यह इतना सहज भी नहीं है। षांतिपूर्वक षराब के खिलाफ आंदोलन करना और इसमें सफलता पर संदेह है। यह इसलिए क्योंकि सरकार तंत्र और नेता-मंत्री इसकी अपेक्षा नहीं करते। इसके बावजूद अगर राज्य के आदिवासियों का षैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से विकास का सपना कोई देख रहा है तो उसे इस हालत से निपटना होगा। ऐसा नहीं होगा तो षराब की मदहोषी और भी परिवारों को हमेषा के लिए सुलाने को तैयार है। यह एक ऐसी खतरनाक मदहोषी है जो माता-पिता, पत्नि और बेटे-बेटियों को ही नहीं बल्कि खुद को भी नहीं बचा पाता है।
-दिलीप जायसवाल

इससे अच्छा है नक्सलियों का साथ

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर में रहने वाली एक लड़की, जिसे मैंने कभी देखा नहीं है। उसे फोन के माध्यम से जानता हूं, वह कभी-कभी फोन कर बात करती है। कल जब उसका फोन आया तो हाल-चाल पूछने पर वह कहने लगी- मां ने आज बहुत मारा। वहीं पापा भी षराब पी कर आ जाते हैं और घर का माहोल बिगड़ जाता है। मुड़ खराब हो गया तो घर के बाहर खड़ी हूं। कभी-कभी तो मन करता है नक्सलियों के साथ चल दूं। इस तरह जीने से अच्छा है नक्सलियों के साथ ही रहूं, चाहे भले ही वे बाद में मार डाले। मैं उसकी बातों को सुन कर कुछ भी नहीं समझ पा रहा था कि उसे मैं क्या बोलू।

ये लड़की कक्षा दसवीं की पत्राचार के माध्यम से परीक्षा देने की तैयारी कर रही है। वह नियमित पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन कुछ इसी तरह से बनी विपरीत परिस्थितियों के कारण वह नियमित पढ़ाई नहीं कर सकी।

बस्तर जैसे क्षेत्रों में जाने ऐसी कितनी लड़कियां होगी जो विपरीत माहोल को सहन नहीं कर पाने के कारण नक्सलियों के साथ हो खुद के लिए बेहतर महसूस करती होंगी। इस पर चिंता करने की जरूरत है। वह सिर्फ इसलिए नहीं कि वे घर से अच्छा नक्सलियों के साथ को बेहतर मानती है बल्कि इसलिए भी कि ऐसी लड़कियां स्वस्थ्य माहौल पाकर जिंदगी को सकारात्मक रास्ते में कायम रख सकें। पढ़ने-लिखने के सपने को पूरा कर सकें।
-दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

आलीशान होटल और गाड़ी नहीं मांगते, उन्हें मंच पर समय तो दे दो



छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस के नौ साल पूरे होने पर सात दिन तक चले राज्योत्सव में जनता का करोड़ों रुपए खर्च हुआ। यह वही पैसा है जिसे लोग कभी पानी के नाम पर तो कभी साफ-सफाई के नाम पर सरकार को टैक्स देते हैं। हालांकि लोगों ने भी इस आयोजन पर खूब मनोरंजन किया। राजधानी रायपुर में आयोजित इस जलसे में मैं पहली बार पहुंचा था।

उत्सव में राज्य के बाहर से भी कई कलाकार सातों दिन पहुंचे, जिन्हें लोगों ने खूब देखा और सुना। इन कलाकारों को लाखों रुपए फीस बतौर संस्कृति विभाग द्वारा दिया गया। दर्शकों ने उत्सव के दौरान बड़ी संख्या में युवाओं का एक ऐसा भी वर्ग था जिसने इन कलाकारों के कार्यक्रमों के दौरान कुर्सियां और वेरिकैट्स भी तोड़ी। इस पर पुलिस को लाठी भी लहरानी पड़ी।

उत्सव के आखिरी दिन समापन अवसर पर मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के आगमन पर मुझे उसकी रिर्पोटिंग के लिए भेजा गया। अतिथियों के पहुंचने में देर थी। इस दौरान दूसरे मंच में छत्तीसगढ़ी लोकनृत्यों और गीतों की प्रस्तृति हो रही थी। इन कलाकारों के लिए कार्यक्रम उद्द्योषक के मन और जुबान में भी सम्मान की भावना नहीं थी। यही नहीं मौजूद दर्शक जिनमें संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों के लोग शामिल थे, वे भी इनकी प्रस्तुतियों को नहीं देख-सुन रहे थे। इन कलाकारों के लिए अपनी प्रस्तुति देने के दौरान समय की भी पावंदी थी, जबकि कलाकार और भी प्रस्तुतियां देना चाहते थे।

इन कलाकारों को कभी-कभार ही ऐसे मंचों में अपनी कला को दिखाने का मौका मिलता है। जब कार्यक्रम चल ही रहा था, उद्द्योषक ने समय खत्म होने की बात कही। इस पर कलाकारों ने एक और लोकनृत्य प्रस्तुत करने की इच्छा प्रकट की। यह देख उद्द्योषक ने ऐसा जबाब दिया मानों वह इन कलाकारों पर बहुत बड़ी मेहरबानी कर दिया हो।

इन बातों का उल्लेख करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि लाखों रुपए लेकर आने वाले कलाकारों के लिए कोई समय सीमा नहीं होती। कम-से- कम अपने कलाकार आने के लिए मंहगी कार और मंहगी होटलों में ठहरने की बात तो नहीं करते, जैसा कि लाखों रुपए लेने वाले करते हैं। ऐसे में इन कलाकारों के लिए मंच में कत-से-कम इतना समय तो होना ही चाहिए ताकि वे भी अपना जौहर दिखा सकें। वहीं दर्शक भी उन्हें दोयम दर्जे में देखते हैं, ऐसे में हमारे लोकनृत्य, संस्कृति और संगीत का विकास कैसे होगा ?

संस्कृति विभाग के दफतर में एक दिन इस उत्सव के शुरू होने के पूर्व अधिकारी चर्चा कर रहे थे कि किस कलाकार को मुंबई से बुलाया जाए कि भीड़ ज्यादा जुट सके। यहां मैं खामोश था पर मन-ही-मन सोच रहा था कि इस पर चिंता और चर्चा करने से बेहतर होता कि ये सरकारी नुमांइंदे अपने कलाकारों के माध्यम से लोकसंस्कृति और लोकनृत्यों को आकर्षक बनाने के लिए चिंता कर उसके लिए दर्शकों की ज्यादा संख्या जुटाने की कोशिश करते तो वह राज्य के संस्कृति और पारंपरिक नृत्यों के विकास के लिए महत्वपूर्ण होता।

उत्सव में लोक कलाकारों को प्रस्तुति का मौका दिया गया, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो उन्हें अपनी कला के नमूने दिखाने भर के लिए ही कहा गया है। इस पर लोकसंस्कृति और लोकनृत्यों व गीतों के संरक्षक तथा संवर्धन की बात करने वालों के साथ ही यहां कि आबो हवा में पले बड़े लोगों को भी चिंता करने की जरूरत है, ताकि उनके रग-रग में यहां कि संस्कृति रची बसी रहे।
दिलीप जायसवाल

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

पहचान ढूढंते रह जाओगे

गंावों में हमारे देश की संस्कति और रहन सहन छुपी हुई है। यह ऐसा अमूल्य धरोहर है जिसे खोने के बाद नहीं पाया जा सकता और न ही हमारी विशिष्ट पहचान दुनिया में सुरक्षित रह सकती हैै। हम इसे नजर अंदाज कर रहे है। लोग शहर में घर होने की बात कर जितना गौरवान्वित होते हैं उतना गांव में घर होने की बात कर नहीं होते। लोग खुद को शहरी बताकर खुश होते है। ऐसे लोगो को भय होता है कि गांव में रहने की बात करेगें तो वे देहाती समझे जायेंगे। देहाती शब्द उनके लिए मानो अपमान जनक हो। लेकिन जब देहाती टमाटर या मिर्ची बाजार में आती है तो अधिक कीमत के बाद भी लोग खरीदते हैं। इसके बाद भी गांवो के प्रति उपेक्षित रुप खतरनाक है।

ऐसी स्थिति गांवो की आत्मा को मार सकती है। ऐसा होता है तो इस देश की आत्मा कहां होगी चिन्ता का विषय है।

ग्रामीण युवा वर्ग शहरी तडक भडक की जाल में बुरी तरह फंस चुका है। वह शहरों की ओर भाग रहा है। वह खेत में काम नहीं करना चाहता। भले ही शहरों में रहकर उसे रिक्शा चलाना पडे या दूसरे के घर पर बर्तन धोना पडे, वह तैयार दिखता है। वहीं लोग बेटे-बेटियों की शादी शहर में करके अपनी खुश किस्मती समझते हैं। इस तरह शहरी हवा खानं के बाद गंावो को भूलने लगते है और धीरे धीरे गांवो की ओर मुडकर देखने में भी अपना अपमान समझने लगते है। इस सोच से बाहर निकलने की जरुरत है। इसके बिना गंावां का विकास भी नहीं हो सकता है। यह अलग बात है कि सरकारें विकास के लिए काम कर रही हैं लेकिन गांवों के प्रति हमारी संवेदनशीलता जब तक नहीं होगी तब तक यह सफल नहीं हो सकता।

ग्रामीण युवा शहरी आबो हवा में आने के बाद गांवो के बारे में सोचना ही नहीं चाहता। वहीं खेतो में काम करने वालो को पेट और बाल- बच्चो के बाद इतना समय नहीं मिलता कि वे गंावो के प्रति अपने सपनो को सच करने प्रयास कर सकें। कभी प्रयास भी करते हैं तो सरकारी तंत्र के जाल को भेद नहीं पाते। ऐसे में गांव की मिटटी में पैदा हुए लोग एक बार एक बार गांव की ओर मुडकर देखे और वहां की हालत को समझे तो गांवो की तकदीर बदलने से कोई नहीं रोक सकता।

हम क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों का प्रयोग करना भी अपमान समझने लगे हैं। लोग बच्चों को अंग्रेजी की कोचिंग करा रहे हंै, यह जरुरी भी है। वहीं हम अपनी क्षेत्रीय भाषा व बोली का प्रयोग घर और परिवार में भी नहीं करते। इसका उदाहरण अपना छत्तीसगढ है। जब छत्तीसगढ राज्य बना तो यहां के लोगो में छत्तीसगढी के प्रति अगाध प्रेम दिखाई दिया। वह अब दिखाई नहीं देता।

डेढ-दो दशक से शहर में रहने वाले लोगों के लिए गांव घुमने भर का साधन रह गए हैं। भाग-दौड की जिंदगी में शहर के लोगों को जब सुकून की जरुरत होती है तो वे गंाव की ओर निकलते हैं। महंगी कारो से गांव पहुंचते है और मस्ती कर लौट आते हैं। ऐसी तस्वीरे मैने अपनी आंखो से देखी है। ऐसा होता रहा तो कुछ दशको बाद हम अपनी स्वस्थ्य पहचान सुरक्षित नहीं रख पायेगें।
दिलीप जायसवाल

बुधवार, 4 नवंबर 2009

विदेश यात्रा, घर में मवेशी और इंसान पी रहे एक घाट का पानी


छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के नौ साल पर आयोजित जलसे में सरकार के लोगों ने विकास में आम लोगों की सहभागिता की बात कही। यह बात लोग पचाने को कहने पर ही नहीं बल्कि तभी से तैयार है जब राज्य का निर्माण भी नहीं हुआ था। ऐसा कहने की जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है, इस पर विचार करने की जरूरत महसूस होती है।

राज्य बनने के बाद से मंत्री और अधिकारी कितने बार विदेश यात्रा कर राज्य के हित में काम किये हैं और वह धरातल पर दिखाई दिया है ? वह धरातल पर दिखाई दिया है तो क्या बिना विदेश की हवा खाये बगैर वह संभव नहीं था। विदेश यात्रा पर चर्चा करना इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह अपने सचिवों के साथ दक्षिण अफ्रीका यह बता कर गये कि वहां की औद्योगिक नीति को समझेंगे। वहां के उद्योगपतियों को खनिज सम्पदा के दोहन के लिए आमंत्रित करेंगे, लेकिन यहां पर बड़ी बात सामने आ रही है, वह है कि वे अपने परिवार के सदस्यों के बिना यह यात्रा नहीं कर सकते थे ? खबर तो यह भी है कि मुख्यमंत्री परिवार के सदस्यों के साथ ही नहीं बल्कि उनके सचिव भी सपत्निक थे। आखिर इस तरह आम छत्तीसगढ़ी के पसीने की कमाई का फिजूल खर्च कब तक होता रहेगा। यह पहली बार नहीं है जब ऐसा हुआ हो। इससे पहले भी करोड़ों रूपये विदेश यात्रा के नाम पर हर साल खर्च किया जाता रहा है। विदेश जाने से तो अच्छा होता ये मंत्री और अफसर राज्य के उस अंतिम गांव तक जाते जहां आज भी मवेशी और इंसान एक घाट का पानी पी रहे हैं।

राज्य के विकास की जब भी बात होती है, सरकार द्वारा नक्सल समस्या को जिम्मेदार ठहराया जाता है। आखिर नक्सल समस्या के नाम पर कब तक विकास के गति के पहियों को रोक कर रखा जायेगा और आम आदमी नव राज्य निर्माण की परिकल्पना को सपने में ही देखता रहेगा।

राज्य निर्माण से पहले मध्य प्रदेश द्वारा छत्तीसगढ़ क्षेत्र को उपेक्षित किये जाने का आरोप लगा करता था। अब जबकि छोटा राज्य बना और अकूत खनिज सम्पदा छत्तीसगढ़ को मिला उसके बाद भी यहां के लोगों को अभी भी इसका लाभ नहीं मिल सका है। नौ सालों में अगर उद्योगों की स्थापना हुई है और उसमें किसी को लाभ मिला है तो वे आम छत्तीसगढ़ी नहीं है। उद्योगों में तो आम आदमी मर रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बालको का चिमनी हादसा है। यह ही नहीं इन उद्योगों से आम आदमी को धूल-धुआं और इनसे होने वाली खतरनाक बीमारियां उपहार में मिली है। इसे जानने के लिए किसी से पूछने की जरूरत भी नहीं है।

राज्य उत्सव पर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन ने कही कि अशिक्षा और गरीबी दूर किये बिना विकास नहीं हो सकता। यहां सवाल आता है कि अशिक्षा के अंधेरे को दूर करने के लिए राज्य बनने के बाद से अरबों रूपये पानी की तरह बहाया जा चुका है, उसके बाद ऐसे बच्चों की कमी नहीं है जिनके मां-बाप मजबूरी में अपने सपूतों को स्कूल का मुंह तक नहीं दिखा पा रहे है। ऐसे में विकास की परिकल्पना क्या विदेश दौरे से पूरा हो सकता है। सरकार के नुमाईदों को सोचने की जरूरत है, नहीं तो वही हाल होगा जो 53 साल बाद मध्य प्रदेश का है, जहां कुपोषण और गरीबी इस कदर हावी है कि लोग भूख से मर रहे है।
दिलीप जायसवाल

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

खेत में टंगी खोपडी...


देश के किसान एक ओर आधुनिक तोर-तरीकों से खेती कर रहे हैं, वहीं अशिक्षा और अंधविश्वास के बीच आज भी किसानों को एक बड़ा वर्ग फंसा हुआ है। पिछले दिनों मेरा सरगुजा जाना हुआ, जहां खेतों में गाय-बैल के सिर की हड्डियों को खेतों में लकड़ी के सहारे लटकते देख बड़ा आश्चर्य हुआ। यह तब इसलिए भी जब गांव-गांव में किसान उन्नत खाद-बीज और कीटनाशकों का उपयोग करने लगे हैं।
श्याम लाल नामक किसान ने बताया कि वे बैल की सिर की हड्डियों को इसलिए लटका रखे हैं ताकि फसल पर किसी की बुरी नजर न लगे। किसी की नजर नहीं लगेगी तो फसलों पर कोई रोग या कीट का प्रकोप नहीं होगा। पूछने पर वह बताने लगा कि फसलों को बुरी नजर से बचाने के लिए वे और भी कई उपाय करते हैं। जब मवेशियों की हड्डियां नहीं मिलती हैं तो मिट्टी के बर्तन में लाल और काला धब्बा के साथ सिंदूर लगाकर उसे खेत में लटका देते हैं। हालांकि श्याम लाल ने यह भी बताया कि वे कीट नाशकों का भी प्रयोग करते हैं, लेकिन ऐसा टोटका भी करते हैं।
छत्तीसगढ़ में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जब सही तरीके से फसल नहीं होने या रोगग्रस्त हो जाने पर जादू-टोना का आरोप लगाकर महिलाओं के साथ मार-पीट भी हुई है। ऐसा अंधविश्वास फसलों को लेकर ही नहीं है, बल्कि मवेशियों के बीमार होने पर भी अंधविश्वास की छाया दिखाई देती है। इसकी परिणति यह होती है कि मवेशियों की मौत तक हो जाती है। सालों पहले यहां मवेशी खुरहा नामक संक्रामक बीमारी से पीड़ित होते थे, इस पर गांव भर के लोग ग्राम देव की पूजा-अर्चना करते थे। वैसे अब ऐसी तस्वीर कम ही दिखाई देती है।
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जादू-टोना में विश्वास करने वाले लोगों में शिक्षित वर्ग भी शामिल है। यही कारण है कि ऐसा कोई गांव नहीं है जहां जादू-टोना से ठीक करने वाले बैगा-गुनिया नहीं है। कई बार तो ऐसा भी होता है जब बैगा-गुनियाओं को झाड़-फूंक कराने घर ले जाने वालों की भीड़ लगी रहती है।
सरगुजा में तो एक और भी गजब का रिवाज है। दीवाली की रात यहां जादू-टोना के प्रभाव से बचने के नाम पर हर कोई अपनी नाभी पर सरसों का तेल तथा काजल लगा कर सोता है। अंधविश्वास है कि इस दिन जादू-टोना करने वाली महिलायें उन लोगों को अपना निशाना बनाने में सफल होती हैं, जो ऐसा नहीं करते। यही नहीं उस दिन घर परिवार पर किसी की नजर न लगे इसके लिए घर के सभी दरवाजों पर रामरेणी (एक पौधा) की पत्तियां लगाई जाती हैं।
राज्य सरकार ने जादू-टोना के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित करने तथा कई बार हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं को देखते हुए सन 2005 में छत्तीसगढ़ टोनही प्रताड़ना अधिनियम बनाया है। बावजूद हर साल टोनही के नाम पर दर्जनों महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है तो कई ऐसी भी घटनायें सामने आती है जब महिलाओं को परिवार के लोग ही मायके भेज देते हैं। परिवार और समाज में रहकर मानसिक रूप से कितनी महिलायें प्रताड़ित होती है। इसका तो कोई आकड़ा ही नहीं है। टोनही प्रताड़ना कितने खतरनाक रूप में है, वह इसी साल सरगुजा के लखनपुर क्षेत्र में देखने को मिला था, जहां एक गांव में टोनही के नाम पर भूत-प्रेत भगाने की बात कर महिलाओं को लोहे ही छल्लेदार जंजीर से पीटा ही नहीं गया, बल्कि पचास से ज्यादा महिलाओं के बाल काट दिये गये और उन्हें पूरे गांव में घूमाया गया।
यहां के कई गांव में जादू-टोना करने वाले महिलाओं को चिंहाकित करने के नाम पर गांव के लोगों एक स्थान पर एकत्र होगा कई-कई दिनों तक बैगा-गूनियाओं के साथ झाड़-फूंक करते हैं। जब ये बैगा-गुनिया किसी महिला को टोनही घोषित कर देते होंगे तो उस महिला के मन में क्या गुजरता होगा ? ऐसी स्थिति में गांव और उसके पड़ोसी ही नहीं बल्कि रिश्तेदार और परिवार के लोग भी उसे दूसरी नजर से दिखने लगते हैं। वहीं जब कभी आस-पड़ोस या परिवार में कोई बीमार पड़ता है, कोई अनहोनी हो जाती है तो सबसे पहले उसी महिला पर सबकी नजर होती है कि कहीं उसी की कारामात तो नहीं। भारत की आत्मा कहे जाने वाले ऐसे गांवों से यह खतरनाक जहर कब दूर होगा, कहना मुश्किल है। -दिलीप जायसवाल

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

ग्रामीण पत्रकारिता के सामने बाजारवाद की चुनौती

गांव, खेत, खलिहान और भी बहुत कुछ। विकास के लिए चलाई जा रही योजनाओं का हाल, ग्रामीणों की संस्कृति और रहन-सहन आदि। ऐसी कई चीजें ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से मीडिया तक पहुंच पाती है। लेकिन मीडिया गांव की खबरों को कितना महत्व दे रहा है, किसी से छूपा हुआ नहीं हैं। भूत-प्रेत और अंधविश्वास की खबर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया द्वारा विशेष कार्यक्रमों में पैकेज बना कर दिखाया जाता है। लेकिन दो वक्त की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ों के मोहताज लोगों की आवाज को मीडियो अनदेखा करने लगा है।
मीडिया बाजारवाद की मोहमाया में फंस कर अपना दायित्व भुलता जा रहा है। जब हम संचार सुविधाओं को प्रेस के विकास के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं तो यह बात पचने वाली नहीं लगती। इससे प्रेस का नहीं बाजार का विकास हुआ है। सबसे अधिक बाजार अमीर वर्ग करता है। ऐसे में संचार माध्यमों अर्थात मीडिया मं गांवों में कुपोषण से मरने वाले टीव्ही स्क्रीन में अपना जगह शायद ही बना पाते हैं, क्योंकि इससे उनकी टीआरपी नहीं बढती और न ही रईस एयर कडिशनर में बैठ कर ऐसी खबरें देखना पसंद करते हैं।
ग्रामीण पत्रकार कितने जद्दोजहद के बाद सूचनायें जिला मुख्यालयों तक पहुंचाता है, यह चिंतन करने योग्य है। क्योंकि पत्रकारिता की पढ़ाई करने में लाखों रूपये खर्च करने के बाद बना पत्रकार गांव में पत्रकारिता करने में रूचि नहीं रखता। वह मोटी तनख्वाह और सुख-सुविधा की ख्वाहिस करता है। ऐसे में गांवों और कसबाई क्षेत्रों की खबरें संयोग से अखबारों और टीव्ही चैनलों की सुर्खियां बन पाती हैं तो उसमें उसी पत्रकार का अथक मेहनत होता हैं, जिन्हंे ठीक से कागज और कलम तक का पैसा नहीं मिलता। अखबार का जितना कमिशन मिलता है, वही उसका कमाई होता है। आज भी गांवों में कितने अखबार बिक रहे हैं, इसे समझा जा सकता है।
टीव्ही स्टिंगर की खबर चल गई तो वह उत्सव मनाता है, भले उस खबर का दो-चार सौ रूपये कभी भी मिलें। यह बड़ी सच्चाई है कि कई बाऱ इन पत्रकारों से ऐसी भी सूचनाएं मिलती है, जिन्हें सही स्वरूप देकर बनाई जाती है तो खबर हिट हो जाती है। यहां हिट कहने का तात्पर्य केवल टीआरपी बढ़ाने से नहीं है, बल्कि ऐसी खबर जो सरकार को कुंभकर्णी नींद से जागने को मजबूर कर देता है।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के घोर नक्सल प्रभावित वाड्रफनगर मंे अखबारों के संवाददाता के रूप में काम करने वाले अजय सिंह कहते हैं कि वे पिछले 10 सालों से जिला मुख्यालय तक खबरें पहुंचा रहे हैं। अब फोन और नेट के माध्यम से खबर पहुंच जाता है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। कभी फोन खराब रहता था, तो कभी दूसरी समस्या। लेकिन अब पहले से बेहतर है। उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, वे दूरदराज के गांवों से खबरें अखबारों तक पहुंचाते हैं। कभी मलेरिया और उल्टी-दस्त से होने वाली मौत की खबर, तो कभी सरकारी योजनाओं का हाल। अजय सिंह की बातों से साफ झलकता है कि अगर गांवों की खबरें मीडिया तक न पहुंते तो गांवों की हालत कैसी है, शायद शहर में बैठा आदमी नहीं जान सकता।
हमारा देश गांवों का देश है और गांव की हालत जाने बगैर हम नहीं जान सकते की देश की स्थिति कैसी है। इन सब के बाद एक और गंभीर पहलु है कि आज अखबारों के इतने संस्करण हो गये हैं कि वहां की खबर जिले तक ही सिमट जाती है। कभी-कभार राजधानी के संस्करणों के किसी स्थान पर मुश्किल से गांव की खबरें अपना जगह बना पाती हैं। हालांकि गांव की खबरों को राजधानी से निकलने वाले संस्करणों में स्थान मिल रही है, लेकिन बहुत कम। इसके लिए जिम्मेदार कौन है,
जवाब स्पष्ट है- मीडिया बाजारवाद की चपेट में पूरी तरह से आ चुका है, वह उसी खबर को अपने संस्करण में शामिल करता है जिसे ज्यादा लोग देखना या पढ़ना चाहेंगे। ऐसे में राजधानी स्तर पर जहां सरकार के मंत्री और जनप्रतिनिधि तथा अधिकारी बैठते हैं उन तक खबरों के माध्यम से गांवों की तस्वीर नहीं पहुंच पाती। इसके लिए मीडिया अकले जिम्मेदार नहीं हैं। उपभोक्तावाद समाज भी जिम्मेदार है। मीडिया के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वह गांवों का असली रूप नीति-निर्धारकों तक पहुंचा सके।
मीडिया ने ग्रामीण पत्रकारिता को मजबूत बनाने की कोशिश भी की है। गांवों में सुदूर क्षेत्रों तक अखबार पहुंचने लगा है, लेकिन इसका उद्देश्य कुछ और है, जिसे उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना कह सकते हैं। बिहड़ क्षेत्रों में रोज अखबार पहुंच पाना आसान नहीं है, वहां बासी अखबार पहुंचता है लेकिन लोग उसे बासी नहीं बल्कि ताजा मान कर पढ़ते हैं। पहले की तुलना में गांव में जागरूकता भी आई है। मीडिया ने लोगों को अपने हक के प्रति काफी हद तक संघर्ष करने के काबिल बनाया है। लोगों को कम से कम इतना ज्ञान हो गया है कि क्या गलत और क्या सही है। लोग अपने अधिकारों को लेकर अफसरों के दरवाजे खटखटाने लगे हैं और जब उन्हें लगता है कि उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है तो वे मीडिया का सहारा लेते हैं। मीडिया का भी असर नहीं हुआ तो वे अपना दूसरा रूप भी दिखाते हैं जो विरोध प्रदर्शन और चक्काजाम के रूप में दिखता है।
ऐसा नहीं कि पहले अधिकारों को लेकर अत्याचार नहीं होता था। लेकिन अब वे अपना आवाज खुद ही बुलंद करने लगे हैं। लोगों में यह अंकुरण काल से गुजर रहा है। अभी मीडिया और ग्रामीणों पत्रकारों पर चुनौती भरे इस दौर में दायित्व काफी ज्यादा है।-दिलीप जायसवाल

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

बीएसएफ में महिलाएं, पाक का इरादा नापाक

पाकिस्तान को भारत की मजबूत होती सैन्य शक्ति अब बर्दाश्त नहीं हो रही है। वह तुच्छता पर उतर आया है। पाक का यह कहना है कि भारत में जवानों की शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बीएसएफ ने महिला कर्मियों की तैनाती की है। भारत भूमि पर कई विरागनायें हुई हैं। जो इतिहास के पन्नों को गौरवांवित कर रही है। आज भी भारत में ऐसी लड़कियों की कमी नहीं है, जिन्हें नापाक इरादों से निपटने अच्छे से आता है। पाक के दुष्प्रचार से भारतीय सेना और ड्यूटी कर रही महिला सुरक्षाकर्मी आहत हो सकती है। ऐसे स्थिति में सरकार को चाहिए की वह पाक को उसके वक्तत्यों पर मुकम्मल जवाब दे और आरोप पर सही जांच कराये ताकि सीमा पर बेटियों को भेजने वाले मां-बाप विश्वास के साथ गर्व कर सके। यह इसलिए भी जरूरी है कि दूसरे देश भी पाक की तरह भविष्य में उंगली न उठाये। चाहे जो भी हो पाक अपने देश की महिलाओं के प्रति जैसी भावना रखता है, वह उसके इस बयान से भी झलका है। आज भी पाकिस्तान में महिलाओं की हालत दयनिय है। उसे अपने सोच बदलनी चाहिए। पाक मीडिया के माध्यम से उसका यह बयान उस समय आया है जब यहां नवरात्र चल रहा था। नारी शक्ति की आराधना में पूरा देश डूबा हुआ था। उसकी नियत भी साफ है, वह हर हाल में भारत को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता। हमारी सरकार भी सुनने की आदी हो गई है। और उसकी करतूतों को बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया है। पाकिस्तान का ऐसा बयान इसलिए भी हो सकता है ताकि भविष्य में भारतीय लड़कियां बीएसएफ में जाने से सोचें और मां-बाप उनके पैरों पर परम्परारूपी जंजीर जकड़ दे। -दिलीप जायसवाल

रोज बिस्तर में बिछती मंजूला

मंजूला कभी स्कूल जाती थी, वह सबसे होनहार लड़की थी। परीक्षा में हमेशा अच्छे नम्बर लाती थी। वह जब कक्षा दसवीं में पढ़ रही थी, तभी उसके पिता की मौत हो गई। अब उसकी मां रमा पर उसे और छोटे चारों भाई-बहन को पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी आ गई। मंजूला से यह रहा नहीं गया और उसने पढ़ाई छोड़ दी। वह मां के साथ गांव से मजदूरी करने शहर आने लगी। रायपुर की चैड़ी गली में मां बेटी दूसरे मजदूरों के साथ बैठे रहते, कि कोई उन्हें मजदूरी पर ले जाएगा।
दो वर्ष बाद मंजूला की मां की उम्र भी थकने लगी। वह गांव से रोज मजदूरी के लिए पैदल आने में असमर्थ महसूस करने लगी। गांव में सरपंच के घर वह काम करने लगी, ताकि चूल्हा तो जल सके। अब मंजूला दूसरी लड़कियों के साथ मजदूरी के लिए रायपुर आने लगी, दिनभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी सिर्फ अस्सी रूपये ही मिलते। ऐसे में राशन और भाई-बहनों की पढ़ाई के लिए पैसा नही के बराबर ही हो पाता था। वह पड़ोसियों से उधार लेकर छोटे भाई-बहनों को पढ़ाने लगी, ऐसा कब तक चलता ? एक दिन उसकी मां भी बीमार पड़ गई। इलाज के लिए घर में एक कौडी भी नहीं थी। घरेलु काम करने पर रमा को सरपंच के घर से मिलने वाले कुछ पैसे भी बंद हो गये। मां के लिए दवा खरीदनी थी। मंजूला के पास पचास रूपये ही थे। वह आज मजदूरी के लिए शहर निकली तो यह सोची कि मां के लिए दवा भी लेकर आयेगी। वह शहर पहंुचते ही पहले दवा दुकान में गई, तो उसके होश उड़ गये। दवा के लिए पांच सौ रूपये चाहिए थे। वह मायूस होकर जल्दी-जल्दी चैड़ी गली पहुंची ताकि उसे आज काम तो मिल सके।
उसे मायूस देखकर एक महिला ने पूछा तो वह उसे अपनी हालत बताई। यह सुनकर महिला ने उसे जो करने के लिए कहा, उससे मंजूला के पैरों तले की जमीन खिसक गई। उसे मां की भी परवा थी। वह महिला की बात पर हामी भर ली। महिला के माध्यम से मंजूला दुनिया के सबसे पुराने धंधे के लिए तैयार थी। रागनी नामक महिला ने उसका पहचान एक आटो वाले से कराया। मंजूला जैसी जवान लड़की को देखकर आटो वाला खुश हो गया, मानो उसे कोई बड़ा मुनाफा मिलने वाला था। आटो वाले ने फौरन मोबाईल से फोन लगाया और रागनी के साथ मंजूला आटो में बैठ गई। आटो वाला शहर के बाहरी छोर में उन्हें लेकर पहुंचा। वहां दो लड़के मोटरसायकल में पहले से उनका इंतजार कर रहे थे। वही पर एक घर भी था। आटो वाले ने लड़कों को मंजूला को दिखाने के बाद मोल-भाव किया। वे लड़के हजार रूपये देने तैयार हो गये।मंजूला की आत्मा मर रही थी। वह खुद को मानो समझा रही थी। वह यह सोच रही थी कि अब लोग उसे मंजूला ही नहीं बल्कि और नामों से जानेगें। वह यह सब सोच रही थी कि आटो वाले ने मंजूला को आटो से उतारा और दोनों लड़के आगे-आगे तथा मंजूला पीछे-पीछे चलने लगी। वे उस घर में पहुंच गये, जहां और भी लड़कियां थी। अब मंजूला भी बिस्तर पर बिछ चुकी थी।युवकों ने हवस मिटाने के बाद आटो वाले को पांच-पांच सौ रूपये के दो नोट दिये और मोटरसायकल चालू कर चल दिये। इधर मंजूला को पांच सौ का एक नोट आटो वाले ने दिया और ढाई-ढाई सौ रूपये रागनी के साथ बांट लिये। मंजूला कभी सपने में भी नहीं सोची रही होगी कि कभी ऐसा होगा।वह दवाई दुकान पहुंची और जल्दी-जल्दी दवा ली, शाम को घर जाने के लिए तैयार थी। उसकी दूसरी सहेलियां भी आज उसे दूसरी नजर से देखने लगे थे। मंजूला जब घर पहुंची तो हाथ में दवा की थैली देखकर रमा खुश हो गई। मंजूला ने मां को खाना बनाकर खिलाया और डाॅक्टर के बताये अनुसार गोलियां और दूसरी दवाईयां मां को खिलाई। मंजूला की छोटी बहन सुनिता दसवीं में पढ़ने लगी थी। सुबह होते ही वह कहने लगी- दीदी परीक्षा फार्म जमा करना है, दो सौ रूपये चाहिए। मंजूला रोज की तरह फिर शहर पहुंची, आटो वाला मंजूला को देखते ही उसके पास पहुंच गया और बोला- चलना है क्या ? मंजूला ने हामी भरी, उसके आंख से आंसू आ गये। वह आटो में आंसू पोछते हुए बैठ गई। आटो वाला सिगरेट जलाते हुए बातो ही बातो में उसे जलाने की कोशिश करना शुरू कर दिया। आज मंजूला के सामने एक ऐसा व्यक्ति था जिसके बारे में वह कल तक भी नहीं सोची थी। साठ साल से भी अधिक उम्र का यह व्यक्ति अपने हवस मिटाने मंजूला का इंतजार कर रहा था। बेटी की उम्र की मंजूला की इज्जत फिर उसी बिस्तर पर तार-तार हो गई। तीन-चार माह गुजर चुके हैं, एक दिन मंजूला पड़ोस में गई थी, जब वह घर आई तो उसकी सांसें थम गई और वह सब कुछ देखकर सहमी सी रह गई। वही बुजुर्ग आज उसके घर में रमा से बातचीत कर रहा था, जो मंजूला की जिस्म से चंद पैसों के बल पर खेल चुका था। जब वह बुजुर्ग उसके घर से चला गया, तब मंजूला अपनी मां से उसके बारे में पूछने लगी। रमा उसे दूसरी बातों में उलझाने की कोशिश की, लेकिन मंजूला ने मां की एक भी नहीं सुनी और वह उस बुजुुर्ग के बारे में जानकर ही रही। रमा ने बताया- उसकी पहली शादी उसी से हुई थी, बाद में दोनों के बीच तलाक हो गया। दोनों ने दूसरी शादी कर ली, कुछ दिन बाद ही उसकी दूसरी पत्नी की मौत हो गई। वह पड़ोस के ही गांव में रहता था, अब शहर में रहने लगा है, पेंशन पर गुजारा करता है और किराया का घर लेकर रहता है। यह सुनते ही मंजूला फूट-फूट कर रोने लगी। अब वह रोज किसी किशोर, किसी जवान, किसी अधेड़ या किसी बूढ़े आदमी का हवस मिटाने बिस्तर पर बिछ जाती है। दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शिक्षक,छात्र और बजारू सम्मान

समाज में शिक्षकों का सम्मान आदिकाल से चला आ रहा है। अब यह सम्मान औपचारिकता भर रह गया है। बाजार वाद को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। इसने मानवीय संवेदनाओ तथा नैतिक मूल्यों पर प्रतिकुल प्रभाव डाला है। शिक्षा व्यवस्था भी बाजार के अधिपत्य में आ चुकी है। ऐसे में शिक्षक भी इसके प्रभाव से नहीं बच सके हैं। मोटी फीस अदा करने वाले छात्रों का भी शिक्षको के प्रति नजरिया बदला है। यही कारण है कि अब न तो शिक्षा की गुणवता पहले जैसे रह गई है और न ही शिक्षको के प्रति आत्म समपर्ण प्रतीत होने वाला सम्मान। वर्तमान की शिक्षा व्यवस्था सिर्फ नौकरी प्राप्त करने की सोच के साथ तैयार की जा रही है। जहां शिक्षको और छात्रों के बीच का रिश्ता बनावटी दिखाई देता है। वैश्विक परिवेश में इसके लिए शिक्षक और छात्र दोनो जिम्मेदार हैं। कभी किसी शिक्षक पर बलात्कार का आरोप लगता है तो कभी स्कूली परिधान के लिए नाप लेने के नाम पर छात्राओं के कपडे उतरवाए जाते हैंैं। वहीं कोई छात्र अपनी शिक्षिका को पे्रम पत्र देकर पे्रम का इजहार करता है। कभी कोई शिक्षक अपनी छात्रा को मोह जाल में फंास कर उससे शादी कर लेता है। यही नहीं कोई छात्र अपने शिक्षक की गोली मारकर हत्या कर देता है। ऐसी घटनांए कभी कभार ही सुनाई देती है।
एक सच यह भी है कि शिक्षको का एक वर्ग सिर्फ नौकरी मात्र करना चाहता है। उसे छात्र हित की फिक्र ही नहीं रहती। ऐसे मे शिक्षको और छात्रों के सम्मानजनक रिश्ता कैसे बने। इस संक्रमण से निकलने दोनो को व्यवहार में चितंन करने की जरूरत है। प्रस्तुत कर्ता दिलीप जायसवाल

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

पहली बार झूठ लिखा तो कलम हो गया निर्जीव

आज कल मुझे नींद नहीं आ रही है। संयोग से नींद भी आती है तो विश्वविद्यालय दिखाई देता है, लाईब्रेरी दिखाई देता है। जाने ऐसा क्यों हो रहा है, शायद यहां आने से पहले बहुत सारे सपने देखे थे, पर वो सच होते नहीं दिख रहे हैं। कुछ प्रोफेसर और दूसरे कर्मचारियों के अलावा कुछ ऐसे दोस्त हैं जो विश्वविद्यालय तक रोज खींच लाते हैं। नहीं तो जाने क्या होता, मुझे भी नहीं मालूम। आज पहली बार मैंने झूठ लिखा और उसके लिए हस्ताक्षर भी किया। जब हस्ताक्षर कर रहा था तो मेरी आत्मा मर रही थी, कलम तो निर्जीव हो गया था। मानो मुझे मन ही मन कह रहा हो, इतना बड़ा धोखा मेरे साथ क्यों कर रहे हो। लेकिन मैं मजबूर था, मजबूरी ने मुझसे कलम की कुछ पल के लिए कुरबानी दिला दी। यह सब कुछ मैं पत्रकारिता के एक प्रोफेसर के सामने उनके मार्गदर्शन में कर रहा था। मुझ पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने अनुशासनहीनता का आरोप लगाया था, वह इसलिए की मैंने विश्वविद्यालय में कुछ जरूरी सुविधायें नहीं होने पर पत्रकारों को बताया था और टीव्ही तथा अखबारों में दूसरे दिन वह सब कुछ छप गया था। इसके बाद से अनुशासनहीन छात्र का तमगा दिया जाने लगा। इससे खुद को असहज महसूस करने लगा। कुछ को छोड़कर कक्षा के सहपाठियों ने भी साथ नहीं दिया और मैंने इसकी शिकायत राज्यपाल से की। राजभवन से जब जांच का आदेश आया तो उस पर शिकायत वापस लेने का दबाव बनाने प्रयास किया जाने लगा। वहीं मैं निर्धारित तिथि तक शैक्षणिक शुल्क जमा नहीं कर पाया था। इस पर मेरे सामने एक ही विकल्प था कि मैं शिकायत वापस ले लूं। यही नहीं ऐसा करने पर फीस जमा हो जाने पर आश्वासन दिया गया और फीस जमा हो गया। यहां पर मैंने साफ तौर पर देखा कि यहां अफसरशाह किस तरह मौके का फायदा उठाते हैं।
इस विश्वविद्यालय में साल भर बीत चुके हैं। अपनी बेबाकीपन के कारण प्रोफेसरों के बीच अच्छी छवि नहीं बन पाई हैं क्योंकि मैं चापलूसी नहीं कर पाता। अभी एक दिन जूनियर छात्र कक्षा में बैठे थे, उन्हें मैंने तात्कालिन मुद्दों पर चर्चा के लिए कहा था। दूसरे दिन चर्चा के लिए सभी तैयार होकर आये और कुछ को नहीं मालूम था वे भी पहुंचें, लेकिन जब हम चर्चा कर रहे थे। कक्षा के बाहर से हर प्रोफेसर मुझे देख कर यही सोच रहा था कि मैं छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भड़का रहा हूं। एक प्रोफेसर ने बीच में टोका भी, लेकिन जवाब के बाद वह चला गया। बाद में जब चर्चा खत्म हुई तो पूरे विश्वविद्यालय में प्रोफेसरों के बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि वह यानी दिलीप रैगिंग ले रहा था। मुझे विभागाध्यक्ष ने इस पर अवगत भी कराया और साफ कहा कि जूनियरों से मिलने की जरूरत नहीं है, तुम खुद जानते हो कि तुम्हारी छवि विश्वविद्यालय में सही नहीं है। तुम यहां सिर्फ पढ़ने आओ और अपना काम पर ध्यान दो। यही नहीं एक दिन विश्वविद्यालय के ही टीव्ही कक्ष बंद होने पर उसे खोलने के लिए कहा तो एक प्रोफेसर ने वहां का चाबी नहीं होने की बात कही, लेकिन जब यह साफ हो गया कि चाबी उन्हें के पास है तो वे मुझसे उलझने लगे। उनके साथ एक और प्रोफेसर बैठे हुए थे, वे दादागिरी में उतर आये, हालांकि मैंने मुंह लड़ाना उचित नहीं समझा और वहां से चल दिया।
एक वो घटना भी याद आ रही है, जब कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की को परीक्षा में 15 मिनट विलम्ब से आने पर नहीं बैठने दिया गया तो हम सभी छात्र परीक्षा प्रभारी से मिलने गये। वे अनुशासन का पाठ पढ़ाने लगे, जबकि सच्चाई थी कि वह विश्वविद्यालय के खिलाफ एक मामले को लेकर महिला आयोग से शिकायत की थी। उस पर वे समय को भुना रहे थे।
इन सब बातों से मैंने यह भी सोचा कि काॅलेज, विश्वविद्यालय में किसी छात्र को प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने पर जबरन परेशान किया जाता है लेकिन हार भी नहीं माननी चाहिए। विश्वविद्यालयों में रैगिंग का जितना भय होता है उससे ज्यादा ऐसे छात्रों को स्वार्थ और राजनीति में लगे प्रोफेसरों द्वारा परेशान किया जाता है। विश्वविद्यालय का सफर अभी आधा ही हुआ है और आठ-नौ महीने ही मास्टर डिग्री पूरे होने में शेष है, पर जिन पैमानों के साथ मैं और मेरे मित्रों ने दाखिला लिया था, वह उनके चेहरे में धूमिल होता दिखाई दे रहा है। कारण यही है कि आज मीडिया सेक्टर में जिस प्रकार के लोगों की जरूरत है वैसा हम नहीं बन पाये या फिर इसके लिए हमें विश्वविद्यालय में माहौल नहीं मिला। अब तो मित्रों के चेहरे में उदासी देखकर खुद सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि कल क्या होगा, लेकिन कहते है ना कि कल किसने देखा है। यही सोच कर हम सभी मन को बहलाने की कोशिश करते हैं। सच्चाई भी तो यही है कि अगर कल आयेगा, तो उसे हमें ही देखना होगा। हालांकि मुझे व्यक्तिगत रूप से इस बात पर संतोष मिलता है कि पांच सालों से लगातार विभिन्न अखबारों में काम करने के बाद भविष्य कुछ हद तक सुरक्षित दिखाई देता हूं और लगता है कि अगर यहां मुझे कुछ ज्यादा सिखने को नहीं मिला तो कुछ ज्यादा खोया भी नहीं। हां यह जरूर है कि समय की बर्बादी हुई। लेकिन यहां बहुत कुछ सिखने को भी मिला, चाहे वह जैसा भी रहा हो, अनुभव चाहे कैसा भी हो, अनुभव तो अनुभव ही होता है, जो जिंदगी की हर राह पर काम आता है। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

36गढ़ में सम्पूर्ण स्वच्छता 36 फीसदी पर अटका

छत्तीसगढ़ के बीस हजार गांवों में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत तीन सालों के भीतर पूरी तरीके से खुले शौच को बंद करने के लिए काम किया जा रहा है। वर्तमान में इस पर 36 फीसदी ही काम हो सका है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 48 फीसदी तक काम हो चुका है। सरगुजा को पूरी तरीके से इस कार्य कार्यक्रम के तहत सरकारी रिकार्डों में निर्मल बनाया जा चुका है।
भारत सरकार ने ग्रामीण स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए सन् 1986 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम की शुरूआत की और यह कार्यक्रम अपने उद्देश्यों में पूरी तरह से सफल नहीं हो सका। इस कार्यक्रम के तहत शौचालय निर्माण को प्राथमिकता दिया गया और अनुदान पर ज्यादा भरोसा किया गया, साथ ही स्कूलों की स्वच्छता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। इस पर सन् 1996-97 पर जब भारतीय जनसंचार संस्थान द्वारा सर्वे किया गया तो यह बात छन कर सामने आई कि 55 प्रतिशत लोगों ने स्वप्रेरणा से शौचालय बनवाये, जबकि दो प्रतिशत लोगों ने ही अनुदान के तहत अपने घरों में शौचालय बनवाया, वहीं इतने फीसदी लोगों ने सुविधा व गोपनीयता के आधार पर शौचालय बनवाया। इस कार्यक्रम की बदहाली को देखते हुए सरकार ने सन् 1999 में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान की शुरूआत की और यह लक्ष्य रखा गया है कि सन् 2012 तक सभी घरों में शौचालय बनवा लिया जायेगा। साथ ही लोगों को इसके उपयोग के प्रति भी जागरूक कर लिया जायेगा।
छत्तीसगढ़ में इस कार्यक्रम की स्थिति पर नजर डालें तो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले 42.55 प्रतिशत लोगों ने ही शौचालय बनवाया है, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर इसका प्रतिशत 55.14 है। एपीएल परिवारों की बात करें तो राष्ट्रीय स्तर पर 43.2 प्रतिशत परिवारों में शौचालय है, जबकि राज्य में इसकी स्थिति 31.82 प्रतिशत है। स्कूल में बने शौचालयों में राज्य आगे है। राष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों में बने शौचालयों का प्रतिशत 75.29 है, वहीं छत्तीसगढ़ में 90.47 प्रतिशत है। आंगनबाड़ियों में राष्ट्रीय स्तर पर बनें शौचालयों का प्रतिशत 64.3 है, राज्य में यह प्रतिशत 73.8 है।
सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत ग्राम पंचायत प्रतिनिधियों को भी अपने घरों में शौचालय बनवाने की अनिवार्यता है, लेकिन अभी भी कई पंचायत प्रतिनिधियों ने इसका पालन नहीं किया है। हालांकि कई जिलों में ऐसे पंचायत पदाधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही भी हुई है।
आंगनबाड़ियों तथा स्कूलों में दिसम्बर 2009 तक पूरी तरह शौचालय निर्माण के साथ उसके उपयोग का लक्ष्य रखा गया है। शासकीय स्कूलों को बीस-बीस हजार रूपये लड़के तथा लड़कियों के लिए शौचालय बनाने राशि आंबटित की जाती है। इसमें 14 हजार केंद्र सरकार तथा छह हजार रूपये राज्य सरकार 12वें वित्त आयोग से प्रदान करती हैं। आंगनबाड़ियों में बाल मित्र शौचालय के लिए पांच हजार रूपये खर्च किया जाता है, जिसमें राज्य सरकार डेढ़ हजार रूपये देती है और शेष 3500 रूपये केंद्र सरकार का होता है। सामुदायिक शौचालय निर्माण के लिए दो लाख रूपये का प्रावधान है, जिसमें 60 प्रतिशत केंद्र सरकार तथा 30 प्रतिशत राज्य सरकार व 10 फीसदी समुदाय का हिस्सेदारी होती है।
प्रतिवर्ष विश्व भर में जल जनित रोगों से 34 लाख लोगों की मौत हो जाती है। वहीं 25 लाख लोग डायरिया से मर जाते है और भारत में हर साल छह लाख लोगों की मौत हो रही है। इसके लिए खुले में शौच बड़ी समस्या हैं। भारत में 65 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच कर रहे हैं। हर रोज दो लाख मीट्रिक टन मानव मल खुले में होता है, जो डायरिया, पीलिया, टायफाईड, पोलियो, मलेरिया सहित दूसरी बीमारियों का जड़ बनता है।
छत्तीसगढ़ में कुल 402 पंचायत को निर्मल ग्राम पंचायत का पुरस्कार मिल चुका है। सबसे पहले सन् 2005-06 में राजनांदगांव के 12 पंचायतों को और 2006-07 में राजनांदगांव के 16, रायपुर के 10, बिलासपुर के 22 तथा कोरबा के 15 व बस्तर के 27 पंचायतों को यह पुरस्कार मिला, जबकि सन् 2007-08 में सरगुजा के 112, राजनांदगांव के 12, रायपुर के 2, बिलासपुर के 36, कोरबा के 46, धमतरी के 17, महासमंुद के 7, कोरिया के 5, जशपुर के 2, दुर्ग के 1, कांकेर के 7, दंतेवाड़ा के 1 एवं रायगढ़ के 6 तथा बस्तर के 44 पंचायतों को निर्मल ग्राम पंचायत के पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके तहत प्रोत्साहन राशि के अलावा प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति चिन्ह भेंट किया जाता है। यह पुरस्कार 50 हजार से 50 लाख तक है, जो पंचायत, ब्लाक और जिला पंचायत की जनसंख्या पर निर्भर करता है।
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के संचार एवं क्षमता विकास इकाई संचालक यासमिन सिंह ने बताया कि शौचालय तो बन जा रहे हैं, लेकिन जागरूकता एक बहुत बड़ी चुनौती है। लोगों का व्यवहार परिवर्तन के लिए विभागीय स्तर पर होने वाला काम ही पर्याप्त नहीं है।
संचार एवं क्षमता विकास इकाई के वकील अहमद ने बताया कि सरगुजा जिला पूरी तरीके से इस अभियान के तहत स्वच्छ हो गया है। एक सवाल पर उन्होंने कहा कि शौचालयों की देख-रेख की जिम्मेदारी परिवारों की बनती है, वहीं स्कूलों तथा दूसरे स्थानों पर बने शौचालयों की देख-रेख कार्यक्रम के तहत चुनौती है। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है। एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे। सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काॅंग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है।

प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

बुधवार, 26 अगस्त 2009

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है। एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे। सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काॅंग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है। प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है। एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे। सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काॅंग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है। प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है।
एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे।
सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है।

दिलीप जायसवाल

सोमवार, 24 अगस्त 2009

भूख ने दरवाजा खटखटाया

आज सुबह किसी ने दरवाजा खटखटाया, मेरी नींद खुल गई। दरवाजा जैसे ही खोला कोई दूध या अखबार वाला नहीं था। एक महिला बच्ची को गोद में लेकर उसके खाने के लिए कुछ मांग रही थी। बच्ची भी रो रही थी, यह देखकर शुरू मे लगा कि वह ढकोसला कर रही है लेकिन जब रात का बचा हुआ भोजन खाने के लिए दिया तो बच्ची उसे खाने लगी और धीरें-धीरे उसने रोना भी बंद कर दिया। सानिया नामक यह महिला बताने लगी, बाबू- रात में न उसने कुछ खाया है और न मैने कुछ खायी है। मैनें किसी तरह भूख को बर्दास्त कर ली लेकिन कविता सुबह होते ही रोने लगी। ठेकेदार के यहां काम भी की है, महीने भर से ज्यादा हो गया है लेकिन उसने पैसे नहीं दिये हैंै। कविता कुछ खाने के बाद गोद से उतरने की कोशिश करने लगी, गोद से उतरते ही खेलने लगी। यह देख मुझे बडा अफसोश होने लगा कि जाने कितने लोग भूखे पेट ही सो जाते हैं और कितने लोग थाली में ही खाना छोड देते हैं। कितने घरों में सुबह बासी समझकर फेंक दिया जाता है, कितने लोग मोटापा घटाने कम खाते हैं। यह सोच ही रहा था कि सानिया मुझे खामोस देख बोल पडी। बाबू- हम यहीं पर स्कूल के पीछे वाली बस्ती में रहते हैं कभी जरूर आना। प्रस्तुत कत्र्ता- दिलीप जायसवाल

सोमवार, 17 अगस्त 2009


पसीना बहाने के बाद काश हर कोई इसी तरह दो वक्त की रोटी खाता।
पसीना बहाने के बाद काश हर कोई इसी तरह दो वक्त की रोटी खाता।

दस साल बाद मीडिया में ऐसे शीर्षक भी दिखेंगे...

देश ही नहीं बल्कि पूरी दूनिया में बहुत कम समय के भीतर अराजक स्थिति बन सकती है। ऐसे में अखबारों और टीवी चैनलों में काम करने वाले खबर नवीसों को इन शीर्षकों को जरुरत पड़ेगी।
१. पानी की तस्करी जोरों पर
२. पन्द्रह लीटर पानी की लूट
३. पानी चोरों से मुहल्ले वासी परेशान
४. पानी न देने पर पत्नी की हत्या, बच्चों के लिए रखी थी एक गिलास पानी
५. पानी का जखीरा मिला
६. पानी तस्करी के लिए खोजा नायाब तरीका, सायकल की डंडी के भीतर से डेढ़ लीटर पानी बरामद
७. सेंध मारकर पानी की चोरी
८. जूते में छुपाकर रखा था पानी
९. गांव वाले करते हैं क्षेत्र के एक मात्र तालाब का पहरा
१०. बेटी के साथ दहेज में दिया एक टैंकर पानी
११. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये अब मिलेगा पानी, राशन कार्ड पर लगेगी विशेष सील
१२. पुलिस ने दो युवक, एक वृद्ध और तीन युवतियों को नहाते पकड़ा, छुपकर नहाते पाये गये आरोपी
१३. पत्रकारों को पानी का कोटा, पीने के लिए दो लीटर प्रतिदिन, नहाने के लिए दस लीटर प्रति माह, टायलेट में पेपर का प्रयोग।
प्रस्तुत कर्ता दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

सच बोलने की सजा अनुशासनहीनता

आजादी के बाद हमें मौलिक अधिकार मिले हैं लेकिन हमेशा से ही नौकरशाह वर्ग द्वारा इसे कुचलने की कोशिश की जाती रही है। इससे संघर्ष नहीं करने पर यह कहना कि हम आजाद भारत में है, गलत लगता है। इस पर चार माह पूर्व की एक घटना याद आ रहा है। हमारे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में एडिटिंग का साफ्रटवेयर नहीं था और उसके वजह से पढ़ाई तथा प्रेक्टिकल नहीं हो पा रहा था। हमारे सीनियर तो बिना एडिटिंग सीखे ही इस विश्वविद्यालय से निकल गये, लेकिन उस दिन जब विश्वविद्यालय में राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन का पहली बार आगमन हुआ था और मीडिया के लोग भी उसकी रिपोटिंग के लिए पहुंचे थे, इसी दरम्यिान जब मैंने एक टीव्ही चैनल से एडिटिंग साफ्रटवेयर नहीं होने के कारण प्रेक्टिकल में आने वाली दिक्कतों के बारे में बताया तो उसी समय से विश्वविद्यालय प्रशासन तथा प्रोफेसरों की आंखों की किरकिरी बन गया। दूसरे दिन से विभागाध्यक्ष ने मुझे अप्रत्यक्ष रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और दंडित करने की मंशा दिखाई। ऐसा भी नहीं था कि मैं सीधे मीडिया से एडिटिंग साफ्रटवेयर नहीं होने की शिकायत की थी बल्कि इससे पहले भी कई बार हमारे सीनियर इस अव्यवस्था से विश्वविद्यालय प्रशासन को अवगत करा चुके थे। मीडिया में सच बोलने की सजा जो मिली वह भी अनुशासनहीनता। अनुशासनहीनता के नाम पर प्रेक्टिकल के 25 अंकों में से सभी पांचों विषय से सात-सात अंक काट दिये गये, जबकि थ्योरी पेपरों में मिले अंकों के अनुसार कक्षा में मेरा दूसरा स्थान था। सच बोलने और अभिव्यक्ति को अगर इस तरह पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुचलने की कोशिश हो तो इसे क्या कहा जाये ? दुर्भाग्य की बात तो यह है कि अभी भी व्यवस्था नहीं सुधरी है और इस पर सकारात्मक सोच रखने की नसीहत दी जाती है। ऐसी स्थिति में सकारात्मक सोच रखने का भी एक निश्चित होता है। यह सब बताने और लिखने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि क्या इसी को अनुशासनहीनता कहते है। अभिव्यक्ति और स्वतंत्र भारत में अपनी बात रखने पर क्या यही अधिकार मिला है कि उसे नौकरशाह जब चाहे, जैसे चाहे कुचल दे और जिस भी रूप में चाहे उसकी सजा दे। देश में कितने लोगों को उनके अधिकार मिल रहे हैं, यह भी सोचने की जरूरत है। अब हालत तो ऐसी बन गई है कि जीने का अधिकार भी कुचलता हुआ दिखाई दे रहा है। मौलिक अधिकारों की बात करने पर पुलिस की लाठियां बरस जाती है। कभी किसानों पर तो कभी मजदूरों और छात्रों पर वहीं हमारा लोकतंत्र और नेता लगातार लालफीताशाही वर्ग को बढ़ावा दे रहें है। इसका एक कारण यह भी है कि वे इसी से खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत में अधिकार और न्याय अब भी कठिन है। यह सरल होने के बजाय व्यवहारिक दृष्टि से और भी जटिल होता जा रहा है। हालत देखकर यही लगता है कि सन 1947 के बाद देश की टोपी भर बदली है, सब कुछ वही है। आज पूरा लोकतंत्र नौकरशाही के तंत्र से इस कदर जकड़ा हुआ है कि सांस लेने में भी उसका दम घूट रहा है। ऐसे में पत्रकारिता विश्वविद्यालय भला कैसे सुरक्षित रह सकता है। यहां मेरे साथ जो कुछ भी हुआ वह मुझे ज्यादा चिंतित इसलिए करता है क्योकि यहां लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के लिए खंूटे तैयार हो रहे हैं और जब वे मीडिया के संक्रमण काल में यहां के नौकरशाही तंत्र से घाव खाकर जायेंगे तो भला किस तरह से व्यवस्था के प्रति समाज में सकारात्मक सोच के साथ काम करेंगे। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

उन्हें तो पत्रकारिता की डिग्री चाहिए

पत्रकारिता की, डिग्री और पत्रकार होने का रौब हर रोज दिखाई देता है। आज विष्वविद्यालय में दाखिला लेने एक युवती पहुंची। वह षैक्षणिक षुल्क जमा करने के लिए कागजी कार्यवाही कर रही थी, लेकिन आफिस का समय खत्म हो गया था, इस पर बाबू ने दूसरे दिन आने को कहा। यह सुन कर युवती फट परी और कहने लगी वह कुलपति का साक्षात्कार ले चुकी है, वह क्या उनसे जाकर मिले? इस पर बाबू खामोष रहा। उसने फिर कहा उसके पास टाईम नहीं है, वह तीन साल से मीडिया में काम कर रही है, वह फीस जमा करने कल नहीं आ पायेगी। उसे तो सिर्फ डिग्री चाहिए। जी हां, यह एक अकेली यवुती नहीं जिसकी जुबान से इस तरह सुनने को मिलते हैं। बल्कि की विष्वविद्यालय में कई ऐसे छात्र है जो सिर्फ यही कहते हैं कि उन्हें डिग्री लेनी है। ऐसा वे भी कहते हैं जिनका मीडिया से कोई संबंध नहीं है और न ही कोई लक्ष्य है। यह सब बताने का उद्देष्य सिर्फ इतना है कि पत्रकारिता के लिए डिग्री बहुत कुछ नहीं होता, पर छात्रों में ऐसा अहंकार किसी बड़ी भुल से कम नहीं है क्योकि इंसान जिंदगी भर सिखता रहता है और ऐसा नहीं है कि मीडिया में काम करने के बाद उसे पत्रकारिता का पूरा ज्ञान हो जाता हो। षिक्षकों से कुछ न कुछ सिखने को जरूर मिलता है। इस तरह षिक्षा के महत्व को सिर्फ डिग्रियों तक सीमित मानने वालों को सोचने की जरूरत है कि मीडिया पर बाजारवाद के अलावा कई गंभीर आरोप क्यों लगते हैं। इस पर मंथन करते हुए पत्रकारिता की षिक्षा को समझने की जरूरत है। यह बात अलग है कि मीडिया षिक्षा की गुणवत्ता पर भी कई सवाल लगते हैं। इन सवालों और मीडिया षिक्षा की अव्यवस्था के बीच मिल रही षिक्षा भी डिग्री भर तक सोचने वालों को एक नया रास्ता दिखा कर षिक्षित मीडियाकर्मी अर्थात समाज में कार्य करते हुए सफल मीडियाकर्मी की भूमिका के लिए तैयार कर रहा है। उन्हें इस बात को मन से निकाल देनी चाहिए कि मीडिया की डिग्री लेनी है, काम तो उन्हें आता ही है। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

जब वो राखी बेच रहा था...

राजीव ने पत्रकारिता के क्षेत्र में षानदार कैरियर का सपना देखा था लेकिन रक्षाबंधन की पूर्व संध्या पर वह अपने विष्वविद्यालय के पास ही फुटपाथ पर राखी बेच रहा था। वह विष्वविद्यालय से डिग्री लेकर निकल चुका है और कहीं नौकरी नहीं मिलने पर अपनी नियति को समझाने की कोषिष कर रहा था, हालांकि जब उसने मुझे उस दिन देखा तो असहज महसूस करने लगा। वह इसलिए भी क्योंकि मैं कालेज में उसका जूनियर रह चुका था। दुकान के बारे में पूछने पर कहने लगा, दुकान उसकी नहीं है, परिचित के अंकल की दुकान होने पर टाईमपास के लिए आ गया है, लेकिन बेचने और पैसा लेने का काम भी खुद कर रहा था। मुझे यह सब देखकर बढ़ा अफषोस हुआ, वह इसलिए ज्यादा क्योकि वह और उसके साथी सभी पत्रकारिता के क्षेत्र में नाम कमाना चाहते थे, लेकिन वे विष्वविद्यालय से सिर्फ डिग्री लेकर ही निकल सके। पत्रकारिता का व्यवहारिक ज्ञान और धरातल में काम करने वाले पत्रकारों जैसा कुछ भी नहीं सीख सके। षायद यही कारण की उन्हें कोई काम नहीं मिला, जबकि डिग्री मिले दो महीने हो गये थे। राजीव को ऐसा देखकर यह भी सोचने को मजबूर हो गया कि परिवार के सदस्यों ने कितनी उम्मीद के साथ उसे दूसरे राज्य में पढ़ने के लिए भेजा होगा कि बेटा पढ़कर पत्रकार बनेगा और नाम करेगा, पर जो नजर आ रहा था उसमें सब धरा का धरा हुआ दिखाई दे रहा था। राजीव ही नहीं बल्कि और भी कई सीनियर नौकरी के लिए डिग्री लेने के बाद खाक छान रहे हैं, लेकिन इंटरषीप के बाद उन्हें कहीं नौकरी नहीं मिली और कईयों को तो इंटरषीप में भी जाने का मौका नहीं मिला। यह सब बता कर किसी का मजाक उड़ाना नहीं चाहता या किसी संस्था को बदनाम नहीं करना चाहता, लेकिन सच्चाई देखकर अपने कलम को नहीं रोक सका। यह सब बताने का इतना ही मकषद है कि पत्रकारिता की डिग्री भर से पत्रकारिता की दुनिया नहीं चल जाता। इसके लिए काम तो आना ही चाहिए, वह भी ऐसी की कंपनी खुष हो जाये, साथ ही मीडिया के इस सेक्टर में जान और पहचान भी जरूरी है, जिसे आप पहुंच कह सकते हैं।
प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

सोमवार, 10 अगस्त 2009

अफसरशाही की फांसी और मंजू की खुदकुशी

सरकारी तंत्र की जटिलता और नौकरशाहों का रवैया जान पर बन आया है। सरकारों का अफसरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है, आम आदमी त्राहि-त्राहि है। बस्तर के केशकाल में मंजू यादव नामक छात्रा ने इसलिए फांसी लगाकर जान दे दी क्योंकि वह छह माह से जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिए तहसील कार्यालय का चक्कर काट रही थी। इसी तरह अम्बिकापुर में जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पाने के कारण एक युवती की लगी लगाई नौकरी छिन गई। प्रमाण पत्र जारी करने वाले इन सरकारी नुमांईदों का जेब गर्म करने पर 24 घंटे में भी प्रमाण पत्र बन जाते हैं, भले ही फर्जी ही क्यों न हो। ऐसे कई मामले जांच में सामने आ चुके है। इससे कईयों की नौकरी भी गई है जो फर्जी प्रमाण पत्रों के सहारे नौकरी कर रहे थे और कई आज भी सरकारी पदों पर विराजमान है, ऐसी स्थिति बनने के लिए कौन जिम्मेदार है ? इस व्यवस्था को दूरस्थ करने के लिए पहल क्यों नहीं होनी चाहिए। मंत्रियों द्वारा व्यवस्था सुधारने और आम लोगों को परेशानी न हो इसी उद्देश्य से हर महीने समीक्षा बैठक होती रहती है, उसमें लाखों खर्च होते हैं, लेकिन शायद बैठकों के बाद एयरकडिशनर से निकलते ही अफसर और सीख देने वाले सब भूल जाते है। राज्य में जाति प्रमाण पत्रों के सत्यापन के लिए युवाओं की लम्बी कतारें धूप और बारिश हर मौसम में देखी जा सकती है। आखिर सरकारी व्यवस्था में इतनी जटिलता क्यों ? सिर्फ इसलिए की जांच सही तरीके से हो सके। लेकिन उसके बाद भी झूठ पकड़ाता है तो किसके खिलाफ कार्यवाही होती है ? कार्यवाही भी कितने सालों बाद हो पाती है या फिर जांच की फाईल धूल खाती रह जाती है, क्योंकि दोषी अफसर किसी मंत्री का रिश्तेदार या पैसे के बल पर पहुंच वाला होता है। बस्तर के बीहड़ में आत्महत्या करने वाली छात्रा और उसके प्राथमिक कारण सुर्खियों में भले ही न आ पाया हो, लेकिन मुख्यमंत्री डाॅ. रमन सिंह को इस ओर सोचने की जरूरत है कि बस्तर जैसे नक्सल प्रभावित इलाके में भी नौकरशाहों का रवैया जान लेने के लिए काफी है। ऐसे में नौकरशाहों के बिरादरी के प्रति बस्तर के आदिवासी किस सोच के साथ हमदर्दी दिखायें। बस्तर के केशकाल की मंजू यादव का परिवार काफी गरीब है और वह काॅलेज में दाखिला लेने के लिए प्रमाण पत्र बनवा रही थी ताकि उसे छात्रवृत्ति मिल सके, लेकिन अफसरों का रवैया उसे आत्महत्या के लिए सोचने का विवश कर गया। यह अलग बात है कि अभी पुलिस आत्महत्या के कारणों की जांच कर रही है और यह उम्मीद करना कि वह अफसरों के खिलाफ ईमानदारी से जांच करेगी। हालात देखकर बेईमानी लगती है। मंजू जैसी छात्रा घर से तहसील कार्यालय तक कई किमी तक हर 15 और 20 दिन में बस से, तो कभी दूसरे साधनों से जाती थी। उसे आने-जाने तक का पैसा पड़ोसियों से कर्ज में लेना पड़ता था और जब वह तंग आ गई तो घर नहीं लौटी। उसकी लाश फांसी में लटकती हुई मिली। मंजू जैसी जाने कितनी छात्राओं का आवेदन फाईलों में धूल खा रही है। अब दूसरी मंजू फांसी न लगाये सरकार की नींद खुल जानी चाहिए। -दिलीप जायसवाल

शनिवार, 8 अगस्त 2009

सूचना के अधिकार में सरकारी कतरन लाल फीताशाही की निशानी

भ्रष्टाचार और गोपनीयता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जहां भ्रष्टाचार होगी वहां गोपनीयता होगी और जहां पारदर्शिता होगी वहां भ्रष्टाचार की उर्वरा भूमि तैयार नहीं हो सकती। इसी को ध्यान में रखते हुए 15 जून 2005 को सूचना का अधिकार कानून बना और 120 दिन बाद यानि 12 अक्टूबर 2005 को यह लागू हो गया। इस कानून को भारत में भ्रष्टाचार रोकने प्रभावी कदम बताया गया। क्योंकि इसके तहत सरकार दस्तावेजों और प्रपत्रों को देखने तथा प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन चार साल में ही इस कानून से कई सरकारें खिन्न नजर आई। सबसे पहले कर्नाटक सरकार और अब छत्तीसगढ़ सरकार इस कानून से कितने दहशत में हैं, यह भी साफ हो गया है । गत 15 जून को छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य सूचना अधिकार आयोग की अनुसंशा से सूचना के अधिकार कानून में संशोधन किया है कि एक आवेदन ने एक ही विषय वस्तु पर जानकारी मांगी जा सकती है तथा डेढ़ सौ शब्दों से ज्यादा के आवेदन स्वीकार नहीं किये जायेंगे। नौकरशाहों द्वारा सूचना के अधिकार कानून को कतरा गया लेकिन विरोध के स्वर कहीं से नहीं दिखे जो प्रभावी रूप ले सके। समाज के प्रबुद्ध कहे जाने वाले वर्ग की भूमिका पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। सरकार का कानून में यह कतरन भ्रष्टाचार के कारण तो नहीं है। वैसे भी महालेखाकार की रिपोर्ट पर नजर डालें तो छत्तीसगढ़ भ्रष्टाचार के मामले में नम्बर वन है। सूचना के अधिकार के लिए काम करने वाले छत्तीसगढ़ नागरिक पहल के प्रतीक पांडे कहते हैं कि लालफीता शाही की मानसिकता सरकार के इस संशोधन में दिखाई दे रहा है। सबसे पहले कर्नाटक सरकार ने सूचना के अधिकार कानून को कतरा जिसका बुरा प्रभाव वहां बड़े पैमाने पर दिखाई दिया है और अब इसे छत्तीसगढ़ सरकार ने यहां लागू किया है। खास बात तो यह है कि इस संशोधन में जिस तरीके से कहा गया है कि एक आवेदन में एक ही विषय वस्तु की जानकारी दी जायेगी लेकिन विषय वस्तु को परिभाषित ही नहीं किया गया है। विषय-वस्तु आंतरिक स्वरूप को रेखांकित करता है वहीं विषय क्षेत्र बाहरी आवरण को दिखाता है। नौकरशाही में जिस तरीके से मौलिक अधिकारों में शामिल इस कानून के साथ खिलवाड़ किया है वह किसी भी सूरत में आम आदमी के हित में दिखाई नहीं दे रहा है। राज्य ही नहीं अब तो केन्द्र सरकार भी सूचना के अधिकार कानून में छेड़छाड़ करने की कोशिश कर रही है। जब कानून बना उस समय भी कईयों का विरोध झेलना पड़ा था। राज्य सरकार ने जिस तरीके से इस कानून के साथ खिलवाड़ किया है वह उसके दायरे में भी नहीं था और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि राज्य सूचना आयोग जिसके पास इस कानून के संरक्षण की जिम्मेदारी है उसने ही कानून को कतरने की इजाजत दे दी।यहंा बताना लाजमी होगा कि सरकार सूचना के अधिकार कानून का प्रचार प्रसार भी नहीं करना चाहती। यह बात अलग है कि इसके नाम पर करोड़ों रूपए खर्च हो चुके हैं। सूचना का अधिकार कानून ब्लेकमेलरों के लिए वरदान साबित हुई है। ऐसे में इस कानून का उद्देश्य सिर्फ कागजों तक ही सीमित दिखाई दे रहा है। हालंाकि इस कानून से मीडिया को काफी लाभ हुआ है और वह इसके माध्यम से सूचनाएं प्राप्त कर समय-समय पर कई सरकारी घोटालों और कालगुजारियों का पर्दाफाश किया है। जो इस कानून के बिना संभव ही नहीं था। देश में इस कानून के लागू होने के बाद भी लालफीताशाही की छाया दूर नहीं हो सकी। क्योंकि इसी के भीतर ही यह कानून संचालित है। यही कारण है कि आवेदन करने पर भी कोई भी सरकारी नुमाईंदा जानकारी नहीं चाहते। सैकड़ों आवेदन राज्य सूचना आयोग के पास पड़े हुए हैं और आयोग के निर्देशों के बाद भी अधिकारी जानकारी नहीं देना चाहते यानि आम आदमी सरकारी नुमाईंदों के रवैये के कारण आसानी से जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता । उसे इसके लिए भी सूचना आयोग के आगे लंबी लड़ाई लडऩी पड़ रही है। यहां उल्लेख करना जरूरी होगा कि संविधान अनुच्छेद 19(1)के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है। सरकार से कुछ भी पूछे यह कोई भी सूचना मांगा जा सकता है। किसी भी सराकरी निर्णय की प्रति ,दस्तावेजों का निरीक्षण, सरकारी कार्यो का निरीक्षण और सरकारी कार्यो के पदार्थो का नमूना लिया जा सकता है। खाश बात तो यह है कि सरकार द्वारा नियंत्रित वित्त पोषित या नियंत्रित इकाईयां भी इस कानून के दायरे में हैं लेकिन इसकी धज्जियां उड़ रही है। छोटी सी बात की हर सरकारी दफ्तर के बाहर सूचना के अधिकार संबंधी बोर्ड लगा होना चाहिए लेकिन आज भी कई दफ्तरों में बोर्ड का अता पता नहीं है। ऐसे में इन संस्थानों में 30 दिन के भीतर जानकारी देने और जीवन की स्वतंत्रता प्रभावित होती हो तो 48 घंटे के भीतर जानकारी देने की बात सपनों में भी दिखाई नहीं देती है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि पूरा सरकारी तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से इसके लिए अनुकूल माहौल बना चुका है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि इस कानून को सालों बाद दबाव में आकर संसद द्वारा पास किया गया। राज्य सरकार के अफसरों की सुने तो उनका कहना है कि एक ही आवेदन में ऐसी जानकारियां मांगी जा रही थी जिसे दे पाना व्यवहारिक दृष्टि से दे पाना संभव नहीं था। लोग कुछ भी जानकारी मांगते थे। लेकिन यहां यह भी साफ है कि लोग मौलिक अधिकारों में शामिल इस कानून के तहत सरकार से कुछ भी जानकारी मांग सकते हैं जो देश, समाज, राष्ट्र हित के विपरीत न हो और न ही इससे देश की सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ता हो। प्रस्तुतकर्ता - दिलीप जायसवाल

सोमवार, 3 अगस्त 2009

दस करोड़ पेड़ों की कटाई के बाद लगेगा पावर प्लांट

छत्तीसगढ़ में विनाश के नाम पर विकास की तैयारी की जा रही है। राज्य के उत्तर में स्थित सरगुजा तथा कोरबा में दस करोड़ पेड़ों की कटाई कर पांच कोयला खदानों तथा दो पावर प्लांट की स्थापना का काम शुरु हो गया है। इससे २९ हजार परिवार विस्थापित हो रहे हैं। वहीं हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि तबाह हो रही है। इफको द्वारा खोले जा रहे पावर प्लांट का ग्रामीणों द्वारा पुरजोर विरोध किया जा रहा है और यहां सिंगुर जैसे हालात बने तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। राज्य सरकार द्वारा सरगुजा के प्रेमनगर में इफको पावर प्लांट तथा सरगुजा एवं कोरबा के बीच अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट की स्थापना की जा रही है, इससे १०३ गांव बुरी तरत से प्रभावित हो रहे हैं। इन पावर प्लांटो को चलाने के लिए ५ कोयला खदान भी खोले जायेंगे। पहला कोयला खदान सरगुजा में तारा में होगा जिसे इफको द्वारा संचालित किया जायेगा। जबकि उदयपुर के परसा में गुजरात के अदानी एण्ड अदानी गु्रप, केते में राजस्थान सरकार द्वारा केदमा के पास नकिया में स्टरलाईट एवं कोरबा के मोगरा में पतुरिया खदान इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चलाया जायेगा। इसी तरह इफको पावर प्लांट प्रेमनगर में तथा अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट उदयपुर में लगाया जाना है। अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट के लिए साल भर पूर्व सरकार ने ए.एम.यू. किया है जिसके तहत १५ सौ हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। वहीं सन् २००५ से इफको द्वारा पावर प्लांट शुरु किया गया है जिसके लिए ७५० हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित किये जाने का काम चल रहा है। खास बात यह है कि इफको पावर प्लांट तथा तारा कोल ब्लाक की स्थापना से १ करोड़ ५३ लाख १९ हजार से अधिक पेड़ कटेंगे। इतने पेड़ ३३०० हेक्टेयर जमीन में हैं। इस तरह एक बड़ा क्षेत्र का जंगल साफ तो होगा ही साथ ही १५० से अधिक जड़ी-बुटियों की प्रजातियां नष्ट होंगी वहीं कई वन्य जीवों का अस्तित्व भी खतरे में आ जायेगा। इसके अलावा प्रदूषण की जो समस्या होगी उसकी भयावहता को लेकर समझा जा सकता है। दोनों पावर प्लांटो की स्थापना को लेकर सरकार तथा निजी कंपनियां पूरी ताकत झोंक दी हंैं। क्योंकि ग्रामीणों तथा समाजसेवी संगठनों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है। एक एनजीओ के पदाधिकारी मेंहंदीलाल का कहना है कि प्रेमनगर क्षेत्र में खुलने जा रहे इफको पावर प्लांट की स्थाना से ५ गांव पूरी तरीके से उजड़ रहे हैं और इन ग्रामीणों के साथ मिलकर वे इसका विरोध कर रहे हैं। क्योंकि प्रशासन द्वारा नियम कानून को ताक पर रखकर ग्राम सभा का प्रस्ताव पास करवाया जा रहा है। विरोध को देखते हुए पुलिस बल की मौजूदगी में दबाव डालकर सरपंचो से हस्ताक्षर कराये जा रहे हैं। जबकि नियमत: ग्राम सभा में प्रस्ताव विस्थापन की प्रक्रिया पूरी होने के साल भर बाद होना चाहिए। पावर प्लांट की स्थापना से करोड़ों की संख्या में पेड़ों की कटाई तथा हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि के नष्ट होने से आक्रोशित ग्रामीणों ने दो वर्ष पूर्व सिर मुंडा कर विरोध प्रदर्शन किया था । वहीं महिलाओं ने रक्षासूत्र बांधकर पेड़ों की सुरक्षा की सौगंध ली थी। इसी से समझा जा सकता है कि ग्रामीण जल,जंगल और जमीन की सुरक्षा को लेकर कितना चिंतित हैं। इफको पावर प्लांट की स्थापना के लिए गांव पहुंचने वाले कर्मचारियों के साथ ग्रामीणों की झड़प हो रही है। इसी विरोध के परिणामस्वरूप २००९ तक बनकर तैयार होने वाला इफको का पावर प्लांट का ५० फीसदी काम भी पूरा नहीं हो पाया है। लोगों ने पेड़ों की कटाई को रोक कर रखा है। यहां बताना लाजमी होगा कि सरगुजा वनों से पूरी तरह से आच्छादित है जिससे यहां की हालत प्रदूषण की दृष्टि से काफी अच्छी है। वहीं दूसरी तरफ कोरबा की बात करें तो यहां लगे पावर प्लांटो के कारण प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि घरों के छतों पर कार्बन की परत जम गई है साथ ही कई सांस की बीमारियां फैल रही हैं। प्रेमनगर के स्थानीय पत्रकार आलोक कहते हैं कि विकास होना चाहिए लेकिन जिस तरीके से पूरा दृश्य उभरकर सामने आ रहा है वह काफी खतरनाक है। सरकार को अगर प्लांट की स्थापना करनी है तो उसे जंगल तथा कृषि भूमि को छोड़कर बंजर भूमि की ओर ध्यान देना चाहिए। उनका मानना है कि विस्थापन से नाम मात्र के लिए और वह भी कागजों में होता है। इफको प्लांट से प्रभावित हो रहे सलका गांव के प्रीतराम का कहना है कि सरकार उनकी जमीन ले रही है लेकिन वे खेती कहां करेंगे। प्रीतराम के चार लड़के है ऐसे में उन्होंने सोचा था कि सभी को एक-एक हेक्टेयर जमीन बांट देते और सभी खेती करते। प्रीत कहते है कि जमीन उनके दादा-परदादा के जमाने की है, जमीन ने उनकी कई पीढिय़ों को पाला है वे किसी भी सूरत में अपनी जमीन नहीं देने वाले। पैसा तो आता-जाता रहता है। वे अपनी जमीन के लिए जान भी देने को तैयार हैं। सरगुजा में एस.ई.सी.एल. भी है। इससे प्रभावित लोगों की हालत आज बदत्तर है उन्हें विस्थापन के तहत कई दशक बीत जाने के बाद भी न तो ठीक से पीने के लिए पानी मिल पा रहा है और न ही दूसरी बुनियादी सुविधाएं। पड़ोस की ऐसी हालत को देखकर भला लोगों को विस्थापन की चमक-दमक में कैसे यकिन होगा। यहां बताना लाजमी होगा कि छत्तीसगढ़ का शिमला कहे जाने वाले मैनपाट की हालत बालको के बॉक्साईड खदान के कारण बदहाल हो गई हैं। यहां भी अवैध तरीके से बॉक्साईड उत्खनन से हजारों की संख्या में पेड़ काटे जा चुके हैं। इससे यहां का प्राकृतिक सौंदर्य पर भी ग्रहण लग गया है और स्थानीय लोगों के विकास की बात तो दूर वे बदहाल की जिंदगी जीने को मजबूर हो गये हैं। इस तरह देखा जाये तो प्रदूषण की चपेट से दूर सरगुजा में विनाश के नाम पर जिस तरीके से विकास की तैयारी की जा रही है वह किसी खतरे से कम नहीं है। वहीं सरकार भी धरातल को देखे बीना पावर प्लांट तथा कोयला खदानों की स्थापना के लिए कवायद कर रही है। सरकारी कवायद के साथ ग्रामीणों तथा समाजसेवी संगठनों का विरोध भी चल रहा है। खास बात तो यह है कि यह सब होते हुए भी राज्य के कुछ बड़े पूंजीपति तथा उद्योग घरानों ने सरगुजा में जमीन भी खरीद लिया है ताकि यहां पावर प्लांट तथा कोयला खदानों की स्थापना हो तो उन्हें असानी से लाभ मिल सके । प्रस्तुत कर्ता दिलीप जायसवाल