शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

नक्सलियों से शांतिवार्ता विफल, दो पाटो के बीच पिसते आदिवासी

छत्तीसगढ़ में नक्सलियों से शांतिवार्ता की राह अब आसान नहीं दिखाई दे रही है। नक्सलियों ने ही शांति वार्ता के लिए कदम आगे बढ़ाया था और सरकार ने भी इसका स्वागत किया था। शांतिवार्ता को आगे बढ़ाने सरकार ने मीडिया को बीच में लाया ,लेकिन अब खुद मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह नक्सलियों से तब तक बातचीत के लिये तैयार नही हैं जब तक नक्सली हिंसक गतिविधियां बंद नहीं करते। ऐसे में सरकार सुरक्षा बलों के माध्यम से नक्सलियों पर दबाव बनाकर निपटने की रणनीति बना रही है। मध्यप्रदेश काल से छत्तीसगढ क़ो नक्सली समस्या विरासत में मिली । जब राज्य बना तो नक्सली गतिविधियां तेज हुई और बस्तर सहित पूरा सरगुजा नक्सलियों की चपेट में आ गया । लेकिन जब पिछले साल भर के भीतर खासकर दक्षिण बस्तर में नक्सलियों पर सुरक्षाबल के जवान हावी हुए तो नक्सली प्रवक्ता पांडू का बयान आया कि वे शांति वार्ता के लिए तैयार हैं। आदिवासियों का वे विकास चाहते हैं। सरकार ने भी नक्सली नेता के इस पहल का स्वागत किया । यही नहीं प्रदेश के गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने नक्सलियों से बातचीत में मध्यस्ता के लिए मीडिया को आगे आने का आव्हान किया। नक्सलियों के इस पहल के बाद भी नक्सली वारदातें नहीं रूकी और जब मीडिया ने नक्सली प्रवक्ता पांडू से इस पर पूछा तो उसका कहना था कि उन्होंने शांति वार्ता के लिए पहल किया है। जब सरकार इसे स्वीकार कर लेगी तभी उनकी कार्यवाही रूकेगी। वहीं दूसरी तरफ मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह एवं गृहमंत्री श्री कंवर ने साफ तौर पर कह दिया है कि जब तक नक्सली गतिविधियां नहीं रूके गी, नक्सलियों से बातचीत संभव नही है। गौरतलब है कि नक्सलियों ने बातचीत के लिए सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों को जंगल में बुलाया था और सुरक्षा का आश्वासन भी दिया था यहीं नहीं यह भी कहा था कि अगर वे जंगल में नहीं आना चाहते, नक्सली खुद आने को तैयार है। अब जब नक्सलियों से शांति वार्ता का रास्ता कठिन दिखाई दे रहा है वहीं जब यह पहल नक्सलियों की ओर से हुई थी,नक्सली हिंसा झेल रहे लोगों को अच्छा समाचार मिला था। लेकिन उस समय भी यही बात सामने आ रही थी कि क्या सरकार हिसंक गतिविधियां जारी रहने की बात करेगी। नक्सलियों से शांति वार्ता के लिए सरकार के रणनीतिकार योजना भी बनाने लगे थे और सरकार ने नक्सलियों को बातचीत के लिए रायपुर आमंत्रित किया था। शांति वार्ता का कदम अब शायद कभी हो पाये,सरल नहीं लग रहा है। नक्सलियों से शांतिवार्ता के लिए जब गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने मीडिया को आगे आकर बात आगे बढ़ाने का निमंत्रण दिया था, उस समय यह भी सवाल उठा था कि सरकार एक तरफ जनसुरक्षा अधिनियम बनाकर रखी है और दूसरी तरफ नक्सलियों से शांतिवार्ता में मीडिया को सहभागी बनने का आमंत्रण दिया जा रहा है। इसी पर मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के संसदीय सलाहकार अशोक चतुर्वेदी का मानना है कि मीडिया को शांति वार्ता की कार्यवाही में शामिल नहीं करना चाहिए । वे कहते हैं कि आंध्रप्रदेश में क्या हुआ, मीडिया को यहीं कारण था कि वह बदनाम होना पड़ा। नक्सलियों से बातचीत का रास्ता भले ही बंद होता दिखाई दे रहा हो लेकिन अगर संभव हुआ होता तो छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा जन सुरक्षा अधिनियम पर भी कई सवाल उठते । ये सवाल इस लिए उठते क्यों कि जब यह अधिनियम बना तो पत्रकारों पर भी नक्सली वारदातों से जुड़ी खबरों एवं मीडिया द्वारा नक्सलियों का साक्षात्कार लेने पर बंदिश दिखाई दे रही थी। लेकिन बताना लाजमी होगा कि सरकार द्वारा मीडिया के प्रति नक्सली मुद्दे को लेकर सकारात्मक रूख अपनाया गया और 15 दिन पूर्व पत्रकारों ने बीहड ज़ंगल में जाकर नक्सलियों के भूमकाल आंदोलन पर आयोजित कार्यक्रम में नक्सली नेता से बातचीत की। चाहे जो भी हो शांति वार्ता का प्रयास विफल हो गया है । ऐसे में सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या हिंसा का जवाब हिंसा से ही दिया जायेगा और सुरक्षाबलों तथा नक्सलियों के बीच पीस रहे आदिवासी आजाद हो पायेंगे।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

विश्वास की बात विश्वास के लिए...

किस पर विश्वास किया जाये, कैसे विश्वास किया जाये। यह सवाल लगातार गहराता जा रहा है। समाज में संचार के साधनों का तेजी से विकास हुआ है, लेकिन दूसरी तरफ उसी के साथ विश्वास पर भी संकट का बादल गंभीर हुआ है। स्थिति ऐसी हो गई है कि मां और बाप पर विश्वास नहीं रहा। भाई- बहन , पति- पत्नी, प्रेमी- प्रेमिका के बीच विश्वास का रिश्ता टूटता जा रहा है। कई तो ऐसे भी मिल जाते हैं, जिनका यह भी कहना होता है कि उन्हें खुद पर विश्वास नहीं है। कहने का मतलब साफ है कि अब घर के सदस्यों के बीच से भी विश्वास गायब हो गया है। ऐसे में जब हम राज्यों और देशों के बीच विश्वास की बात करते हैं , तो हमें खुद को भी झांक कर देखने की भी जरूरत है। विश्वास की बात कर रहा हूं तो मेरे जेहन में यह बात भी आती है कि आखिर इसके लिए कौन जिम्मेदार है। शायद कोई अकेला इसकी जिम्मेदारी नहीं ले सकता जैसे आतंकवादी किसी हमले या विस्फोट की जिम्मेदारी ले लेते हैं। आज व्यक्ति रोबट की तरह हो गया है। वह सिर्फ दौड़ रहा है, उसे यह भी नहीं मालूम कि वह जो कर रहा है वह क्या कर रहा है? उसके करने से परिणाम क्या होगा, सोचने तक की फुर्सत नहीं है। हालत यह कि आज जब व्यक्ति सुबह उठता है और काम के लिए निकलता है,तब तक उसका बेटा सोता रहता है और जब काम करके रात में लौटता है तो बेटा सो गया रहता है। वह जन्म लेने के कुछ साल तक तो कभी कभार ही अनजाने में बाप का चेहरा देख पाता है। जब स्कूल जाने के काबिल होता है तो उसे किसी हास्टल में भेज दिया जाता है, पढ़ाई की उम्र तक यूं ही चलता रहता है और उसे परिवार से विश्वास की शिक्षा ही नहीं मिल पाती। विश्वास की चिंता मुझे यादा ही सताती है, क्योंकि यह लगातार नष्ट होता जा रहा है, इसके बिना हम विकास की भले कोई भी ऊंचाई क्यों न छू लें जब तक विश्वास की छाया परिवार समाज के बीच नहीं होगी, सुखद समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। समाज में अविश्वास का फैलता जहर कितनों कि हत्या कर रहा है, यह कोई बताने वाली बात नहीं है। कुछ नेताओं को मंच से इसकी चिंता भी सताती है, लेकिन मंच से उतरते ही अविश्वास की छाया उन्हें घेर लेती है। आखिर विश्वास बहाली कैसे हो पायेगा, जरा सोचिये।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

लाठियां खाने के लिए पीठ मजबूत कर लो यारों


डाक्टरों को भगवान का दर्जा दिया जाता है। ऐसा भगवान बनने के लिए लाठियां भी खानी पड़ती हैं। हां यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ में ही ऐसा होता है। ऐसा भी नहीं है कि यहां डाक्टरों की समझ रखने वाला कोई नही है। भले ही स्वास्थ्य मंत्री को डाक्टरी की ए बी सी डी नहीं आती हो,मुख्यमंत्री रमन सिंह खुद डाक्टर हैं। उन्हें इस ओर ध्यान देना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ,होम्योपैथिक छात्रों पर पुलिस की लाठियां तो बरसी ही। पुलिस के एक अफसर ने जिस तरीके से एक छात्रा की छाती पर लात चलाया। इसे सब ने देखा उसके बाद तो अब कांग्रेस को भी राजनीति करने के लिए मसाला मिल गया है। यह सब आखिर क्या संदेश दे रहा है, थोड़ा भी समझ रखने वाले के लिए काफी है लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि लाठी चार्ज के विरोध में होम्योपैथिक छात्रों ने जिस तरीके से रायपुर बंद का आव्हान किया, वह यहां के व्यापारियों के दिल तक शायद नहीं पहुंच सका । छात्र आंदोलनरत हैं,अब तो छात्रों पर बरसी लाठियां यही बयां कर रही है कि अधिकारों और अपनी जायज मांगॊ को लेकर लाठियां खानी पड़ेगी। वैसे तो मजदूरों,किसानों, गरीबों पर छत्तीसगढ़ में राज्य बनने के बाद यादा ही लाठियां खानी पड़ी हैं। अब मांगों को लेकर सड़क पर उतरने की तैयारी करने वालों को अपनी योजना में लाठी चार्ज को भी शामिल करना पड़ेगा, लाठी खाने के लिए पहले से पीठ और हाथ पैर भी मजबूत करना होगा। वैसे तो राज्य में आंदोलन करने वाले शिक्षाकर्मियों की पीठ तो पहले से ही मजबूत है। उद्योगों तथा पावर प्लांट का विरोध करने की तैयारी करने वाले किसानों को डरने की जरूरत नही है । क्या हुआ ज्यादा होगा तो दो- चार भाई मर ही जायेंगे, लेकिन अपनी जमीन तो बचेगी। किसान से हमाल तो नही बनेंगे। बात शुरू की थी छात्रों से और खत्म हो रही है किसानों से , क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में राज्य के किसानों पर ही लाठियां बरस सकती है। प्रस्तुतकर्ता - दिलीप जायसवाल

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

राजिम कुंभ में धर्म और संस्कृति के बीच तड़पता सच्चाई,सागर माली की दास्तां

राजिम कुंभ में धर्म और संस्कृति के बीच तड़पता सच्चाई,सागर माली की दास्तां

छत्तीसगढ़ राजिम कुंभ में धर्म और संस्कृति के बीच देश की एक सच्चाई भी दिखाई दे रही है। दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में मध्यप्रदेश के जबलपुर से पहुंचे सागर माली के बच्चो को देखकर सभी धर्म और संस्कृति दूर-दूर तक गायब नजर आता है। बच्चों के पास न तो तन ढकने के लिए कपड़े हैं और न ही पेट की आग बुझाने के लिए रोटियां । बच्चे कुपोषण का शिकार हो चुके हैं। इन सबके बाद भी आस्था का लाबदा ओढ़ने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता। राजिम कुंभ में हर रोज हजारों की संख्या में आस्था की डूबकी लगाने वाले पहुंच रहे हैं। ऐसे में जबलपुर से सागर माली भी पहुंचा है, लेकिन वह कोई धर्म या आस्था के सरोकार के साथ नहीं पहुंचा है। उसके चेहरे में तो हमेशा बच्चों की भूख और गर्भवती पत्नी की चिंता दिखाई देती है। सागर माली ने बताया कि उसकी शादी सन 1992 में हुयी थी और उसकी सबसे बड़ी बेटी कावेरी है, वह उसे पढ़ाना भी चाहता था लेकिन गरीबी के कारण नहीं पढ़ा सका। उसे छोटा बेटा मानिक भी स्कूल नहीं जा सका। फूलकी, सूरज , अर्जुन, सरस्वती,शिवम चारों आंगनबाड़ी में जाते हैं। इसके बाद भी सूरज का चेहरा सूरज की तरह नहीं चमक रहा बल्कि सूरज कुपोषण का शिकार हो चुका है । उसके पेट बाहर निकले हुए हैं। इस पर सागर कहता है कि वह क्या करे, बच्चों का पेट पालने के लिए ही वह जंगलों में जाकर जड़ी-बूटी एकत्र करता है और उसे किसी भी मेले या बाजार में ले जाकर बेचता है। यहां भी वह रामकंद बेचने आया है। वह एक अखबार को दिखाता है जिसमें उसे राजिम कुंभ में रामकंद बेचते दिखाया गया है । दूसरे फोटो के साथ उसे उसमें राजिम कुंभ का आकर्षण बताया गया है। इस आकर्षण के पीछे की सच्चाई शायद लोग जानना भी नहीं चाहते । सागर माली सात बच्चॊ और पत्नी के साथ यहां कुंभ में एक झोपड़ी बनाकर रह रहा है। झोपड़ी भी हर रोज उजड़ जाती है, आखिर नदी की बालू में कोई घरौंदा भी कब तक ठहर सकता है। सात बच्चे होने पर सागर कहता है कि वह क्या करें ,उसके समाज में महिलाओं का आपरेशन नहीं किया जा सकता है। जब उसे गांव की नर्स ने नसबंदी कराने के लिए कुछ दिन पहले कहा तो वह नसबंदी करा लिया है। राजिम कुंभ में सागर माली ही अकेला ऐसा नहीं है बल्कि समाज और परिस्थितियों की विडंबना से जाने कितने लोग घिरे हुए दिखाई देते हैं। ऐसा नहीं है कि इन्हें इस त्रासदी से दूर नहीं किया जा सकता है। लेकिन कईयों की नजर भी तो इसे देखना पसंद नहीं करता।

राजिम कुंभ पर संकट के बादल, आस्था की धरती के साथ मजाक


छत्तीसगढ़ का प्रयाग कहा जाने वाला राजिम कुंभ पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। राजिम कुंभ में शाही स्नान के लिए गंगरेल बांध का पानी भरना पड़ रहा है । राजिम का संगम स्थल जनवरी माह के अंत में ही सूख गया था। महानदी,सोढूर और पैरी तीनों नदियों का जल स्तर तेजी से घटा है। आश्वासन और दावों तथा चिंतन मंथन को छोड़ दिया जाए तो नदियों का जल स्तर बढ़े इसके लिए कोई प्रयास भी नहीं किया जा रहा है। यही हाल रहा तो राजिम कुंभ में क्या श्रध्दालु रेत से स्नान करेंगे? मध्य प्रदेश से विभाजित होकर जब छत्तीसगढ़ राज्य बना और भाजपा की रमन सरकार आयी , राजिम में हर साल कुंभ का आयोजन शुरू हुआ, जो इस साल भी आयोजित की गई है। यहां साधु संतो का जमावड़ा भी लगा हुआ है । हालांकि इस साल पिछले वर्ष की तुलना श्रध्दालुओं की संख्या कम हुयी ही है साधु संतो में भी उत्साह नहीं दिखाई दे रहा है। हालांकि प्रशासन की ओर से प्रयाप्त व्यवस्था है इन सब के बाद भी दूर दराज से आने वाले लोग जब इस बात से अवगत होते हैं कि वे जिस पानी से नहा रहें है वह किसी बांध का है । इससे उन्हें तााुब होता है कि तीनों नदियों के संगम में बांध का पानी लाना पड़ रहा है। पुणे से पत्नी के साथ पहुंचे स्वामी प्रेम बादशाह इस पर कहते हैं कि यह चिंता की बात है इस ओर ध्यान देने की जरूरत है । सिर्फ जागरूकता की बात करने से ही कुछ नहीं हो सकता । वे भी मानते हैं कि राजिम संगम स्थल सर्दी का मौसम खत्म होते-होते अगर सूख जाता है तो इसके लिए बहुत जल्द सरकार को गंभीर होने की जरूरत है नहीं तो राजिम महाकुंभ में शाही स्नान किस तरह हो पाएगा, यह भी चिंता की बात है।जहां एक ओर संगम स्थल पर सूखे की ग्रहण लगी हुयी है वहीं दूसरी तरफ कुछ साधु-संत तो राजिम कुंभ को महज सरकारी कार्यक्रम मानने लगे हैं। हरिद्वार से पहुंचे एक संत का कहना था कि ऐसा कोई माहौल या आस्था नहीं दिखाई देती कि यहां कुंभ का आयोजन हो। इसके अलावा एक संत ने तो यहां तक कह डाला कि राजिम कुंभ राजनीति का अखाड़ा बन जाए तो कोई बात नहीं। यहां उल्लेखनीय होगा कि राजिम में प्रवचन देने वाले साधु-संत धर्मान्तरण की बात कर समाजिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश कर रहें है। वहीं कुछ सरकार या फिर नेताओं की तरफदारी कर यहां पहुंचने वाले श्रध्दालुओं एवं आस्था की भूमि के साथ मजाक कर रहें हैं।

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

पेड़ों पर आशियाना


पेडों पर आशियाने की कल्पना कभी बीहड लगती है तो कभी बडी रोमांटिक। लेकिन पेडों पर आशियाना तमाम सहूलियतों वाला हो तो वहां टिकने का मन किसका न करेगा। अमेरिका के ओरेगोन में खूबसूरत दक्षिणी इलाके में ऐसा ही एक ट्रीहाउस रिसॉर्ट है। आउट एन अबाउट अब दुनियाभर में लोकप्रिय है, न केवल एक रिसॉर्ट के रूप में बल्कि दुनियाभर में पेडों पर आशियाना बनाने के शौकीन लोगों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में। सिसकियू पहाडियों के बीच ताकिलमा की खूबसूरत घाटी में ईस्ट फोर्क इलियोनिस नदी के उद्गमस्थल के ठीक नीचे यह ट्रीहाउस रिसॉर्ट है। बलूत [ओक] के पेडों की डालों पर बने हैं अलग-अलग तरह के ट्रीहाउस। सब कुछ पेडों पर। यह एक अलग ही दुनिया नजर आती है।
लेकिन इस रिसॉर्ट को खडा करने के लिए केवल कल्पना ही नहीं बल्कि लंबी कानूनी लडाई की भी जरूरत पडी। स्थानीय प्रशासन ने टिकने वालों की सुरक्षा का हवाला देते हुए इसे लाइसेंस नहीं दिया। लाइसेंस न मिला तो किराये पर नहीं दिया जा सकता था, इसलिए इसके संचालकों ने खास टीशर्ट बेचकर कमरे मुफ्त में दिए। आठ साल तक चली कानूनी जंग के बाद स्थानीय प्रशासन ने इन पेड-मकानों में सुरक्षा इंतजामों को स्वीकार किया और इसे लाइसेंस व ग्राहक मिले। आज यह यहां स्थापित ट्रीहाउस इंस्टीट्यूट दुनिया में अकेली जगह है जो ट्रीहाउस बनाने के बुनियादी इंजीनियरिंग, डिजाइन व निर्माण के तरीकों के बारे में गैरव्यावसायिक शिक्षा देती है।
यह रिसॉर्ट अनूठा है, इसलिए कई कायदों वाला है। यहां अलग-अलग सुविधाओं वाले कई ट्रीहाउस हैं। कई ट्रीहाउस ऐसे हैं जो तमाम सुविधाओं से परिपूर्ण हैं। जो नहीं हैं उनके लिए ट्रीरिसॉर्ट में बीच में एक बडा बाथहाउस व पैवेलियन है। मेन हाउस के किचन में हर सवेरे नाश्ता दिया जाता है। पैवेलियन में लांड्री, खेल व किचन की सुविधाएं हैं। लंच व डिनर तैयार करने के लिए बार-बे-क्यू, ग्रिल, कैंपफायर, पिकनिक टेबल वगैरह भी हैं। मजे के लिए झूले हैं, कई तरह के रोमांचक खेल [इनमें से कई पेडों से जुडे हुए], वॉलीबॉल कोर्ट और नदी के पानी से भरा रहने वाला मौसमी स्विमिंग पूल है। ट्रीहाउस में गरमियों का मौसम बच्चों व परिवारों से भरा-पूरा रहता है। यह एक समर कैंप की तरह हो जाता है। लिहाजा रोमांटिक लोग ऑफ सीजन में आना पसंद करते हैं।
यहां के द स्वीट को इंजीनियरिंग का कमाल माना जाता है। स्कूलहाउस स्वीट पूरे सालभर खुला रहता है। भीतर से गरम रहता है और इसमें छह मेहमान ठहर सकते हैं। इसका अपना बाथरूम है, टब है। रसोई में फ्रिज है, माइक्रोवेव, कॉफी मेकर, टोस्टर, बर्तन और छह लोगों की जरूरत की सारी चीजें। इसी में एक मास्टर बेडरूम है, दो बच्चों के लिए अलग से लॉफ्ट और बैठकखाना भी। पूरा घर सरीखा और सब कुछ पेड पर। है न हैरत की बात। स्विस फैमिली कॉम्प्लेक्स मार्च से अक्टूीबर तक खुला रहता है। पीकॉक पर्च पूरे साल खुला रहता है। इस तरह के कई अनूठे ट्रीहाउस इस रिसॉर्ट में हैं। जैसे कि ट्रीजेबो 37 फुट की ऊंचाई पर सबसे ऊंचा ट्रीहाउस है। कुछ ऐसे ट्रीहाउस भी हैं जिनका रास्ता पूरी तरह सुरक्षित है फिर भी डर जाने वालों के लिए नहीं। एक ट्रीहाउस से दूसरे पर जाने के लिए कई झूलते रास्ते बने हुए हैं।
सबसे महंगे स्वीट यानी ट्री रूम स्कूलहाउस का एक दिन का किराया चार लोगों के लिए ढाई सौ डॉलर है। सारे किरायों में नाश्ता शामिल है। इसी तरह अलग-अलग ट्रीहाउस के लिए किराये दो सौ डॉलर से 120 डॉलर तक हैं। इन किरायों में ठहरने वाले लोगों की संख्या भी निर्धारित है। प्रत्येक अतिरिक्त व्यक्ति के लिए 20 डॉलर देने होते हैं। जो लोग यहां ठहर नहीं सकते, वे इसे घूमने के लिए भी जा सकते हैं। अप्रैल से अक्टूबर तक हफ्ते में तीन दिन दिन में दो घंटे के लिए इस रिसॉर्ट की सैर की जा सकती है। इसके लिए किराया पांच डॉलर प्रति व्यक्ति है।
इसके अलावा कई तरह की अन्य गतिविधियां भी हैं जिनके लिए शुल्क देकर उनका मजा लिया जा सकता है। इनमें घुडसवारी व राफ्टिंग से लेकर आर्ट एंड क्राफ्ट तक सब शामिल है। लेकिन यहां अपने पालतू जानवरों को लेकर जाने की इजाजत नहीं है। सुरक्षा के लिहाज से तूफान के दिनों में या भारी हिमपात के दौरान इस रिसॉर्ट में ठहरने पर कुछ पाबंदियां लग जाती हैं।
इसे एक ट्रीहाउस वंडरलैंड कहा जा सकता है। यहां कुल 18 ट्रीहाउस हैं, सात झूलते पुल हैं, कई सीढियां, रस्सियां, प्लेटफार्म, और न जाने क्या-क्या हैं- पेडों पर बसी इस नगरी को चलाने के लिए। पूरा रिसॉर्ट 36 एकड इलाके में फैला हुआ है। पूरी तरह एक घरेलू उद्यम है। इसे बनाने के लिए कितनी मेहनत की गई होगी, यह यहां आकर ही समझा जा सकता है। लेकिन यह यकीनन ऐसी जगह है जिसका अनुभव अनूठा ही होगा। अगली बार यदि अमेरिका के ओरेगोन इलाके में जाएं तो यहां जाना न भूलें।
उपेंद्र स्वामी

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

नक्सलियों का ह्रदय परिवर्तन सरकार के लिए चुनौती


छत्तीसगढ क़ो नक्सली समस्या मध्यप्रदेश काल से विरासत में मिली हैं। छत्त्तीसगढ तीन दशक से नक्सली समस्या से जूझ रहा है। राज्य बनने के बाद नक्सलियों की गतिविधियां तेज हुई और सरगुजा तथा बस्तर में खूनी खेल शुरू हुआ। आठ सालों में सैकड़ों पुलिस के जवान, नक्सली और आम आदमी मारे गये। ऐसे में नक्सलियों ने सरकार से शांतिवार्ता की पेशकश की है। नक्सलियों के ह्रदय परिवर्तन को बता रही है। सरकार भी नक्सलियों से बातचीत के लिए तैयार है। जो सुखद है,लेकिन बातचीत से पहले नक्सलियों द्वारा रखी जा रही शर्ते सरकार के सामने उलझन पैदा करती हुई दिख रही है। अगर बातचीत निशर्त: होती है तो महत्वपूर्ण होगा।मीडिया से नक्सली प्रवक्ता कामरेड पांडू ने जिस तरीके से बातचीत की पेशक श की है और कहा है कि सरकार के मंत्री उनके साथ अबुझमाड की जंगल में आकर बातचीत कर सकते हैं। वे सुरक्षा की गांरटी लेते हैं और सरकार के लोग नहीं आना चाहते तो उन्हें बुलाएं , वे रायपुर आ सकते हैं। ऐसे मे एक बात तो साफ है कि नक्सली भी अब खून खराबा नहीं चाहते । हालांकि पांडू ने कहा है कि यह उनका युध्द विराम का प्रस्ताव मात्र है इसे युध्द विराम नहीं समझना चाहिए। उधर पांडू ने यह साफ कर दिया है कि नक्सली राष्ट्रीय स्तर पर शांति वार्ता के लिए तैयार हैं। नक्सलियों से पहले भी राय सरकार बातचीत के लिए मंचों से बात करती रही है लेकिन नक्सली बातचीत करने के लिए तब दिखाई दे रहे हैं जब उन्हें एहसास हो गया है कि जिस उद्देश्य से नक्सल आंदोलन शुरू हुआ था उसमें भ काव आ गया है। वहीं बस्तर घनघोर जंगल में सुरक्षा एजेंसियों के जवानों की जवाबी कार्यवाही भी नक्सलियों की कमर तोडी है। बात चाहे जो भी हो सरकार को सजगता के साथ आगे बढ़कर काम करने की जरूरत है। मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने कहा है कि बातचीत के लिए अधिकारियों का पैनल तैयार किया जायेगा। वहीं गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने नक्सलियों के इस फैसले का स्वागत किया है और कामरेड पांडू को शांति वार्ता की पेशकश करने पर बधाई दी है।नक्सलियों द्वारा शांति वार्ता के लिए आधा दर्जन मांग सामने रखा गया है। जिसे सरकार को गंभीरता से लेने की जरूरत है। जो शर्ते रखी गई है। उनमें सलवा -जुडूम को बंद करने, सिंगावरम में हुए नरसंहार की जांच एवं कार्यवाही , सलवा-जुडूम शिविरों को बंद करने , छत्तीसगढ़ में जन सुरक्षा अधिनियम को रद्द करने नक्सलियों और उनसे जुडे संगठनों पर लगाया गया प्रतिबंध हटाया जाये, जंगल में कार्पोरेट सुरक्षा या अर्धसैनिक बलों तथा कोबरा बटालियन जैसी फौज रद्द कर उन्हें वापस भेजने की मांग शामिल है। जहां तक सलवा -जुडूम की बात है सरकार इसे अब तक ग्रामीणों का स्व स्फूर्त आंदोलन बताती रही है। सरकार से सहयोग और सुरक्षा प्रदान करने की बात करती है। सलवा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट भी सवाल उठा चुका है। वहीं सलवा जुडूम के शिविरों में 60 हजार से यादा लोगा रह रहे हैं। ऐसे में सलवा जुडूम बंद कराने से पहले नक्सलियों को विश्वास जीतने की जरूरत है। सलवा जुडूम के लोगों का घर भी नहीं बचा है और खेती किसानी भी चौपट हो गई है। ऐसे में शिविरों को बंद कर उन्हें नई जिन्दगी दिलाना भी एक बड़ी चुनौति होगी । सलवा जुडूम के अलावा दूसरी शर्तो को भी आसानी से नहीं माना जा सकता क्योंकि सुरक्षा की लिहाज से कुछ शर्तों को स्वीकार करना किसी खतरे से कम नहीं है। अगर बातचीत को सफल होती है तो छत्तीसगढ़ के इतिहास में यह हमेशा के लिए दर्ज हो जायेगा कि भाजपा की रमन सरकार नक्सलियों के युध्द विराम के प्रस्ताव को स्वीकार करने में सफल रही । कामरेड पांडू और छत्तीसगढ़ की मीडिया भी इतिहास के पन्नों पर दिखाई देगी। इन सब बातों से पहले सरकार के नेता मंत्रियों और सरकारी नुमाईंदों को यह हमेशा के लिए याद रख लेना चाहिए कि शांति वार्ता के बाद कभी ऐसी स्थिति न बने जिससे कोई हिंसात्मक आंदोलन शुरू हो। वर्तमान का सामाजिक , राजनैतिक ,आर्थिक तथा व्यवस्था रूपी ढंाचा पूरी तरह संक्रमित हो चुका है। जिसे शांति वार्ता होने के बाद ठीक कर पाना सरकार के सामने बडी चुनौती होगी । यहां पर उल्लेख करना जरूरी होगा कि राय सरकार जहां एक ओर नक्सलियों से बातचीत करने का पहले से ही प्रयास कर रही थी । वहीं मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह कुछ दिन पहले एक पुस्तक विमोचन के कार्यक्रम में यहां तक बोल दिये कि अब वे जवानों से कहेंगे शहीदों के लिए मोमबत्ती जलाना छोड़ों और गोली चलाओं । वहीं गत दिनों नागपुर में भाजपा की आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारणी समिति की बैठक में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि हिंसा का जवाब हिंसा से दिया जायेगा। नेताओं को भी चाहिए कि वे ऐसी उग्र और असवैधानिक बात करने से पहले जरा सोच लें। जुबान बहुत बड़ी चीज होती है, हीरों बनने के लिए इसका वहीं तक उपयोग करना चाहिए जहां तक बात दिल को स्वीकार्य हो।प्रस्तुत्तक‌र्ता दिलीप् जायसवाल्

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

खबरों के प्रसारण पर नए दिशानिर्देश

मुंबई आतंकी हमलों जैसी स्थिति के प्रसारण के लिए मौलिक मानक को ध्यान में रखते हुए न्यूज ब्रॉड कास्टर्स एसोसिएशन [एनबीए] ने बुधवार को नए विशेष दिशानिर्देश पेश किए, जिनमें ऐसी घटनाओं के लिए निष्पक्षता परिशुद्धता और स्पष्टता पर जोर दिया गया है।
दिशानिर्देशों का निर्धारण एनबीए प्राधिकार की एक बैठक में किया गया जिसकी अध्यक्षता पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे एस वर्मा ने की। दिशानिर्देशों में कहा गया है कि खबरों की रिपोर्टिग जनहित को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए। इसके साथ ही परेशानी पैदा करने वाली स्थितियों की रिपोर्टिग में प्रसारकों को स्वविवेक का इस्तेमाल करना चाहिए।
दिशानिर्देशों के अनुसार उन्हें आपरेशन के दौरान ऐसी गोपनीय सूचना का खुलासा नहीं करना चाहिए जिनसे राष्ट्रीय हित जुड़े हुए हैं। इसके साथ ही षड्यंत्रकारियों के साक्षात्कारों का लाइव प्रसारण नहीं किया जाना चाहिए। परिशुद्धता पर जोर देते हुए नए नियमों में कहा गया है कि अगर संभव हो तो एक से अधिक स्रोतों से जानकारी जुटानी चाहिए। संवाद एजेंसियों से प्राप्त खबरों में उनका उल्लेख किया जाना चाहिए और संभव होने पर उसकी पुष्टि की जानी चाहिए।
इसके साथ ही नियमों में कहा गया है कि आरोपों को सही रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। तथ्यों में गड़बड़ी को जल्द से जल्द सुधार कर लेना चाहिए। संतुलित कवरेज पर जोर देते हुए नियमों में कहा गया है कि प्रसारकों को निष्पक्ष होना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विवादित विषयों से संबंधित खबरों में बिना किसी एक पक्ष को महत्व देते हुए विभिन्न विचार शामिल किए जाएं। नियमों में यह भी कहा गया है कि सामग्री के संपादन में प्रसारकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि घटनाओं की रिपोर्ट और तथ्यों में कोई छेड़छाड़ नहीं हो।

शादी गर दवा है तो..

शादी मजाक नहीं। लेकिन अकेले जी रहे इंसान के लिए यह किसी दवा से कम भी नहीं। अच्छा जीवन साथी न सिर्फ सकारात्मक बनाता है, वह मुश्किल घड़ी में भावनात्मक सहारा भी बनता है। तो इस वेलेंटाइन डे पर शादी नहीं करने पर दृढ़प्रतिज्ञ लोगों को हमारी सलाह यही है कि वे एक बार फिर अपने निर्णय पर गंभीरता से विचार कर लें।
दवा से कम नहीं है:
वैसे तो दुनिया की कोई किताब या इंसान यह ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि शादी आपके लिए सही है या नहीं? लेकिन अब वैज्ञानिकों ने भी मान लिया है कि लंबी, स्वस्थ और खुशहाल जिंदगी चाहिए तो शादी न करने की जिद छोड़ दें। बीते 150 ंवर्षो में हुए कई अध्ययनों में कहा जा चुका है कि शादीशुदा लोग कुंवारों के मुकाबले ज्यादा जीते हैं।
बड़े काम की चीज शादी :
शादी के कई फायदे हैं। यह बुढ़ापे में अकेलेपन से बचाती है। प्रतिदिन आपको अपने पसंदीदा व्यक्ति के साथ डिनर का मौका मिलता है। इसे कुंवारेपन का वैकल्पिक इलाज भी कहा जा सकता है। यह दवा खासतौर पर उन लोगों के लिए कारगर है जिन्हें उनका सच्चा प्यार मिल गया है।
ये तो अकेले ही भले :
शादी उन लोगों के लिए दवा नहीं है जिनका तलाक का मामला चल रहा है। जमीन-जायदाद और कानूनी झमेलों में फंसे लोग भी इससे दूर ही ही रहें तो बेहतर। अगर आपको लोगों से समन्वय बैठाने में दिक्कत आती है तो भी शादी से दूर ही रहें।
कुछ चेतावनियां और उपाय:
अगर आपको अंदाजा नहीं है कि शादी के बाद आप की प्रतिक्रिया क्या होगी तो इस दिशा में अपने कदम सोच-समझ कर ही उठाएं। शादी हो चुकी है तो जीवन साथी के साथ बातचीत में थोड़ी सावधानी बरतें। कई बार छोटी-छोटी बातें और गलत प्रतिक्रिया बड़े विवाद की वजह बन जाते हैं। आकड़े बताते हैं कि तलाक की सबसे बड़ी वजह मियां-बीवी के बीच मतभेद बनते हैं। और हां, शादी के बाद शराब से दूर ही रहें तो अच्छा।
शादी के साइड इफेक्ट :
हर दवा की तरह शादी के भी साइड इफेक्ट हैं। कई बार अजीबो-गरीब ख्याल परेशान करते हैं। आपको भूलने की बीमारी होने का अंदेशा हो सकता है। तो कुछ एक बार आत्महत्या के विचार भी आ सकते हैं। हालांकि इसके पीछे आपकी अपनी गलतियां ही जिम्मेदार होती हैं।
कुछ गंभीर मुद्दे:
अचानक आप खुद को जिम्मेदार और बड़ा महसूस करने लगेंगे। सेक्स में रुचि घट सकती है या दूसरी महिलाओं के प्रति आकर्षण बढ़ सकता है। शादी होगी तो बच्चे होंगे ही जो वाकई बड़ी जिम्मेदारी होते हैं।
गलतियों को नजरअंदाज करें:
खुशहाल शादी के लिए चाहिए कि आप आपसी लगाव को बनाए रखें। जहां तक हो सके एक दूसरे की गलतियों को नजरअंदाज करें।
आखिर में:
शादी लंबे, स्वस्थ और खुशहाल जीवन की सबसे सुरक्षित और प्रभावशाली दवा है। लंबे समय का साथ, आत्मसंतुष्टि, प्यार और विश्वास इसके अन्य फायदे हैं। हालांकि यह दवा किसके लिए कितनी फायदेमंद साबित होती है यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है।

.. जहां गढे़ जाते हैं भविष्य

राजधानी दिल्ली..अरावली की पहाडी..हर तरफ हरियाली का नजारा और इन्हीं हरियाली के बीच एक ऐसा विश्वविद्यालय, जो न केवल भारत की शान है, बल्कि जहां गढे जाते हैं सुनहरे भविष्य के ताने-बाने भी। जी हां, हम बात कर रहे हैं, वर्ष 1969 में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम से स्थापित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की। वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान स्थापित कर चुके इस विश्वविद्यालय में एडमिशन को लेकर न केवल भारतीय, बल्कि विदेशी छात्रों में भी बेहद क्रेज रहता है। उल्लेखनीय है कि करीब साढे पांच हजार स्टूडेंट्स और लगभग 550 फैकल्टी के स्ट्रेंथ वाले इस विश्वविद्यालय में रिसर्च ओरिएंटेड पोस्टग्रेजुएट कोर्स को अधिक प्रमुखता दी गई है। यहां कई तरह के कोर्स संचालित किए जाते हैं। खास बात यह है कि इन कोर्सो की फीस काफी कम है। लेकिन हम यहां आपको बताने जा रहे हैं जेएनयू के पॉपुलर लैंग्वेज कोर्स के बारे में, जिसमें एडमिशन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। एडमिशन की प्रक्रिया से रूबरू होने से पहले हम जानते हैं, जेएनयू में उपलब्ध लैंग्वेज कोर्स और संभावनाओं के बारे में..
लैंग्वेज कोर्स
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लैंग्वेज, लिटरेचर ऐंड कल्चर स्टडीज के अंतर्गत प्रमुख लैंग्वेज कोर्स की पढाई के साथ-साथ रिसर्च की सुविधा भी मौजूद है। आइए, अब नजर डालते हैं, जेएनयू में उपलब्ध प्रमुख लैंग्वेज कोसरें पर..
बैचलर ऑफ आ‌र्ट्स कोर्स (आनर्स) : पर्सियन, अरेबिक, चाइनीज, जेपनीज, कोरियन, फ्रेंच, जर्मनी, रशियन और स्पेनिश।
मॉस्टर ऑफ आ‌र्ट्स कोर्स : इंग्लिश, लिंग्विस्टिक, उर्दू, हिन्दी,पर्सियन, अरेबिक, चाइनीज, जेपनीज, कोरियन, फ्रेंच, जर्मनी, रशियन और स्पेनिश।
पीएचडी/ एमफिल कोर्स : इंग्लिश, लिंग्विस्टिक, उर्दू, हिन्दी, पर्सियन, अरेबिक, चाइनीज, जेपनीज, कोरियन, फ्रेंच, जर्मनी, रशियन और हिन्दी ट्रांसलेशन। इसके अलावा, इटेलियन, मंगोलियन, पश्तो, पुर्तगाल और उर्दू भाषा में पार्ट-टाइम लैंग्वेज कोर्स भी उपलब्ध हैं।
नए सत्र की शुरुआत
जेएनयू में वर्ष 09-10 सत्र के लिए आवेदन प्रक्रिया की शुरुआत हो चुकी है और विभिन्न कोर्स के लिए आवेदन आमंत्रित किए गए हैं। वर्ष 09-10 सत्र में एडमिशन के लिए प्रवेश परीक्षा 15 से 18 मई, 2009 के बीच होगी। यहां संचालित होने वाले कोर्सो में एडमिशन के लिए आवेदन की अंतिम तारीख है-16 मार्च, 2009।
कैसे मिलेगी एंट्री
जेएनयू में एंट्री के लिए आपको एंट्रेंस एग्जामिनेशंस के दौर से गुजरना होगा। हालांकि कुछ कोर्सो में एडमिशन मौखिक परीक्षा के आधार पर भी होता है। खासकर लैंग्वेज कोर्स में एडमिशन लेने के लिए संबंधित भाषा पर आपकी अच्छी पकड होनी चाहिए। यदि आप बैचलर(आ‌र्ट्स) कोर्स में एंट्री चाहते हैं, तो 10+2 परीक्षा में कम से कम 45 प्रतिशत अंकों के साथ उत्तीर्ण होना जरूरी है। वहीं यदि आप एमए कोर्स में प्रवेश के इच्छुक हैं, तो ग्रेजुएशन में संबंधित विषय में न्यूनतम 45 प्रतिशत अंक होने चाहिए।
लैंग्वेज में स्कोप
आज पूरी दुनिया ग्लोबल विलेज में तब्दील हो चुकी है। इसलिए लैंग्वेज की जानकारी न केवल करियर के दृष्टिकोण से, बल्कि कम्युनिकेशन के लिहाज से भी बेहद जरूरी है। उदाहरण के तौर पर, यदि आप बॉन्जॉर (bonjour) सुनिए या कॉमेंट अलैजव्यूस (comment allezvous) कैसे हैं आप जैसे शब्दों से परिचित नहीं हैं, तो पेरिस या मेड्रिड जैसे शहरों में आपको लोगों से कम्युनिकेट करने में मुश्किल हो सकती है। इंडस्ट्री अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2010 तक ऑफशोर इंडस्ट्री में एक लाख 80 हजार फॉरेन लैंग्वेज एक्सपर्ट की जरूरत होगी। वैसे, यदि आप फॉरेन लैंग्वेज में एक्सपर्ट हैं, तो टूरिज्म, हॉस्पिटैलिटी, कॉल सेंटर, मिनिस्ट्री ऑफ एक्सटर्नल अफेयर्स आदि में नौकरियां मिल सकती हैं। आइए अब पडताल करते हैं किन लैंग्वेज एक्सपर्ट की है डिमांड इन दिनों :
जेपनीज : भारत और जापान के बीच व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध दिन ब दिन मजबूत हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में जेपनीज भाषा के जानकारों की डिमांड लगातार बढती ही जा रही है। खासकर इंटरप्रिटेटर की मांग अधिक है, जो बिजनेस ग्रुप या ऑफिशियल डेलिगेट्स के साथ मिल कर काम करते हैं। वैसे, इनके लिए टूरिज्म, एयरलाइंस और हॉस्पिटैलिटी में तो बेहतर संभावनाएं हैं ही, साथ ही, यूनिवर्सिटीज और प्राइवेट इंस्टीटयूट में भी जेपनीज टीचर की अच्छी-खासी मांग है।
जर्मन : इन दिनों कॉमर्शियल क्लास में जर्मन लैंग्वेज इंटरप्रिटेटर की अच्छी डिमांड है। साथ ही, बीपीओ इंडस्ट्री को भी जर्मन बोलने वाले प्रोफेशनल्स की दरकार है। टूरिज्म, एयर लाइंस और हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री में ऐसे लोगों की जरूरत है, जो जर्मनी भाषा के जानकार हों।
चाइनीज : चाइनीज दुनिया की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण भाषा है। साथ ही, चीन ग्लोबल इकोनॉमी और पॉलिटिक्स में भी खास स्थान रखता है। हाल के वर्षो में भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध भी मधुर हुए हैं। ऐसी स्थिति में चाइनीज भाषा के जानकारों के लिए असीम संभावनाएं देखी जा रही हैं।
स्पेनिश : स्टूडेंट्स के बीच स्पेनिश लैंग्वेज का काफी क्रेज है। बीपीओ इंडस्ट्री में भी स्पेनिश जानने वालों की डिमांड बनी रहती है। इन भाषाओं के अलावा, कोरियन, फ्रेंच, रशियन आदि भाषाओं के जानकारों की भी मार्केट में अच्छी-खासी डिमांड है। इन भाषाओं के जानकारों को अच्छी सैलॅरी पैकेज भी मिलता है।
जेएनयू के अंतर्गत आने वाले स्कूल
स्कूल ऑफ आ‌र्ट्स ऐंड एस्थेटिक्स
स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी
स्कूल ऑफ कम्प्यूटर ऐंड सिस्टम्स साइंसेज
स्कूल ऑफ एन्वायरनमेंटल साइंसेज
स्कूल ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी
स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज
स्कूल ऑफ लैंग्वेज, लिटरेचर और कल्चर स्टडीज
स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज
स्कूल ऑफ फिजिकल साइंसेज
स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज
स्पेशल सेंटर्स
सेंटर्स फॉर द स्टडी ऑफ लॉ ऐंड गवर्नेंस
सेंटर्स फॉर मॉलिकुलर मेडिसिन
सेंटर फॉर संस्कृत स्टडीज
सेंटर फॉर इंटरनेशनल ट्रेड ऐंड डेवलॅपमेंट
संक्षिप्त परिचय
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
स्थापना : वर्ष 1969
चांसलर : प्रो. यशपाल
वाइस चांसलर : बी.बी.भट्टाचार्या
लोकेशन : नई दिल्ली
एफिलिएटेड : यूजीसी
वेबसाइट : www.jnu.ac.in
पॉपुलर हैं पीएचडी कोर्स
जेएनयू के लैंग्वेज कोर्स की अपनी एक अलग पहचान है। यहां केवल देशी ही नहीं, बल्कि विदेशी स्टूडेंट्स भी पढाई के लिए आते हैं। यहां के लैंग्वेज कोर्स की क्या है वैल्यू? हमने बात की जेएनयू में स्कूल ऑफ लैंग्वेज, लिटरेचर ऐंड कल्चरल स्टडीज के डीन प्रो. शंकर बसु से। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश..
वर्तमान में भारतीय छात्रों के लिए लैंग्वेज कोर्स करना कितना फायदेमंद है?
वैश्वीकरण के कारण देश में मल्टीनेशनल कंपनियां बडेे पैमाने पर आई है, जिनमें ऐसे प्रोफेशनल्स की डिमांड बढी है, जो विदेशी भाषाओं का जानकार हों। इसके अलावा, नए-नए देशों से हमारे व्यापारिक रिश्ते भी फॉरेन लैग्वेंज को बढावा दिया है। यही वजह है कि सामान्य स्टूडेंट्स भी विदेशी भाषाओं के कोर्स के प्रति आकर्षित हुए हैं।
जेएनयू का लैंग्वेज कोर्स कितना पॉपुलर है?
यहां लैंग्वेज की पढाई वर्षो से चल रही है। वहीं अधिकतर यूनिवर्सिटीज ने हाल में ही लैंग्वेज प्रोग्राम की शुरुआत की है। हमारे यहां छात्रों को भाषा की गहन शिक्षा के अलावा, रिसर्च की बेहतर सुविधाएं भी मुहैया कराई जाती है। जेएनयू से पास-आउट होने के बाद करियर विकल्पों की कमी नहीं है।
किस लैंग्वेज कोर्स की पॉपुलरिटी इन दिनों अधिक है?
फॉरेन लैंग्वेज में इन दिनों जेपनीज, कोरियन, चाइनीज आदि कोर्स स्टूडेंट्स के बीच काफी लोकप्रिय हैं, क्योंकि इन कोर्सो में करियर की संभावनाएं इन दिनों अधिक हैं, जबकि विदेश से आने वाले ज्यादातर छात्र अंग्रेजी और लिंग्विस्टिक कोर्स को तवज्जो देते हैं। वैसे, पिछले चार-पांच वर्षों में रशियन लैंग्वेज में भी अच्छी डिमांड देखी जा रही है।
किस लैंग्वेज कोर्स में स्टूडेंट्स पीएचडी करना अधिक पसंद करते हैं?
इन दिनों अधिकतर छात्र फॉरेन लैंग्वेज की अपेक्षा अंग्रेजी, हिन्दी के अलावा, अन्य भारतीय भाषाओं में पीएचडी कोर्स करते हैं। इसकी वजह यह है कि फॉरेन लैंग्वेज कोर्स में ज्यादातर छात्र एमए करने के बाद जॉब करने लग जाते हैं।
विदेशी छात्रों के बीच जेएनयू की लोकप्रियता की वजह क्या है?
विदेशी छात्र भारत में आकर हायर एजुकेशन इसलिए भी लेना चाहते हैं, क्योंकि यहां कोर्स फीस, लिविंग कॉस्ट आदि अन्य देशों के अपेक्षा काफी कम है। साथ ही, रिसर्च के लिए जेएनयू देश-विदेश में विख्यात है।
फॉरेन लैंग्वेज में करियर बनाने के लिए किस स्तर तक की पढाई जरूरी है?
फॉरेन लैंग्वेज में करियर बनाने के लिए फुल-टाइम कोर्स करना बेहद जरूरी है। कम से कम एमए तक पढाई करना बेहद जरूरी है। इसके बाद ही स्टूडेंट्स लैंग्वेज में बेहतर करियर बना सकते हैं।

रविवार, 8 फ़रवरी 2009

भाषा के विवाद पर छत्तीसगढ़ियों को खलनायक बनाने की कोशिश

छत्तीसगढ क्षेत्रीयता और भाषा को लेकर राजनीति का शिकार हो रही है। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा की मान्यता मिलने के बाद अब छत्तीसढ़ियों को आंचलिक बोलियों के नाम पर बांटने की कोशिश हो रही है। छत्तीसगढ़ियों को भाषा के विवाद पर खलनायक बनाने की कोशिश की जा रही है, जो खतरनाक है। छत्तीसगढ़ियों और छत्तीसगढ़ी राजभाषा के साथ न्याय की जरूरत है और यह सिर्फ नजरिया बदलने से ही संभव है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है, क्योंकि छत्तीसगढ़ियों को भी अपना सम्मान प्यारा है।
हिन्दी और आंचलिक बोलियों के बीच अंतर संवाद विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के पहले दिन कुछ ऐसी ही आवाजें बुलंद हुई। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, छत्तीसगढी राजभाषा आयोग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित इस संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए रमेश नाथ मिश्र ने ने कहा कि दिल्ली सल्तनत का छत्तीसगढ़ में कभी शासन नहीं रहा। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ की बोलियां सुरक्षित है। यहां मिले शिलालेखों में छत्तीसगढ़ी की समृध्दता दिखाई देती है। इसके अलावा सन् 1920-30 के तरम्यान में निकली विकास एवं उत्थान पत्रिका में हिन्दी भाषा के साथ छत्तीसगढ़ी देखा जा सकता है। पंडित सुन्दरलाल शर्मा ने जेल से जब पत्रिका निकाली थी उसमें भी छत्तीसगढ़ी का स्थान था। इसके अलावा पंडित लोचनप्रसाद, खूबचन्द बघेल सहित दूसरे साहित्यकारों ने भी छत्तीसगढ़ी को आगे बढ़ाया। श्यामलाल चतुर्वेदी ने कहा कि जिस प्रकार हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समांजस्य बनाकर काम किया जा रहा है वह अनुकरणीय है। छत्तीसगढ़ी की समृध्दता को समझने के लिए पांडू लिपियों को सामने लाने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ी राजभाषा के आगे बढ़ने से हिन्दी को कोई नुकसान नहीं होगा। छत्तीसगढ़ी में आंचलिक बोलियों के शब्दों का समावेश किया गया है। इससे किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए । भाषा के विकास के लिए व्यक्तिवादी और राजनीतिक पूर्वाग्रहों को भूलकर काम करने की जरूरत है। बिहारीलाल साहू ने कहा कि किसी भी समाज में भाषा व भूमि को मां का दर्जा दिया जाता है। हिन्दी से छत्तीसगढ़ी राजभाषा का घुला हुआ संबंध है। हिन्दी अनेक भाषाओं का गुच्छा है। जिसमें छत्तीसगढ़ी भी शामिल है। वर्तमान में छत्तीसगढ़ी का स्वरूप भिन्न है। उन्होंने कहा कि इसका प्रमुख कारण क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल से जोड़कर देखा जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बस्तर और सरगुजा दोनों क्षेत्रों में कई बोलियां हैं। आंचलिक बोलियों के नाम पर छत्तीसगढ़ियों को बांटने की कोशिश न की जाये। भाषा व्यवहार से समृध्द होती जाती है। राजभाषा को किसी सियासी फरमान से मजबूत नहीं किया जा सकता। इसे स्वतंत्र तरीके से व्यवहार में लाना पड़ेगा। संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुए नंदकिशोर तिवारी ने कहा कि छत्तीसगढ़ी पत्रिकाओं को दोयम दर्जे में रखा जाता है और छत्तीसगढियों को आपस में लड़ाने की कोशिश की जाती है। दुभार्ग्य की बात है कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन में यह प्रस्ताव रखा गया कि किसी भी राजभाषा को संविधान के आठवें अनुसूची में शामिल न किया जाये। व्यास नारायण दुबे ने कहा कि छत्तीसगढ़ी राजभाषा में 22 आंचलिक बोलियों को शामिल किया गया है।भाषा और विचार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। श्री अशोक ने कहा कि भाषा की मौलिकता को मारने की कोशिश की जा रही है। सन् 2002 में राजनांदगांव में आयोजित साहित्य सम्मेलन में छत्तीसगढ़ी भाषा को आत्मा की संज्ञा दी गई थी। ऐसी भावुकता से बचने की जरूरत है। भाषा और बोली आत्मा नहीं होती बल्कि आत्मा तो संस्कृति होती है। उन्होंने भाषा की मानकीकरण पर जोर देते हुए कहा कि इसके बिना किसी भी भाषा का ढाचा नहीं बन सकता। भाषा और बोलियों के बीच छत्तीसगढ़ियों को आपस में लड़ाने से पहले सोच लेना चाहिए कि यहां के लोग कभी भी खलनायक नहीं बन सकते। छत्तीसगढ़ी राजभाषा मंच के उपसंयोजक जगेश्वर साहू ने कहा कि सरकार और प्रशासन में बैठे लोग भाषा के नाम पर लड़ाने की कोशिश कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में हिन्दी और गैरछत्तीसगढ़ी लोग शासन प्रशासन में बैठे हुए हैं। उन्हें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक समरसता और सभी कला संस्कृतियों को यहां सम्मान मिलता है। छत्तीसगढ़ के लोगों के साथ ही छत्तीसगढ़ी राजभाषा बोलने वालों के साथ न्याय की जरूरत है और इसके लिए नजरिया बदलना चाहिए । इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो स्थिति बिगड़ सकती है क्योंकि अब छत्तीसगढ़ के भोले-भाले समझे जाने वाले लोग भी अपने सम्मान के लिए जीने लगे हैं। छत्तीसगढ़ी बोली को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया लेकिन यह कामकाज का भाषा कैसे बने इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। सरकार के ठेकेदारों को चाहिए कि अब वे राष्ट्रीय भाषा और राज्य भाषा में छत्तीसगढ़ी को सम्मान दिलायें। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रीय नेता पूरे देश को एक नजर से देखें और क्षेत्रवाद की राजनीति न होने दें। भले ही कार्यक्षेत्र क्षेत्रीय हो लेकिन भावना हमेशा राष्ट्रीय होना चाहिए । जगेश्वर साहू ने कहा कि विधानसभा में छत्तीसगढ़ी राजभाषा का प्रयोग करने के लिए शपथ लेने जब विधायकों की बारी आई तो कुछ ही विधायक शपथ लिये। छत्तीसगढ़ के लोग हमेशा से दगाबाजी सहते आये हैं। अब बर्दास्त नहीं किया जायेगा।

.... तॊ भारतीय भाषाओं को भगवान भी नहीं बचा सकते

देश के वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने कहा है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा से मातृभाषा को दूर करने का प्रयास कर रही है, ऐसा हुआ तो भारतीय भाषाओं को भगवान भी नहीं बचा सकते। देश के बीस रायों में कक्षा एक से ही अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही है। वर्तमान में भारतीय भाषाओं पर नहीं बल्कि भारतीयता पर संकट दिखाई दे रहा है। हिन्दी मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। वह भी हिन्दी भाषा की हत्या कर रही है।
कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, छत्तीसगढी राजभाषा आयोग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के संयुक्त तत्वाधान में हिन्दी और आंचलिक बोलियों के बीच अंतर संवाद विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित करते हुए सीएनईबी चैनल के प्रमुख राहुल देव ने कहा कि समाज व देश की सम्प्रभुता के लिए एक भाषा की जरूरत होती है और उसी से खुद को देखना और समझना चाहिए। वर्तमान में भारतीय भाषाओं पर नहीं बल्कि भारतीयता पर संकट दिखाई दे रही है। भारत शब्द भी हिन्दी से धीरे-धीरे बाहर होता जा रहा है। भाषा को यंत्र या उपकरण माना जा रहा है,भाषा को माध्यम मानना भी किसी मूर्खता से कम नही है। भाषा को गंभीरता से लेने की जरूरत है। बदलती भाषा से मन बदलता है यही कारण है कि देश अपनी नजर से खुद को देखना भूल गया है। उन्होने कहा कि संकर भाषा जरूरी है, लेकिन भाषा को भ्रष्ट किया जाना घातक है। राहुल देव ने हिन्दी भाषा में अनावश्यक अंग्रेजी के प्रयोग पर चिंता जाहिर की और कहा कि वे अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं करते लेकिन जो स्थिति है ,वह हिन्दी के लिए नहीं बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए खतरनाक है।
वरिष्ठ पत्रकार राहुलदेव ने कहा कि सरकार देश को सन् 2050 तक महाशक्ति बनाना चाहती है और इसके लिए वह कक्षा एक से ही अंग्रेजी की शिक्षा अनिवार्य कर रही है। देश के 20 रायों में प्राथमिक शिक्षा के साथ ही अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू हो गई है । ऐसे में सन् 2050 तक हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि किसी भी भारतीय भाषा के अस्तित्व को बचाना आसान नहीं होगा। उन्होंने हिन्दी मीडिया पर भी खुलकर कटाक्ष किया और कहा कि हिन्दी मीडिया हिन्दी भाषा की हत्या कर रही है।
वरिष्ठ पत्रकार एवं नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव ने कहा कि पत्रकारों के सामने सम्प्रेषण की समस्या दिखाई दे रही है। पैंतीस सौ अंग्रेजी के शब्द हिन्दी में है। हालांकि वर्तमान में अंग्रेजी के शब्दों का अनावश्यक प्रयोग हो रहा है। अखबार अंग्रेजी के शब्दों को जबरन ठूंस रहे हैं। एक-दूसरे भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए लेकिन फैशन के कारण ऐसा होना गंभीर है।
राष्ट्रीय संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए लेखक एवं पत्रकार रमेश नैय्यर ने कहा कि भाषा में परिवर्तन आने से संस्कृति में भी उसका प्रभाव दिखाई देता है। देश में हिन्दी को विस्थापित करने का षड़यंत्र चल रहा है जो चिंता का विषय है। अंग्रेजी से कोई परहेज नहीं है लेकिन साम्रायवाद को समझने की जरूरत है। अगर हमें भारतीय अस्मिता का ख्याल है तो लोक भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को गलत नहीं मानना चाहिए। भाषाओं के द्वार खुले रखने की जरूरत है।साहित्यकार डॉ सुशील त्रिवेदी ने कहा कि हिन्दी ही नहीं बल्कि दूसरी भाषाओं पर भी उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के कारण संकट है। सामाजिक अवधारणा भी बदल गई है पहले जैसे रिश्ते थे अब वैसा नहीं, अब सिर्फ निकट का ही रिश्ता रह गया है। उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दी में मौलिक सोच को लाने में काफी देर हुआ। यह भी वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है।
दीनदयाल मानव अध्ययन शोध पीठ के अध्यक्ष रमाशंकर अगि्होत्री ने कहा कि साहित्य ने साहित्यकारों को पत्रकारिता से अलग कर दिया है। साहित्य वर्तमान में लक्ष्य की तलाश नहीं कर पा रहा है और ऐसे साहित्यकारों की फाौ बढ़ी है। साहित्य अपना परिचय भी भूल गया है और परिचय बताने वालों को साहित्यकारों ने भूला दिया है। साहित्य जगत में पत्रकारों को अभिष्ठान दिलाने की जरूरत है।
लेखक एवं साहित्यकार इंदिरा मिश्रा ने कहा कि हिन्दी अखबारों में हिग्ंलिस का प्रयोग हो रहा है। संपादकों को ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि अरबी और फारसी के सात हजार हिन्दी कोष में है। दूसरे भाषाओं के शब्दों को लेकर भाषा समृध्द होती है। हिन्दी से आंचलिकता प्रभावित हुई है और आंचलिकता ने हिन्दी को प्रभावित किया है।
हिन्दी लेखक निरंजन महावर ने कहा कि हिन्दी किताब पढ़ने और खरीदने वालों की संख्या कम हुई है। सम्प्रदायिक सोच ने हिन्दी को संर्कीण बना दिया है। हिन्दी अब लोचदार और मुहावरेदार भाषा नहीं रह गई है। आंचलिक बोलियों की तरफ झुकाव बढ़ा है। आंचलिक बोलियों के मुहावरों का प्रयोग हिन्दी में करने से कोई संकोच नहीं करते। यही सब कारण है कि हिन्दी की सम्प्रेषण शक्ति कम हुई है।
संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक गिरीश पंकज ने कहा कि भाषाओं के बीच शब्दों का आदान प्रदान हो ,लेकिन संस्कृति नष्ट न हो, इस पर चिंतन की जरूरत है। हिन्दी के प्रति यहीं नजरिया रहा तो भाषा हासिये में चली जायेगी। हिन्दी पत्रकारिता में भी हिन्दी को तबाह किया है जिसे आने वाले पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी । वैश्विक होने की ललक हमसे अपनी भाषा को छीन रही है और धीरे-धीरे उसका जड़ कटता जा रहा है।प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

कागजो में संरक्षण, पुरात्ताविक स्थलों और स्मारकों की सुरक्षा खतरे में


छत्तीसगढ़ के संरक्षित पुरात्ताविक स्थलों तथा स्मारकों की सुरक्षा के नाम पर सिर्फ खाना पूर्ति की जा रही है। चाहे वह कभी दक्षिण कौशल की राजधानी रहे सिरपुर की बात हो या फिर सरगुजा स्थित डीपाडीह की कल्चुरी काल की प्राचीन मूर्तियों की । सरकार द्वारा पुरात्ताविक स्थलों के विकास के साथ ही उन्हें पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना बनाई गई । 59 स्मारकों को संरक्षित किया गया । संरक्षित करने के बाद पुरातत्व विभाग सुरक्षा के लिए केयरटेकटरों तथा दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों की नियुक्ति की , लेकिन सुरक्षा भगवान भरोसे है। इन संरक्षित स्मारकों में जाकर इसे और अच्छे से जाना जा सकता है।
पुरात्ताविक स्थलों की सुरक्षा के लिए सरकार द्वारा अभी तक कोई सख्त कदम नहीं उठाया जा सका है। यह जरूर है जब सिरपुर, कान्केर,बिलासपुर,अम्बिकापुर , मल्हार से मूर्तियों की चोरी शुरू हुई और पता चला कि इसमें अंतर्रायीय गिरोह शामिल है तो पुलिस सक्रिय हुई । इन घटनाओं के बाद माना जा रह था कि सरकारी नुमाईदें गंभीर होंगे लेकिन ऐसी स्थिति दिखाई नहीं दी है। जब 59 स्मारकों की सुरक्षा का जिम्मा पुरातत्व विभाग ने लिया तब तक डेढ़ दर्जन मूर्तियों की चोरी हो चुकी थी । इनमें से कुछ मूर्तियां तो मिल गई लेकिन शेष मूर्तियों का कोई पता नही चला। सुरक्षा के लिए विभाग द्वारा हर साल 30 लाख रूपए खर्च करने की योजना बनाई गई है।सुरक्षा के लिए 22 केयरटेकरों तथा 68 दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों की नियुक्ति की गई है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि ये कर्मी सुरक्षा की दृष्टि से सफल नहीं दिखाई दे रहे हैं।
सिरपुर की बात करें तो यहां की सुरक्षा भगवान भरोसे है। यह जरूर है कि लक्ष्मण मंदिर से मूर्ति चोरी होने के बाद सर्तकता बरती जा रही है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि सिरपुर स्थित पुरात्ताविक स्मारक कई स्थानों में दूर-दूर पर है । इसके कारण सुरक्षा कर्मी भी मानते हैं कि दिन में तो किसी तरह वे संभाल लेते है लेकिन रात में पूरी सुरक्षा संभव नहीं होती । सूत्रों की माने तो मूर्तियों का चोर गिरोह अभी भी सक्रिय है और उसकी नजर सिरपुर में खुदाई से निकले प्राचीन बेस कीमती मूर्तियों पर है। चोर गिरोह की सक्रियता खुदाई में मिले बौध्द स्तुप के बाद और भी बढ़ गई है। आसपास के लोगों की बात माने तो यहां से कई मूर्तियां चोरी हुई हैं लेकिन वे सरकारी फाईलों में दर्ज नहीं हुए हैं। यहां रेस्टहाऊस के पास स्थित पुरात्ताविक स्मारक की सुरक्षा के नाम पर लगे लोहे के ग्रील को फांदकर कोई भी अंदर जा सकता है। इसकी सुरक्षा मध्यप्रदेश जमाने के पुरात्तत्व विभाग का एक बोर्ड कर रहा है। सिरपुर के पुरात्ताविक स्मारकों को सुरक्षित कर पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने 70 लाख रूपए की मंजूरी मिल चुकी है। इसके तहत पुरात्ताविक संग्राहल का निर्माण किया जायेगा। गौरतलब है कि सिरपुर में पहली खुदाई सन् 1953-54 में सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विद डॉक्टर एम.पी.दीक्षित के नेतृत्व में हुआ था वहीं अभी पिछले तीन वर्षो में 32 टीलों की खुदाई हुई है।बताना लाजिमी होगा की सुरक्षा का अभाव होने के कारण यहां की खुदाई के लिए पुरातत्वविद्वो द्वारा अनुमति नहीं दी जा रही थी । अब जब खुदाई चल रही है इसके बाद भी सुरक्षा पर कई प्रकार के सवाल उठने लगे हैं।
राज्य के उत्तर में स्थित सरगुजा जिले के डीपाडीह में कल्चुरी काल की सैकड़ों मूर्तियां बिखरी हुई पड़ी है। वहीं महेशपुर,देवगढ़ की मूर्तियों की सुरक्षा व संरक्षण भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। महेशपुर में शिव मंदिरों का भगन्नावेश भी असुरक्षित है । देवगढ़ की मूर्तियों को स्थानीय कलाकारों द्वारा विकृत किया जा रहा है। वहीं सरगुजा में ही स्थित जोगीमारा में मिले शैलचित्र लगातार नष्ट हो रहे हैं। रामगढ़ से कई मूर्तियां चोरी हो चुकी हैं। कईयों की रिपोर्ट भी पुलिस के पास नहीं है उसके बाद भी ना तो स्थानीय प्रशासन और न ही सरकार इस दिशा में गंभीरता से पहल कर रही है। सरगुजा प्रशासन ने डीपाडीह तथा दूसरे स्थलों से लाकर जिला मुख्यालय अंबिकापुर में दर्जनों मूर्तियों को कलाकेन्द्र में संरक्षित करने का प्रयास किया था लेकिन यहां से मूर्तियां गायब हो गई । यही नहीं अब तो कलाकेन्द्र का आस्तित्व ही खत्म हो गया है।
सिर्फ पर्यटन के विकास और कागजों में संरक्षण की बात करने से ही ऐतिहासिक धरोहरों को सुरक्षित रख पाना आसान नहीं दिखता। सरकार को पुरात्ताविक स्मारको तथा स्थलों की सुरक्षा के लिए गंभीरता से कदम उठाने की जरूरत है नहीं तो छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक गाथा को समेट कर रख पाना सहज नहीं होगा।
प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

औद्योगिक विकास बना अभिशाप, हवा और पानी में जहर

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर तथा आसपास के क्षेत्रों में प्रदूषण की समस्या लोगों की जान पर बन आई है। हवा और पानी लगातार प्रदूषित होती जा रही है। लोगों को कई प्रकार की बीमारियों का शिकार होना पड़ रहा है। सिलतरा सहित दूसरे औद्योगिक क्षेत्रो में रहने वाले लोगों की हालत प्रदूषण के कारण लगातार बदहाल होती जा रही है और सरकार कुंभकर्णी नींद में सो रही है। मध्यप्रदेश से विभाजित होकर छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद से यहां विकास के नाम पर उद्योगों की स्थापना तेजी के साथ हुई है। रायपुर के आसपास तेजी से स्पंज आयरन तथा दूसरी फैक्ट्रियां खुली, लेकिन प्रदूषण को लेकर कोई ध्यान नहीं दिया गया। अधिकारी तथा नेता सिर्फ बात ही करते रहे और हालत अब बिगड़ चुका है। रायपुर शहर की बात करें तो यहां सांस लेना भी खतरे से खाली दिखाई नहीं दे रहा है। लोग इससे बचने के लिए चेहरे पर स्कार्फ बांधने के लिए मजबूर है। पेयजल भी प्रदूषित हो चुका है, लोगों को कई बिमारियायॊ का शिकार होना पड़ रहा है। सांस के मरीजो की संख्या तो दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है। मौसम में भी प्रदूषण का प्रभाव दिखाई देने लगा है। वायु प्रदूषण तथा जल प्रदूषण घनकचरा प्रबंधन का अभाव शहरों में मल निकासी मार्ग नहीं होने से भू-जल प्रदूषण पर कोई चिंता नहीं की जा रही है। राज्यपाल ने छह माह पूर्व औद्योगिक क्षेत्र सिलतरा का दौरा किया था और प्रदूषण को लेकर चिंता जताई थी। अधिकारियों को इस ओर गंभीरता से ध्यान देने का निर्देश भी दिया गया, लेकिन सिर्फ खानापूर्ति ही हो पाई। उस समय उद्योगों में ईएसपी का उपयोग नहीं किये जाने की बात सामने आई थी इस पर भी राज्यपाल ने नाराजगी जताई थी। दुर्भाग्य की बात है कि इसके बाद भी कोई सुधार नहीं हुआ है। ईएसपी के उपयोग से बिजली की खपत यादा होती है जिसके कारण उद्योग ईएसपी का उपयोग नहीं करते। सूत्रों की माने तो अभी भी उद्योगों द्वारा ईएसपी का उपयोग नहीं किया जा रहा है। पर्यावरण तथा उद्योग विभाग के अधिकारियों की माने तो उनके द्वारा उद्योगों को प्रदूषण पर गंभीर होकर ईएसपी का उपयोग करने निर्देश दिया गया है। सिलतरा औद्योगिक प्रक्षेत्र के सात-आठ गांव प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित है। प्रदूषण के कारण धान तथा दूसरी फसलें भी नहीं हो पा रही है। प्रदूषण इस तरह बढ़ गया है कि सुबह तक कार्बन की एक परत घरों में बन जाती है। वहीं दिनभर घर से बाहर रहने वाले लोग जब घर लौटते है तो चेहरे में भी कार्बन की परत दिखाई देती है। खेत मे लगे धान की बालियों में अंदर कार्बन भर जाता है। यह सब सरकार को भी मालूम है लेकिन सरकार भी अधिकारियों के सामने घुटने टेक चुकी है। वहीं अधिकारियों की माने तो वे सख्ती से कार्यवाही करते है तो नेता मंत्रियों का फोन घनघनाने लगता है। उन्हें धमकियां मिलनी शुरु हो जाती है। सिलतरा निवासी राजेश साहू का कहना है कि उनकी जिंदगी नरक बन गई है। प्रदूषण के कारण उनकी जिंदगी भी काले धुंए की तरह हो गई है। राजेश कहता है कि उसके आसपास के गांव के लोगों ने उद्योगों के लिए जमीन देकर बहुत बड़ी भूल की। वे चाहते है कि अब किसी भी गांव के लोग उद्योगों की स्थापना का पुरजोर विरोध करें नहीं तो उद्योग लग जाने के बाद वही हाल होगा जो सिलतरा प्रक्षेत्र में रहने वाले लोगों की है। राज्य में बिजली घरों की स्थापना के कारण प्रदूषण की समस्या और गंभीर हुई है। यह अलग बात है कि लोगों को भरपूर बिजली मिल पा रही है। कोरबा क्षेत्र में पावर प्लांट के कारण जल तथा वायु प्रदूषण दोनों ही गंभीर स्थिति में पहुंच गई है। केन्द्रीय प्रदूषण मंडल ने सन् 2006 में रिपोर्ट जारी किया था कि राय के रायगढ़ कोरबा और रायपुर में आर.एस.पी.एम. अर्थात वायु में मौजूद वो कण जो सांस के द्वारा शरीर के भीतर प्रवेश कर जाते हैं, इनका स्तर काफी बढ़ चुका है। प्रस्तुतकर्ता‍‍ दिलीप जायसवाल