शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

36गढ़ में सम्पूर्ण स्वच्छता 36 फीसदी पर अटका

छत्तीसगढ़ के बीस हजार गांवों में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत तीन सालों के भीतर पूरी तरीके से खुले शौच को बंद करने के लिए काम किया जा रहा है। वर्तमान में इस पर 36 फीसदी ही काम हो सका है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 48 फीसदी तक काम हो चुका है। सरगुजा को पूरी तरीके से इस कार्य कार्यक्रम के तहत सरकारी रिकार्डों में निर्मल बनाया जा चुका है।
भारत सरकार ने ग्रामीण स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए सन् 1986 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम की शुरूआत की और यह कार्यक्रम अपने उद्देश्यों में पूरी तरह से सफल नहीं हो सका। इस कार्यक्रम के तहत शौचालय निर्माण को प्राथमिकता दिया गया और अनुदान पर ज्यादा भरोसा किया गया, साथ ही स्कूलों की स्वच्छता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। इस पर सन् 1996-97 पर जब भारतीय जनसंचार संस्थान द्वारा सर्वे किया गया तो यह बात छन कर सामने आई कि 55 प्रतिशत लोगों ने स्वप्रेरणा से शौचालय बनवाये, जबकि दो प्रतिशत लोगों ने ही अनुदान के तहत अपने घरों में शौचालय बनवाया, वहीं इतने फीसदी लोगों ने सुविधा व गोपनीयता के आधार पर शौचालय बनवाया। इस कार्यक्रम की बदहाली को देखते हुए सरकार ने सन् 1999 में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान की शुरूआत की और यह लक्ष्य रखा गया है कि सन् 2012 तक सभी घरों में शौचालय बनवा लिया जायेगा। साथ ही लोगों को इसके उपयोग के प्रति भी जागरूक कर लिया जायेगा।
छत्तीसगढ़ में इस कार्यक्रम की स्थिति पर नजर डालें तो गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले 42.55 प्रतिशत लोगों ने ही शौचालय बनवाया है, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर इसका प्रतिशत 55.14 है। एपीएल परिवारों की बात करें तो राष्ट्रीय स्तर पर 43.2 प्रतिशत परिवारों में शौचालय है, जबकि राज्य में इसकी स्थिति 31.82 प्रतिशत है। स्कूल में बने शौचालयों में राज्य आगे है। राष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों में बने शौचालयों का प्रतिशत 75.29 है, वहीं छत्तीसगढ़ में 90.47 प्रतिशत है। आंगनबाड़ियों में राष्ट्रीय स्तर पर बनें शौचालयों का प्रतिशत 64.3 है, राज्य में यह प्रतिशत 73.8 है।
सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत ग्राम पंचायत प्रतिनिधियों को भी अपने घरों में शौचालय बनवाने की अनिवार्यता है, लेकिन अभी भी कई पंचायत प्रतिनिधियों ने इसका पालन नहीं किया है। हालांकि कई जिलों में ऐसे पंचायत पदाधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही भी हुई है।
आंगनबाड़ियों तथा स्कूलों में दिसम्बर 2009 तक पूरी तरह शौचालय निर्माण के साथ उसके उपयोग का लक्ष्य रखा गया है। शासकीय स्कूलों को बीस-बीस हजार रूपये लड़के तथा लड़कियों के लिए शौचालय बनाने राशि आंबटित की जाती है। इसमें 14 हजार केंद्र सरकार तथा छह हजार रूपये राज्य सरकार 12वें वित्त आयोग से प्रदान करती हैं। आंगनबाड़ियों में बाल मित्र शौचालय के लिए पांच हजार रूपये खर्च किया जाता है, जिसमें राज्य सरकार डेढ़ हजार रूपये देती है और शेष 3500 रूपये केंद्र सरकार का होता है। सामुदायिक शौचालय निर्माण के लिए दो लाख रूपये का प्रावधान है, जिसमें 60 प्रतिशत केंद्र सरकार तथा 30 प्रतिशत राज्य सरकार व 10 फीसदी समुदाय का हिस्सेदारी होती है।
प्रतिवर्ष विश्व भर में जल जनित रोगों से 34 लाख लोगों की मौत हो जाती है। वहीं 25 लाख लोग डायरिया से मर जाते है और भारत में हर साल छह लाख लोगों की मौत हो रही है। इसके लिए खुले में शौच बड़ी समस्या हैं। भारत में 65 प्रतिशत लोग आज भी खुले में शौच कर रहे हैं। हर रोज दो लाख मीट्रिक टन मानव मल खुले में होता है, जो डायरिया, पीलिया, टायफाईड, पोलियो, मलेरिया सहित दूसरी बीमारियों का जड़ बनता है।
छत्तीसगढ़ में कुल 402 पंचायत को निर्मल ग्राम पंचायत का पुरस्कार मिल चुका है। सबसे पहले सन् 2005-06 में राजनांदगांव के 12 पंचायतों को और 2006-07 में राजनांदगांव के 16, रायपुर के 10, बिलासपुर के 22 तथा कोरबा के 15 व बस्तर के 27 पंचायतों को यह पुरस्कार मिला, जबकि सन् 2007-08 में सरगुजा के 112, राजनांदगांव के 12, रायपुर के 2, बिलासपुर के 36, कोरबा के 46, धमतरी के 17, महासमंुद के 7, कोरिया के 5, जशपुर के 2, दुर्ग के 1, कांकेर के 7, दंतेवाड़ा के 1 एवं रायगढ़ के 6 तथा बस्तर के 44 पंचायतों को निर्मल ग्राम पंचायत के पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके तहत प्रोत्साहन राशि के अलावा प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति चिन्ह भेंट किया जाता है। यह पुरस्कार 50 हजार से 50 लाख तक है, जो पंचायत, ब्लाक और जिला पंचायत की जनसंख्या पर निर्भर करता है।
लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के संचार एवं क्षमता विकास इकाई संचालक यासमिन सिंह ने बताया कि शौचालय तो बन जा रहे हैं, लेकिन जागरूकता एक बहुत बड़ी चुनौती है। लोगों का व्यवहार परिवर्तन के लिए विभागीय स्तर पर होने वाला काम ही पर्याप्त नहीं है।
संचार एवं क्षमता विकास इकाई के वकील अहमद ने बताया कि सरगुजा जिला पूरी तरीके से इस अभियान के तहत स्वच्छ हो गया है। एक सवाल पर उन्होंने कहा कि शौचालयों की देख-रेख की जिम्मेदारी परिवारों की बनती है, वहीं स्कूलों तथा दूसरे स्थानों पर बने शौचालयों की देख-रेख कार्यक्रम के तहत चुनौती है। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 27 अगस्त 2009

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है। एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे। सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काॅंग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है।

प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

बुधवार, 26 अगस्त 2009

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है। एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे। सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काॅंग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है। प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है। एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे। सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काॅंग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है। प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

सिद्धांत और विचारधारा जब जहर बन जाये...।

भारतीय जनता पार्टी अपनी संकीर्ण विचारधाराओं के कारण टूटती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री के पद को लेकर लोकसभा चुनाव के पूर्व दिखे मतभेद के बाद भाजपा में स्थिति अब काफी खतरनाक हो गई है। जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद खुद को पार्टी का खेवनहार समझने वालों की मंसा भी साफ तौर पर दिखाई दी है। सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने के बाद पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेताओं की सोच भी सकारात्मक दिखी है। आडवानी के राजनैतिक सलाहकार सुधीन्द्र कुलकर्णी के पार्टी छोड़ने और फिर पत्रकार से राजनेता बने अरुण शौरी भी इससे काफी खफा हैं। शौरी ने तो पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ वो सब बातें कह डाली जो शायद अब तक पार्टी के किसी दूसरे नेता ने नहीं कही थी। हालांकि जसवंत सिंह को पार्टी से निकालने के बाद बनी स्थिति पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेयी की चिंता और बिगड़ रहे हालात पर संघ भी गंभीर हुआ है। संघ की यह गंभीरता ऐसे समय पर दिख रही है जब घर में आग लग चुकी है।
एक बात तो साफ है कि संघ जिस तरह भाजपा पर सिद्धांत और आदर्शवाद थोपने की कोशिश करता है, वह किसी भी मायने में वर्तमान भारतीय समाज के परिपे्रक्ष्य में सही नहीं है। इससे न तो पार्टी का और न ही देश का हित हो सकता है। इतना तो हमेशा याद रखना चाहिए कि कोई भी सिद्धांत हमेशा सर्वाग्राही होना चाहिए। जब संघ के आज्ञा पर पार्टी ने राम के नाम पर राजनीति करनी शुरू की तो उसका क्या हाल हुआ। वहीं राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान जनता के जनादेश के पूर्व कमजोर प्रधानमंत्री की संज्ञा दे दी। सवाल उठता है कि पार्टी में जिस तरह से अस्थिरता का माहौल बना हुआ है वह अटल विहारी बाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल में नहीं थी। उस समय भी आज पार्टी की नजरों में किरकिरी बन चुके नेता मौजूद थे।
सिद्धांतो में शायद उस समय ऐसी लालच नहीं थी, लेकिन अब लालच के साथ कट्टरता भरी सोच पार्टी को ले डूब रही है। वहीं काग्रेस इससे खुद को सुरक्षित और सुकून भरे माहौल में देख सकती है। यहां पार्टी और राष्ट्रवादी सोच की बात के साथ सोचने की जरूरत है कि ऐसी विचारधारा के साथ काम किया जाए जिससे देश हित सर्वोपरी हो। यह इसलिए भी क्योंकि लंबे समय तक जब किसी विचारधारा को रखा जाता है तो वह जहर बन जाता है और यह विचारधारा पार्टी और देश दोनों के लिए खतरनाक हो गई है।

दिलीप जायसवाल

सोमवार, 24 अगस्त 2009

भूख ने दरवाजा खटखटाया

आज सुबह किसी ने दरवाजा खटखटाया, मेरी नींद खुल गई। दरवाजा जैसे ही खोला कोई दूध या अखबार वाला नहीं था। एक महिला बच्ची को गोद में लेकर उसके खाने के लिए कुछ मांग रही थी। बच्ची भी रो रही थी, यह देखकर शुरू मे लगा कि वह ढकोसला कर रही है लेकिन जब रात का बचा हुआ भोजन खाने के लिए दिया तो बच्ची उसे खाने लगी और धीरें-धीरे उसने रोना भी बंद कर दिया। सानिया नामक यह महिला बताने लगी, बाबू- रात में न उसने कुछ खाया है और न मैने कुछ खायी है। मैनें किसी तरह भूख को बर्दास्त कर ली लेकिन कविता सुबह होते ही रोने लगी। ठेकेदार के यहां काम भी की है, महीने भर से ज्यादा हो गया है लेकिन उसने पैसे नहीं दिये हैंै। कविता कुछ खाने के बाद गोद से उतरने की कोशिश करने लगी, गोद से उतरते ही खेलने लगी। यह देख मुझे बडा अफसोश होने लगा कि जाने कितने लोग भूखे पेट ही सो जाते हैं और कितने लोग थाली में ही खाना छोड देते हैं। कितने घरों में सुबह बासी समझकर फेंक दिया जाता है, कितने लोग मोटापा घटाने कम खाते हैं। यह सोच ही रहा था कि सानिया मुझे खामोस देख बोल पडी। बाबू- हम यहीं पर स्कूल के पीछे वाली बस्ती में रहते हैं कभी जरूर आना। प्रस्तुत कत्र्ता- दिलीप जायसवाल

सोमवार, 17 अगस्त 2009


पसीना बहाने के बाद काश हर कोई इसी तरह दो वक्त की रोटी खाता।
पसीना बहाने के बाद काश हर कोई इसी तरह दो वक्त की रोटी खाता।

दस साल बाद मीडिया में ऐसे शीर्षक भी दिखेंगे...

देश ही नहीं बल्कि पूरी दूनिया में बहुत कम समय के भीतर अराजक स्थिति बन सकती है। ऐसे में अखबारों और टीवी चैनलों में काम करने वाले खबर नवीसों को इन शीर्षकों को जरुरत पड़ेगी।
१. पानी की तस्करी जोरों पर
२. पन्द्रह लीटर पानी की लूट
३. पानी चोरों से मुहल्ले वासी परेशान
४. पानी न देने पर पत्नी की हत्या, बच्चों के लिए रखी थी एक गिलास पानी
५. पानी का जखीरा मिला
६. पानी तस्करी के लिए खोजा नायाब तरीका, सायकल की डंडी के भीतर से डेढ़ लीटर पानी बरामद
७. सेंध मारकर पानी की चोरी
८. जूते में छुपाकर रखा था पानी
९. गांव वाले करते हैं क्षेत्र के एक मात्र तालाब का पहरा
१०. बेटी के साथ दहेज में दिया एक टैंकर पानी
११. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये अब मिलेगा पानी, राशन कार्ड पर लगेगी विशेष सील
१२. पुलिस ने दो युवक, एक वृद्ध और तीन युवतियों को नहाते पकड़ा, छुपकर नहाते पाये गये आरोपी
१३. पत्रकारों को पानी का कोटा, पीने के लिए दो लीटर प्रतिदिन, नहाने के लिए दस लीटर प्रति माह, टायलेट में पेपर का प्रयोग।
प्रस्तुत कर्ता दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

सच बोलने की सजा अनुशासनहीनता

आजादी के बाद हमें मौलिक अधिकार मिले हैं लेकिन हमेशा से ही नौकरशाह वर्ग द्वारा इसे कुचलने की कोशिश की जाती रही है। इससे संघर्ष नहीं करने पर यह कहना कि हम आजाद भारत में है, गलत लगता है। इस पर चार माह पूर्व की एक घटना याद आ रहा है। हमारे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में एडिटिंग का साफ्रटवेयर नहीं था और उसके वजह से पढ़ाई तथा प्रेक्टिकल नहीं हो पा रहा था। हमारे सीनियर तो बिना एडिटिंग सीखे ही इस विश्वविद्यालय से निकल गये, लेकिन उस दिन जब विश्वविद्यालय में राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन का पहली बार आगमन हुआ था और मीडिया के लोग भी उसकी रिपोटिंग के लिए पहुंचे थे, इसी दरम्यिान जब मैंने एक टीव्ही चैनल से एडिटिंग साफ्रटवेयर नहीं होने के कारण प्रेक्टिकल में आने वाली दिक्कतों के बारे में बताया तो उसी समय से विश्वविद्यालय प्रशासन तथा प्रोफेसरों की आंखों की किरकिरी बन गया। दूसरे दिन से विभागाध्यक्ष ने मुझे अप्रत्यक्ष रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और दंडित करने की मंशा दिखाई। ऐसा भी नहीं था कि मैं सीधे मीडिया से एडिटिंग साफ्रटवेयर नहीं होने की शिकायत की थी बल्कि इससे पहले भी कई बार हमारे सीनियर इस अव्यवस्था से विश्वविद्यालय प्रशासन को अवगत करा चुके थे। मीडिया में सच बोलने की सजा जो मिली वह भी अनुशासनहीनता। अनुशासनहीनता के नाम पर प्रेक्टिकल के 25 अंकों में से सभी पांचों विषय से सात-सात अंक काट दिये गये, जबकि थ्योरी पेपरों में मिले अंकों के अनुसार कक्षा में मेरा दूसरा स्थान था। सच बोलने और अभिव्यक्ति को अगर इस तरह पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुचलने की कोशिश हो तो इसे क्या कहा जाये ? दुर्भाग्य की बात तो यह है कि अभी भी व्यवस्था नहीं सुधरी है और इस पर सकारात्मक सोच रखने की नसीहत दी जाती है। ऐसी स्थिति में सकारात्मक सोच रखने का भी एक निश्चित होता है। यह सब बताने और लिखने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि क्या इसी को अनुशासनहीनता कहते है। अभिव्यक्ति और स्वतंत्र भारत में अपनी बात रखने पर क्या यही अधिकार मिला है कि उसे नौकरशाह जब चाहे, जैसे चाहे कुचल दे और जिस भी रूप में चाहे उसकी सजा दे। देश में कितने लोगों को उनके अधिकार मिल रहे हैं, यह भी सोचने की जरूरत है। अब हालत तो ऐसी बन गई है कि जीने का अधिकार भी कुचलता हुआ दिखाई दे रहा है। मौलिक अधिकारों की बात करने पर पुलिस की लाठियां बरस जाती है। कभी किसानों पर तो कभी मजदूरों और छात्रों पर वहीं हमारा लोकतंत्र और नेता लगातार लालफीताशाही वर्ग को बढ़ावा दे रहें है। इसका एक कारण यह भी है कि वे इसी से खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत में अधिकार और न्याय अब भी कठिन है। यह सरल होने के बजाय व्यवहारिक दृष्टि से और भी जटिल होता जा रहा है। हालत देखकर यही लगता है कि सन 1947 के बाद देश की टोपी भर बदली है, सब कुछ वही है। आज पूरा लोकतंत्र नौकरशाही के तंत्र से इस कदर जकड़ा हुआ है कि सांस लेने में भी उसका दम घूट रहा है। ऐसे में पत्रकारिता विश्वविद्यालय भला कैसे सुरक्षित रह सकता है। यहां मेरे साथ जो कुछ भी हुआ वह मुझे ज्यादा चिंतित इसलिए करता है क्योकि यहां लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के लिए खंूटे तैयार हो रहे हैं और जब वे मीडिया के संक्रमण काल में यहां के नौकरशाही तंत्र से घाव खाकर जायेंगे तो भला किस तरह से व्यवस्था के प्रति समाज में सकारात्मक सोच के साथ काम करेंगे। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

उन्हें तो पत्रकारिता की डिग्री चाहिए

पत्रकारिता की, डिग्री और पत्रकार होने का रौब हर रोज दिखाई देता है। आज विष्वविद्यालय में दाखिला लेने एक युवती पहुंची। वह षैक्षणिक षुल्क जमा करने के लिए कागजी कार्यवाही कर रही थी, लेकिन आफिस का समय खत्म हो गया था, इस पर बाबू ने दूसरे दिन आने को कहा। यह सुन कर युवती फट परी और कहने लगी वह कुलपति का साक्षात्कार ले चुकी है, वह क्या उनसे जाकर मिले? इस पर बाबू खामोष रहा। उसने फिर कहा उसके पास टाईम नहीं है, वह तीन साल से मीडिया में काम कर रही है, वह फीस जमा करने कल नहीं आ पायेगी। उसे तो सिर्फ डिग्री चाहिए। जी हां, यह एक अकेली यवुती नहीं जिसकी जुबान से इस तरह सुनने को मिलते हैं। बल्कि की विष्वविद्यालय में कई ऐसे छात्र है जो सिर्फ यही कहते हैं कि उन्हें डिग्री लेनी है। ऐसा वे भी कहते हैं जिनका मीडिया से कोई संबंध नहीं है और न ही कोई लक्ष्य है। यह सब बताने का उद्देष्य सिर्फ इतना है कि पत्रकारिता के लिए डिग्री बहुत कुछ नहीं होता, पर छात्रों में ऐसा अहंकार किसी बड़ी भुल से कम नहीं है क्योकि इंसान जिंदगी भर सिखता रहता है और ऐसा नहीं है कि मीडिया में काम करने के बाद उसे पत्रकारिता का पूरा ज्ञान हो जाता हो। षिक्षकों से कुछ न कुछ सिखने को जरूर मिलता है। इस तरह षिक्षा के महत्व को सिर्फ डिग्रियों तक सीमित मानने वालों को सोचने की जरूरत है कि मीडिया पर बाजारवाद के अलावा कई गंभीर आरोप क्यों लगते हैं। इस पर मंथन करते हुए पत्रकारिता की षिक्षा को समझने की जरूरत है। यह बात अलग है कि मीडिया षिक्षा की गुणवत्ता पर भी कई सवाल लगते हैं। इन सवालों और मीडिया षिक्षा की अव्यवस्था के बीच मिल रही षिक्षा भी डिग्री भर तक सोचने वालों को एक नया रास्ता दिखा कर षिक्षित मीडियाकर्मी अर्थात समाज में कार्य करते हुए सफल मीडियाकर्मी की भूमिका के लिए तैयार कर रहा है। उन्हें इस बात को मन से निकाल देनी चाहिए कि मीडिया की डिग्री लेनी है, काम तो उन्हें आता ही है। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

जब वो राखी बेच रहा था...

राजीव ने पत्रकारिता के क्षेत्र में षानदार कैरियर का सपना देखा था लेकिन रक्षाबंधन की पूर्व संध्या पर वह अपने विष्वविद्यालय के पास ही फुटपाथ पर राखी बेच रहा था। वह विष्वविद्यालय से डिग्री लेकर निकल चुका है और कहीं नौकरी नहीं मिलने पर अपनी नियति को समझाने की कोषिष कर रहा था, हालांकि जब उसने मुझे उस दिन देखा तो असहज महसूस करने लगा। वह इसलिए भी क्योंकि मैं कालेज में उसका जूनियर रह चुका था। दुकान के बारे में पूछने पर कहने लगा, दुकान उसकी नहीं है, परिचित के अंकल की दुकान होने पर टाईमपास के लिए आ गया है, लेकिन बेचने और पैसा लेने का काम भी खुद कर रहा था। मुझे यह सब देखकर बढ़ा अफषोस हुआ, वह इसलिए ज्यादा क्योकि वह और उसके साथी सभी पत्रकारिता के क्षेत्र में नाम कमाना चाहते थे, लेकिन वे विष्वविद्यालय से सिर्फ डिग्री लेकर ही निकल सके। पत्रकारिता का व्यवहारिक ज्ञान और धरातल में काम करने वाले पत्रकारों जैसा कुछ भी नहीं सीख सके। षायद यही कारण की उन्हें कोई काम नहीं मिला, जबकि डिग्री मिले दो महीने हो गये थे। राजीव को ऐसा देखकर यह भी सोचने को मजबूर हो गया कि परिवार के सदस्यों ने कितनी उम्मीद के साथ उसे दूसरे राज्य में पढ़ने के लिए भेजा होगा कि बेटा पढ़कर पत्रकार बनेगा और नाम करेगा, पर जो नजर आ रहा था उसमें सब धरा का धरा हुआ दिखाई दे रहा था। राजीव ही नहीं बल्कि और भी कई सीनियर नौकरी के लिए डिग्री लेने के बाद खाक छान रहे हैं, लेकिन इंटरषीप के बाद उन्हें कहीं नौकरी नहीं मिली और कईयों को तो इंटरषीप में भी जाने का मौका नहीं मिला। यह सब बता कर किसी का मजाक उड़ाना नहीं चाहता या किसी संस्था को बदनाम नहीं करना चाहता, लेकिन सच्चाई देखकर अपने कलम को नहीं रोक सका। यह सब बताने का इतना ही मकषद है कि पत्रकारिता की डिग्री भर से पत्रकारिता की दुनिया नहीं चल जाता। इसके लिए काम तो आना ही चाहिए, वह भी ऐसी की कंपनी खुष हो जाये, साथ ही मीडिया के इस सेक्टर में जान और पहचान भी जरूरी है, जिसे आप पहुंच कह सकते हैं।
प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

सोमवार, 10 अगस्त 2009

अफसरशाही की फांसी और मंजू की खुदकुशी

सरकारी तंत्र की जटिलता और नौकरशाहों का रवैया जान पर बन आया है। सरकारों का अफसरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है, आम आदमी त्राहि-त्राहि है। बस्तर के केशकाल में मंजू यादव नामक छात्रा ने इसलिए फांसी लगाकर जान दे दी क्योंकि वह छह माह से जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिए तहसील कार्यालय का चक्कर काट रही थी। इसी तरह अम्बिकापुर में जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पाने के कारण एक युवती की लगी लगाई नौकरी छिन गई। प्रमाण पत्र जारी करने वाले इन सरकारी नुमांईदों का जेब गर्म करने पर 24 घंटे में भी प्रमाण पत्र बन जाते हैं, भले ही फर्जी ही क्यों न हो। ऐसे कई मामले जांच में सामने आ चुके है। इससे कईयों की नौकरी भी गई है जो फर्जी प्रमाण पत्रों के सहारे नौकरी कर रहे थे और कई आज भी सरकारी पदों पर विराजमान है, ऐसी स्थिति बनने के लिए कौन जिम्मेदार है ? इस व्यवस्था को दूरस्थ करने के लिए पहल क्यों नहीं होनी चाहिए। मंत्रियों द्वारा व्यवस्था सुधारने और आम लोगों को परेशानी न हो इसी उद्देश्य से हर महीने समीक्षा बैठक होती रहती है, उसमें लाखों खर्च होते हैं, लेकिन शायद बैठकों के बाद एयरकडिशनर से निकलते ही अफसर और सीख देने वाले सब भूल जाते है। राज्य में जाति प्रमाण पत्रों के सत्यापन के लिए युवाओं की लम्बी कतारें धूप और बारिश हर मौसम में देखी जा सकती है। आखिर सरकारी व्यवस्था में इतनी जटिलता क्यों ? सिर्फ इसलिए की जांच सही तरीके से हो सके। लेकिन उसके बाद भी झूठ पकड़ाता है तो किसके खिलाफ कार्यवाही होती है ? कार्यवाही भी कितने सालों बाद हो पाती है या फिर जांच की फाईल धूल खाती रह जाती है, क्योंकि दोषी अफसर किसी मंत्री का रिश्तेदार या पैसे के बल पर पहुंच वाला होता है। बस्तर के बीहड़ में आत्महत्या करने वाली छात्रा और उसके प्राथमिक कारण सुर्खियों में भले ही न आ पाया हो, लेकिन मुख्यमंत्री डाॅ. रमन सिंह को इस ओर सोचने की जरूरत है कि बस्तर जैसे नक्सल प्रभावित इलाके में भी नौकरशाहों का रवैया जान लेने के लिए काफी है। ऐसे में नौकरशाहों के बिरादरी के प्रति बस्तर के आदिवासी किस सोच के साथ हमदर्दी दिखायें। बस्तर के केशकाल की मंजू यादव का परिवार काफी गरीब है और वह काॅलेज में दाखिला लेने के लिए प्रमाण पत्र बनवा रही थी ताकि उसे छात्रवृत्ति मिल सके, लेकिन अफसरों का रवैया उसे आत्महत्या के लिए सोचने का विवश कर गया। यह अलग बात है कि अभी पुलिस आत्महत्या के कारणों की जांच कर रही है और यह उम्मीद करना कि वह अफसरों के खिलाफ ईमानदारी से जांच करेगी। हालात देखकर बेईमानी लगती है। मंजू जैसी छात्रा घर से तहसील कार्यालय तक कई किमी तक हर 15 और 20 दिन में बस से, तो कभी दूसरे साधनों से जाती थी। उसे आने-जाने तक का पैसा पड़ोसियों से कर्ज में लेना पड़ता था और जब वह तंग आ गई तो घर नहीं लौटी। उसकी लाश फांसी में लटकती हुई मिली। मंजू जैसी जाने कितनी छात्राओं का आवेदन फाईलों में धूल खा रही है। अब दूसरी मंजू फांसी न लगाये सरकार की नींद खुल जानी चाहिए। -दिलीप जायसवाल

शनिवार, 8 अगस्त 2009

सूचना के अधिकार में सरकारी कतरन लाल फीताशाही की निशानी

भ्रष्टाचार और गोपनीयता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जहां भ्रष्टाचार होगी वहां गोपनीयता होगी और जहां पारदर्शिता होगी वहां भ्रष्टाचार की उर्वरा भूमि तैयार नहीं हो सकती। इसी को ध्यान में रखते हुए 15 जून 2005 को सूचना का अधिकार कानून बना और 120 दिन बाद यानि 12 अक्टूबर 2005 को यह लागू हो गया। इस कानून को भारत में भ्रष्टाचार रोकने प्रभावी कदम बताया गया। क्योंकि इसके तहत सरकार दस्तावेजों और प्रपत्रों को देखने तथा प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन चार साल में ही इस कानून से कई सरकारें खिन्न नजर आई। सबसे पहले कर्नाटक सरकार और अब छत्तीसगढ़ सरकार इस कानून से कितने दहशत में हैं, यह भी साफ हो गया है । गत 15 जून को छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य सूचना अधिकार आयोग की अनुसंशा से सूचना के अधिकार कानून में संशोधन किया है कि एक आवेदन ने एक ही विषय वस्तु पर जानकारी मांगी जा सकती है तथा डेढ़ सौ शब्दों से ज्यादा के आवेदन स्वीकार नहीं किये जायेंगे। नौकरशाहों द्वारा सूचना के अधिकार कानून को कतरा गया लेकिन विरोध के स्वर कहीं से नहीं दिखे जो प्रभावी रूप ले सके। समाज के प्रबुद्ध कहे जाने वाले वर्ग की भूमिका पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। सरकार का कानून में यह कतरन भ्रष्टाचार के कारण तो नहीं है। वैसे भी महालेखाकार की रिपोर्ट पर नजर डालें तो छत्तीसगढ़ भ्रष्टाचार के मामले में नम्बर वन है। सूचना के अधिकार के लिए काम करने वाले छत्तीसगढ़ नागरिक पहल के प्रतीक पांडे कहते हैं कि लालफीता शाही की मानसिकता सरकार के इस संशोधन में दिखाई दे रहा है। सबसे पहले कर्नाटक सरकार ने सूचना के अधिकार कानून को कतरा जिसका बुरा प्रभाव वहां बड़े पैमाने पर दिखाई दिया है और अब इसे छत्तीसगढ़ सरकार ने यहां लागू किया है। खास बात तो यह है कि इस संशोधन में जिस तरीके से कहा गया है कि एक आवेदन में एक ही विषय वस्तु की जानकारी दी जायेगी लेकिन विषय वस्तु को परिभाषित ही नहीं किया गया है। विषय-वस्तु आंतरिक स्वरूप को रेखांकित करता है वहीं विषय क्षेत्र बाहरी आवरण को दिखाता है। नौकरशाही में जिस तरीके से मौलिक अधिकारों में शामिल इस कानून के साथ खिलवाड़ किया है वह किसी भी सूरत में आम आदमी के हित में दिखाई नहीं दे रहा है। राज्य ही नहीं अब तो केन्द्र सरकार भी सूचना के अधिकार कानून में छेड़छाड़ करने की कोशिश कर रही है। जब कानून बना उस समय भी कईयों का विरोध झेलना पड़ा था। राज्य सरकार ने जिस तरीके से इस कानून के साथ खिलवाड़ किया है वह उसके दायरे में भी नहीं था और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि राज्य सूचना आयोग जिसके पास इस कानून के संरक्षण की जिम्मेदारी है उसने ही कानून को कतरने की इजाजत दे दी।यहंा बताना लाजमी होगा कि सरकार सूचना के अधिकार कानून का प्रचार प्रसार भी नहीं करना चाहती। यह बात अलग है कि इसके नाम पर करोड़ों रूपए खर्च हो चुके हैं। सूचना का अधिकार कानून ब्लेकमेलरों के लिए वरदान साबित हुई है। ऐसे में इस कानून का उद्देश्य सिर्फ कागजों तक ही सीमित दिखाई दे रहा है। हालंाकि इस कानून से मीडिया को काफी लाभ हुआ है और वह इसके माध्यम से सूचनाएं प्राप्त कर समय-समय पर कई सरकारी घोटालों और कालगुजारियों का पर्दाफाश किया है। जो इस कानून के बिना संभव ही नहीं था। देश में इस कानून के लागू होने के बाद भी लालफीताशाही की छाया दूर नहीं हो सकी। क्योंकि इसी के भीतर ही यह कानून संचालित है। यही कारण है कि आवेदन करने पर भी कोई भी सरकारी नुमाईंदा जानकारी नहीं चाहते। सैकड़ों आवेदन राज्य सूचना आयोग के पास पड़े हुए हैं और आयोग के निर्देशों के बाद भी अधिकारी जानकारी नहीं देना चाहते यानि आम आदमी सरकारी नुमाईंदों के रवैये के कारण आसानी से जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता । उसे इसके लिए भी सूचना आयोग के आगे लंबी लड़ाई लडऩी पड़ रही है। यहां उल्लेख करना जरूरी होगा कि संविधान अनुच्छेद 19(1)के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है। सरकार से कुछ भी पूछे यह कोई भी सूचना मांगा जा सकता है। किसी भी सराकरी निर्णय की प्रति ,दस्तावेजों का निरीक्षण, सरकारी कार्यो का निरीक्षण और सरकारी कार्यो के पदार्थो का नमूना लिया जा सकता है। खाश बात तो यह है कि सरकार द्वारा नियंत्रित वित्त पोषित या नियंत्रित इकाईयां भी इस कानून के दायरे में हैं लेकिन इसकी धज्जियां उड़ रही है। छोटी सी बात की हर सरकारी दफ्तर के बाहर सूचना के अधिकार संबंधी बोर्ड लगा होना चाहिए लेकिन आज भी कई दफ्तरों में बोर्ड का अता पता नहीं है। ऐसे में इन संस्थानों में 30 दिन के भीतर जानकारी देने और जीवन की स्वतंत्रता प्रभावित होती हो तो 48 घंटे के भीतर जानकारी देने की बात सपनों में भी दिखाई नहीं देती है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि पूरा सरकारी तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से इसके लिए अनुकूल माहौल बना चुका है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि इस कानून को सालों बाद दबाव में आकर संसद द्वारा पास किया गया। राज्य सरकार के अफसरों की सुने तो उनका कहना है कि एक ही आवेदन में ऐसी जानकारियां मांगी जा रही थी जिसे दे पाना व्यवहारिक दृष्टि से दे पाना संभव नहीं था। लोग कुछ भी जानकारी मांगते थे। लेकिन यहां यह भी साफ है कि लोग मौलिक अधिकारों में शामिल इस कानून के तहत सरकार से कुछ भी जानकारी मांग सकते हैं जो देश, समाज, राष्ट्र हित के विपरीत न हो और न ही इससे देश की सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ता हो। प्रस्तुतकर्ता - दिलीप जायसवाल

सोमवार, 3 अगस्त 2009

दस करोड़ पेड़ों की कटाई के बाद लगेगा पावर प्लांट

छत्तीसगढ़ में विनाश के नाम पर विकास की तैयारी की जा रही है। राज्य के उत्तर में स्थित सरगुजा तथा कोरबा में दस करोड़ पेड़ों की कटाई कर पांच कोयला खदानों तथा दो पावर प्लांट की स्थापना का काम शुरु हो गया है। इससे २९ हजार परिवार विस्थापित हो रहे हैं। वहीं हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि तबाह हो रही है। इफको द्वारा खोले जा रहे पावर प्लांट का ग्रामीणों द्वारा पुरजोर विरोध किया जा रहा है और यहां सिंगुर जैसे हालात बने तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। राज्य सरकार द्वारा सरगुजा के प्रेमनगर में इफको पावर प्लांट तथा सरगुजा एवं कोरबा के बीच अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट की स्थापना की जा रही है, इससे १०३ गांव बुरी तरत से प्रभावित हो रहे हैं। इन पावर प्लांटो को चलाने के लिए ५ कोयला खदान भी खोले जायेंगे। पहला कोयला खदान सरगुजा में तारा में होगा जिसे इफको द्वारा संचालित किया जायेगा। जबकि उदयपुर के परसा में गुजरात के अदानी एण्ड अदानी गु्रप, केते में राजस्थान सरकार द्वारा केदमा के पास नकिया में स्टरलाईट एवं कोरबा के मोगरा में पतुरिया खदान इलेक्ट्रीसिटी बोर्ड छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चलाया जायेगा। इसी तरह इफको पावर प्लांट प्रेमनगर में तथा अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट उदयपुर में लगाया जाना है। अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट के लिए साल भर पूर्व सरकार ने ए.एम.यू. किया है जिसके तहत १५ सौ हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है। वहीं सन् २००५ से इफको द्वारा पावर प्लांट शुरु किया गया है जिसके लिए ७५० हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित किये जाने का काम चल रहा है। खास बात यह है कि इफको पावर प्लांट तथा तारा कोल ब्लाक की स्थापना से १ करोड़ ५३ लाख १९ हजार से अधिक पेड़ कटेंगे। इतने पेड़ ३३०० हेक्टेयर जमीन में हैं। इस तरह एक बड़ा क्षेत्र का जंगल साफ तो होगा ही साथ ही १५० से अधिक जड़ी-बुटियों की प्रजातियां नष्ट होंगी वहीं कई वन्य जीवों का अस्तित्व भी खतरे में आ जायेगा। इसके अलावा प्रदूषण की जो समस्या होगी उसकी भयावहता को लेकर समझा जा सकता है। दोनों पावर प्लांटो की स्थापना को लेकर सरकार तथा निजी कंपनियां पूरी ताकत झोंक दी हंैं। क्योंकि ग्रामीणों तथा समाजसेवी संगठनों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है। एक एनजीओ के पदाधिकारी मेंहंदीलाल का कहना है कि प्रेमनगर क्षेत्र में खुलने जा रहे इफको पावर प्लांट की स्थाना से ५ गांव पूरी तरीके से उजड़ रहे हैं और इन ग्रामीणों के साथ मिलकर वे इसका विरोध कर रहे हैं। क्योंकि प्रशासन द्वारा नियम कानून को ताक पर रखकर ग्राम सभा का प्रस्ताव पास करवाया जा रहा है। विरोध को देखते हुए पुलिस बल की मौजूदगी में दबाव डालकर सरपंचो से हस्ताक्षर कराये जा रहे हैं। जबकि नियमत: ग्राम सभा में प्रस्ताव विस्थापन की प्रक्रिया पूरी होने के साल भर बाद होना चाहिए। पावर प्लांट की स्थापना से करोड़ों की संख्या में पेड़ों की कटाई तथा हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि के नष्ट होने से आक्रोशित ग्रामीणों ने दो वर्ष पूर्व सिर मुंडा कर विरोध प्रदर्शन किया था । वहीं महिलाओं ने रक्षासूत्र बांधकर पेड़ों की सुरक्षा की सौगंध ली थी। इसी से समझा जा सकता है कि ग्रामीण जल,जंगल और जमीन की सुरक्षा को लेकर कितना चिंतित हैं। इफको पावर प्लांट की स्थापना के लिए गांव पहुंचने वाले कर्मचारियों के साथ ग्रामीणों की झड़प हो रही है। इसी विरोध के परिणामस्वरूप २००९ तक बनकर तैयार होने वाला इफको का पावर प्लांट का ५० फीसदी काम भी पूरा नहीं हो पाया है। लोगों ने पेड़ों की कटाई को रोक कर रखा है। यहां बताना लाजमी होगा कि सरगुजा वनों से पूरी तरह से आच्छादित है जिससे यहां की हालत प्रदूषण की दृष्टि से काफी अच्छी है। वहीं दूसरी तरफ कोरबा की बात करें तो यहां लगे पावर प्लांटो के कारण प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि घरों के छतों पर कार्बन की परत जम गई है साथ ही कई सांस की बीमारियां फैल रही हैं। प्रेमनगर के स्थानीय पत्रकार आलोक कहते हैं कि विकास होना चाहिए लेकिन जिस तरीके से पूरा दृश्य उभरकर सामने आ रहा है वह काफी खतरनाक है। सरकार को अगर प्लांट की स्थापना करनी है तो उसे जंगल तथा कृषि भूमि को छोड़कर बंजर भूमि की ओर ध्यान देना चाहिए। उनका मानना है कि विस्थापन से नाम मात्र के लिए और वह भी कागजों में होता है। इफको प्लांट से प्रभावित हो रहे सलका गांव के प्रीतराम का कहना है कि सरकार उनकी जमीन ले रही है लेकिन वे खेती कहां करेंगे। प्रीतराम के चार लड़के है ऐसे में उन्होंने सोचा था कि सभी को एक-एक हेक्टेयर जमीन बांट देते और सभी खेती करते। प्रीत कहते है कि जमीन उनके दादा-परदादा के जमाने की है, जमीन ने उनकी कई पीढिय़ों को पाला है वे किसी भी सूरत में अपनी जमीन नहीं देने वाले। पैसा तो आता-जाता रहता है। वे अपनी जमीन के लिए जान भी देने को तैयार हैं। सरगुजा में एस.ई.सी.एल. भी है। इससे प्रभावित लोगों की हालत आज बदत्तर है उन्हें विस्थापन के तहत कई दशक बीत जाने के बाद भी न तो ठीक से पीने के लिए पानी मिल पा रहा है और न ही दूसरी बुनियादी सुविधाएं। पड़ोस की ऐसी हालत को देखकर भला लोगों को विस्थापन की चमक-दमक में कैसे यकिन होगा। यहां बताना लाजमी होगा कि छत्तीसगढ़ का शिमला कहे जाने वाले मैनपाट की हालत बालको के बॉक्साईड खदान के कारण बदहाल हो गई हैं। यहां भी अवैध तरीके से बॉक्साईड उत्खनन से हजारों की संख्या में पेड़ काटे जा चुके हैं। इससे यहां का प्राकृतिक सौंदर्य पर भी ग्रहण लग गया है और स्थानीय लोगों के विकास की बात तो दूर वे बदहाल की जिंदगी जीने को मजबूर हो गये हैं। इस तरह देखा जाये तो प्रदूषण की चपेट से दूर सरगुजा में विनाश के नाम पर जिस तरीके से विकास की तैयारी की जा रही है वह किसी खतरे से कम नहीं है। वहीं सरकार भी धरातल को देखे बीना पावर प्लांट तथा कोयला खदानों की स्थापना के लिए कवायद कर रही है। सरकारी कवायद के साथ ग्रामीणों तथा समाजसेवी संगठनों का विरोध भी चल रहा है। खास बात तो यह है कि यह सब होते हुए भी राज्य के कुछ बड़े पूंजीपति तथा उद्योग घरानों ने सरगुजा में जमीन भी खरीद लिया है ताकि यहां पावर प्लांट तथा कोयला खदानों की स्थापना हो तो उन्हें असानी से लाभ मिल सके । प्रस्तुत कर्ता दिलीप जायसवाल