शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

शिक्षक,छात्र और बजारू सम्मान

समाज में शिक्षकों का सम्मान आदिकाल से चला आ रहा है। अब यह सम्मान औपचारिकता भर रह गया है। बाजार वाद को भी इसके लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। इसने मानवीय संवेदनाओ तथा नैतिक मूल्यों पर प्रतिकुल प्रभाव डाला है। शिक्षा व्यवस्था भी बाजार के अधिपत्य में आ चुकी है। ऐसे में शिक्षक भी इसके प्रभाव से नहीं बच सके हैं। मोटी फीस अदा करने वाले छात्रों का भी शिक्षको के प्रति नजरिया बदला है। यही कारण है कि अब न तो शिक्षा की गुणवता पहले जैसे रह गई है और न ही शिक्षको के प्रति आत्म समपर्ण प्रतीत होने वाला सम्मान। वर्तमान की शिक्षा व्यवस्था सिर्फ नौकरी प्राप्त करने की सोच के साथ तैयार की जा रही है। जहां शिक्षको और छात्रों के बीच का रिश्ता बनावटी दिखाई देता है। वैश्विक परिवेश में इसके लिए शिक्षक और छात्र दोनो जिम्मेदार हैं। कभी किसी शिक्षक पर बलात्कार का आरोप लगता है तो कभी स्कूली परिधान के लिए नाप लेने के नाम पर छात्राओं के कपडे उतरवाए जाते हैंैं। वहीं कोई छात्र अपनी शिक्षिका को पे्रम पत्र देकर पे्रम का इजहार करता है। कभी कोई शिक्षक अपनी छात्रा को मोह जाल में फंास कर उससे शादी कर लेता है। यही नहीं कोई छात्र अपने शिक्षक की गोली मारकर हत्या कर देता है। ऐसी घटनांए कभी कभार ही सुनाई देती है।
एक सच यह भी है कि शिक्षको का एक वर्ग सिर्फ नौकरी मात्र करना चाहता है। उसे छात्र हित की फिक्र ही नहीं रहती। ऐसे मे शिक्षको और छात्रों के सम्मानजनक रिश्ता कैसे बने। इस संक्रमण से निकलने दोनो को व्यवहार में चितंन करने की जरूरत है। प्रस्तुत कर्ता दिलीप जायसवाल

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

पहली बार झूठ लिखा तो कलम हो गया निर्जीव

आज कल मुझे नींद नहीं आ रही है। संयोग से नींद भी आती है तो विश्वविद्यालय दिखाई देता है, लाईब्रेरी दिखाई देता है। जाने ऐसा क्यों हो रहा है, शायद यहां आने से पहले बहुत सारे सपने देखे थे, पर वो सच होते नहीं दिख रहे हैं। कुछ प्रोफेसर और दूसरे कर्मचारियों के अलावा कुछ ऐसे दोस्त हैं जो विश्वविद्यालय तक रोज खींच लाते हैं। नहीं तो जाने क्या होता, मुझे भी नहीं मालूम। आज पहली बार मैंने झूठ लिखा और उसके लिए हस्ताक्षर भी किया। जब हस्ताक्षर कर रहा था तो मेरी आत्मा मर रही थी, कलम तो निर्जीव हो गया था। मानो मुझे मन ही मन कह रहा हो, इतना बड़ा धोखा मेरे साथ क्यों कर रहे हो। लेकिन मैं मजबूर था, मजबूरी ने मुझसे कलम की कुछ पल के लिए कुरबानी दिला दी। यह सब कुछ मैं पत्रकारिता के एक प्रोफेसर के सामने उनके मार्गदर्शन में कर रहा था। मुझ पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने अनुशासनहीनता का आरोप लगाया था, वह इसलिए की मैंने विश्वविद्यालय में कुछ जरूरी सुविधायें नहीं होने पर पत्रकारों को बताया था और टीव्ही तथा अखबारों में दूसरे दिन वह सब कुछ छप गया था। इसके बाद से अनुशासनहीन छात्र का तमगा दिया जाने लगा। इससे खुद को असहज महसूस करने लगा। कुछ को छोड़कर कक्षा के सहपाठियों ने भी साथ नहीं दिया और मैंने इसकी शिकायत राज्यपाल से की। राजभवन से जब जांच का आदेश आया तो उस पर शिकायत वापस लेने का दबाव बनाने प्रयास किया जाने लगा। वहीं मैं निर्धारित तिथि तक शैक्षणिक शुल्क जमा नहीं कर पाया था। इस पर मेरे सामने एक ही विकल्प था कि मैं शिकायत वापस ले लूं। यही नहीं ऐसा करने पर फीस जमा हो जाने पर आश्वासन दिया गया और फीस जमा हो गया। यहां पर मैंने साफ तौर पर देखा कि यहां अफसरशाह किस तरह मौके का फायदा उठाते हैं।
इस विश्वविद्यालय में साल भर बीत चुके हैं। अपनी बेबाकीपन के कारण प्रोफेसरों के बीच अच्छी छवि नहीं बन पाई हैं क्योंकि मैं चापलूसी नहीं कर पाता। अभी एक दिन जूनियर छात्र कक्षा में बैठे थे, उन्हें मैंने तात्कालिन मुद्दों पर चर्चा के लिए कहा था। दूसरे दिन चर्चा के लिए सभी तैयार होकर आये और कुछ को नहीं मालूम था वे भी पहुंचें, लेकिन जब हम चर्चा कर रहे थे। कक्षा के बाहर से हर प्रोफेसर मुझे देख कर यही सोच रहा था कि मैं छात्रों को विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ भड़का रहा हूं। एक प्रोफेसर ने बीच में टोका भी, लेकिन जवाब के बाद वह चला गया। बाद में जब चर्चा खत्म हुई तो पूरे विश्वविद्यालय में प्रोफेसरों के बीच यह चर्चा शुरू हो गई कि वह यानी दिलीप रैगिंग ले रहा था। मुझे विभागाध्यक्ष ने इस पर अवगत भी कराया और साफ कहा कि जूनियरों से मिलने की जरूरत नहीं है, तुम खुद जानते हो कि तुम्हारी छवि विश्वविद्यालय में सही नहीं है। तुम यहां सिर्फ पढ़ने आओ और अपना काम पर ध्यान दो। यही नहीं एक दिन विश्वविद्यालय के ही टीव्ही कक्ष बंद होने पर उसे खोलने के लिए कहा तो एक प्रोफेसर ने वहां का चाबी नहीं होने की बात कही, लेकिन जब यह साफ हो गया कि चाबी उन्हें के पास है तो वे मुझसे उलझने लगे। उनके साथ एक और प्रोफेसर बैठे हुए थे, वे दादागिरी में उतर आये, हालांकि मैंने मुंह लड़ाना उचित नहीं समझा और वहां से चल दिया।
एक वो घटना भी याद आ रही है, जब कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की को परीक्षा में 15 मिनट विलम्ब से आने पर नहीं बैठने दिया गया तो हम सभी छात्र परीक्षा प्रभारी से मिलने गये। वे अनुशासन का पाठ पढ़ाने लगे, जबकि सच्चाई थी कि वह विश्वविद्यालय के खिलाफ एक मामले को लेकर महिला आयोग से शिकायत की थी। उस पर वे समय को भुना रहे थे।
इन सब बातों से मैंने यह भी सोचा कि काॅलेज, विश्वविद्यालय में किसी छात्र को प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने पर जबरन परेशान किया जाता है लेकिन हार भी नहीं माननी चाहिए। विश्वविद्यालयों में रैगिंग का जितना भय होता है उससे ज्यादा ऐसे छात्रों को स्वार्थ और राजनीति में लगे प्रोफेसरों द्वारा परेशान किया जाता है। विश्वविद्यालय का सफर अभी आधा ही हुआ है और आठ-नौ महीने ही मास्टर डिग्री पूरे होने में शेष है, पर जिन पैमानों के साथ मैं और मेरे मित्रों ने दाखिला लिया था, वह उनके चेहरे में धूमिल होता दिखाई दे रहा है। कारण यही है कि आज मीडिया सेक्टर में जिस प्रकार के लोगों की जरूरत है वैसा हम नहीं बन पाये या फिर इसके लिए हमें विश्वविद्यालय में माहौल नहीं मिला। अब तो मित्रों के चेहरे में उदासी देखकर खुद सोचने को मजबूर हो जाता हूं कि कल क्या होगा, लेकिन कहते है ना कि कल किसने देखा है। यही सोच कर हम सभी मन को बहलाने की कोशिश करते हैं। सच्चाई भी तो यही है कि अगर कल आयेगा, तो उसे हमें ही देखना होगा। हालांकि मुझे व्यक्तिगत रूप से इस बात पर संतोष मिलता है कि पांच सालों से लगातार विभिन्न अखबारों में काम करने के बाद भविष्य कुछ हद तक सुरक्षित दिखाई देता हूं और लगता है कि अगर यहां मुझे कुछ ज्यादा सिखने को नहीं मिला तो कुछ ज्यादा खोया भी नहीं। हां यह जरूर है कि समय की बर्बादी हुई। लेकिन यहां बहुत कुछ सिखने को भी मिला, चाहे वह जैसा भी रहा हो, अनुभव चाहे कैसा भी हो, अनुभव तो अनुभव ही होता है, जो जिंदगी की हर राह पर काम आता है। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल