सोमवार, 30 नवंबर 2009

सरकारों के लिए आम आदमी आज भी गाजर-मूली


चारों तरफ लाश ही लाश, अंतिम संस्कार के लिए श्मसान में भी जगह नहीं, हजारों लोग सोने के बाद कभी उठ भी नहीं पाये। यह खौफनाक मंजर भोपाल में आज से ठीक 25 साल पहले हुआ। लोगों को वह दिन आज भी जब याद आता है तो वे खामोष हो जाते हैं, आंखें डबडबा जाती है लेकिन इसके बाद भी हमारी सरकारों ने इस घटना के बाद भी कुछ नहीं सीखा। लगातार विदेशी कंपनियों को नेवता दिया जा रहा है। वे यहां कारखाने लगा रही हैं और आम आदमी की सुरक्षा से बेफिक्र होकर पैसे के लिए कुछ भी कर रहे है। कहीं इतना भयावह प्रदूषण है कि लोग भयावह बीमारियों की चपेट में आकर मर रहे हैं। तो कहीं मजदूर मारे जा रहे हैं और उनकी लाशें गायब हो जाती हैं।

दुनिया की औद्योगिक इतिहास में सबसे बड़ी घटना सन् 1984 के दो दिसम्बर की रात हुई। दिन था रविवार और कंपनी थी अमेरिका की यूनियन कार्बाइट। श्ाम के कोई आठ बजने वाले थे कि टैंक नम्बर 610 से मिथाईल आईसो साइनामाईट का रिसाव शुरू हुआ। रात बारह बजे के बाद इसका खौफनाक मंजर पता चला तो कंपनी के लोग सक्रिय हुए लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और मौत का हवा पूरे भोपाल में फैल चुकी थी। इस घटना में 22 हजार लोग मारे गये और पांच हजार से अधिक जिंदा लाश की तरह कई बीमारियों से पीड़ित हो गये। घटना के बाद जांच के लिए कमेटियां बैठी लेकिन नौकरशाही तंत्र और राजनैतिक स्वार्थ के कारण आज भी इस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका है। मुआवजा जिन्हें मिलना था, उन्हें न मिलकर ऐसे लोगों को मिला जिनकी पहुंच सरकारी दफ्रतरों तक थी।

भोपाल के इस गैस कांड के बाद यह उम्मीद थी कि सरकारों की नींद खुलेगी लेकिन आज भी सरकारों को कोई असर नहीं हुआ है। देश में लगातार मल्टीनेशनल कम्पनियों को उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है और भले ही अब ऐसी घटना नहीं हो रही है लेकिन जयपुर में पिछले दिनों पेट्रोल की टंकियों में लगी आग और इसके बाद बनी स्थिति ने एक बार फिर शाबित कर दिया कि अभी भी भोपाल गैस कांड जैसी स्थिति कभी भी बन सकती है।

छत्तीसगढ़ भी उद्योगों एवं कारखानों का दंश झेल रहा है। हजारों एकड़ जमीन में उद्योगों के कारण फसलें नहीं लहलहा पा रही हैं। लोग उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले धुआं और राखड़ के कारण गंभीर बीमारियों से पीड़ित हो रहे हैं। पीने तक के लिए पानी तक नहीं मिल रहा है। बात यहीं खत्म नहीं होती, आखिर कोरबा के बालको वेदांता की बिजली उत्पादन के लिए बनाये जा रहे चिमनी में 100 से अधिक मजदूरों के दब कर मरने की खबर को कैसे भुलाया जा सकता है। यह अलग बात है कि सरकारी रिकार्डों में 42 मजदूरों की ही लाशें निकाली गई, बाकि मजदूरों के लिए चिमनी ही कब्र बन गया। यहां भी जांच के लिए कमेटियां बनी है और घटना के बाद नेताओं ने घड़ियाली आंसु बहाये,लेकिन आज भी छत्तीसगढ़ के उद्योगों में सुरक्षा की स्थिति सही नहीं हो पाई है।

उद्योगों में आपदा प्रबंधन की व्यवस्था सुधारने की जब भी बात आती है, सरकारी दस्तावेजों में सब दुरूस्त रहता है। वहां काम करने वाले कर्मचारियों के प्रशिक्षित होने की बात कही जाती हैं। उन्हें नियमतः उतना वेतन भी दिया जाता है लेकिन कागजों से बाहर निकल कर देखें तो हालत कुछ और ही होती है। यूनियन कार्बाइट जहां कीटनाशक दवाईयां बनाई जाती थी और जब हादसा हुआ उस समय वहां भी अप्रशिक्षित और नये कर्मचारी काम में लगे हुए थे।

कल कारखानों और उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों की जिदगीं हमेशा मौत से जुझ रही है। ये उद्योग जहां भी लगे हुए है वहां के लोग दहशत में जीने को मजबूर है कि कहीं मौत का ताण्डव श्ुरू न हो जाये। लेकिन ऐसा हालत तब तक बना रहेगा जब तक पैसे को ही भगवान मानने वाले नेता इस देश में रहेंगे और आम आदमी उन्हें गाजर-मूली नजर आता रहेगा। -दिलीप जायसवाल

बुधवार, 25 नवंबर 2009

मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक सीमित न हो संवेदना




मुम्बई में हुए आतंकी हमले के एक साल बाद आज अखबारो और मीडिया के दूसरे साधनों में इस पर जमकर चर्चा हुई है। देश की सुरक्षा व्यवस्था पर अभी भी कई सवाल उठ रहे है। आतंकी हमले में मारे गए लोगों के परिजनो को मिलने वाले न्याय पर भी अखबारों में संपादकीय और लेख छपे हैं। कहीं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सरकार की आलोचनांए दिख रही है।

इन सब मुद्वो के बीच सवाल उठता है कि इस घटना के बाद हम कितने संवेदनशील हुए। सरकारी तंत्र को छोड दे तो हम कितने जागरुक हुए। ऐसा नहीं हुआ है तो और कितनी लाशे गिनना चाहते हैं। वहीं हमारी नींद खुली है तो सरकारी तंत्र की नींद नहीं खुले, ऐसा नहीं हो सकता है।

ऐसी घटनाओ के बाद हमारी संवेदना मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। व्यवस्था की आलोचना कर चुप हो जाना ही हमारा कत्वर्य नहीं है। हम सात समुंदर पार भी है। वहां से भी हम अपनी भूमिका निभा सकते हैं।

यह भी समझने की जरुरत है कि हिन्दुस्तानी होने का चादर ओढने वालों के हाथ कितने पाक साफ है। हिन्दुस्तान के हित की बात करने वाले कितने स्वार्थी हैं ? खूफिया एजेसियों का नेटवर्क कितना बेहतर हुआ है। सुरक्षा व्यवस्था के लिए काम करने वाली संस्थाओ के सदस्यो में कितना सामांजस्य है। ईमानदारी की खुशबू के लिए कोई प्रयास हुई या नहीं।

ऐसा नहीं हुआ है तो नेता मंत्रियों और सरकारी नुमाइंदो की ही सुरक्षा हो सकती है। आम आदमी तो उसी तरह मरता रहेगा, जिस तरह 26/11 को मुम्बई के रेल्वे स्टेशन का खौफनाक मंजर था।
दिलीप जायसवाल

मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक सीमित न हो संवेदना

मुम्बई में हुए आतंकी हमले के एक साल बाद आज अखबारो और मीडिया के दूसरे साधनों में इस पर जमकर चर्चा हुई है। देश की सुरक्षा व्यवस्था पर अभी भी कई सवाल उठ रहे है। आतंकी हमले में मारे गए लोगों के परिजनो को पर भी अखबारों में संपादकीय और लेख छपे हैं। कहीं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सरकार की आलोचनांए दिख रही है।




इन सब मुद्वो के बीच सवाल उठता है कि इस घटना के बाद हम कितने संवेदनशील हुए। सरकारी तंत्र को छोड दे तो हम कितने जागरुक हुए। ऐसा नहीं हुआ है तो और कितनी लाशे गिनना चाहते हैं। वहीं हमारी नींद खुली है तो सरकारी तंत्र की नींद नहीं खुले, ऐसा नहीं हो सकता है।




ऐसी घटनाओ के बाद हमारी संवेदना मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। व्यवस्था की आलोचना कर चुप हो जाना ही हमारा कत्वर्य नहीं है। हम सात समुंदर पार भी है। वहां से भी हम अपनी भूमिका निभा सकते हैं।




यह भी समझने की जरुरत है कि हिन्दुस्तानी होने का चादर ओढने वालों के हाथ कितने पाक साफ है। हिन्दुस्तान के हित की बात करने वाले कितने स्वार्थी हैं ? खूफिया एजेसियों का नेटवर्क कितना बेहतर हुआ है। सुरक्षा व्यवस्था के लिए काम करने वाली संस्थाओ के सदस्यो में कितना सामांजस्य है। ईमानदारी की खुशबू के लिए कोई प्रयास हुई या नहीं।




ऐसा नहीं हुआ है तो नेता मंत्रियों और सरकारी नुमाइंदो की ही सुरक्षा हो सकती है। आम आदमी तो उसी तरह मरता रहेगा, जिस तरह 26/11 को मुम्बई के रेल्वे स्टेशन का खौफनाक मंजर था।
दिलीप जायसवाल

जंगल में शहीद होने वाले क्या दोयम दर्जे के ?

26/11 की घटना के बाद देश में देशभक्ति की भावना और हिन्दुस्तानी होने का जज्बा दिखाई दिया था। शहीदों को चैक-चैहारों पर मोमबत्तियां जला कर नमन किया गया था। वैसा जज्बा जंगल में कई-कई दिनों तक आंतरिक सुरक्षा के लिए अभिशाप बन चुके नक्सलियों से लड़ने वालों के शहीद होने पर दिखाई नहीं देता है। विषम परिस्थितियों में बहादुरी के साथ लड़ कर शहीद होने पर उनके बारे में कोई नहीं जानना चाहता।

छत्तीसगढ़ के बस्तर और दूसरे नक्सल जिलों में कभी सीआरपीएफ तो कभी पुलिस के जवान शहीद होते है, जब उनकी लाशें ट्रकों में भर कर लाई जाती हैं तो हमारे दिल में इतना भी उफान नहीं होता कि कम से कम उनका चेहरा तो देंखे। जिन्होंने हमारे लिए अपनी जान गंवा दी।

पिछले साल भर से रायपुर में हूं, यहां अमीरजादों की कमी नहीं है। जब भी नक्सली मोर्चे में शहीद होने वाले जवानों की लाशें यहां पहुंचती है तो शहरी लोग शहीदों के लिए दो पल भी नहीं निकाल पाते। क्या यही है हमारी देश-भक्ति की भावना, जिनके शहीद होने के खबर मिलने के बाद भी हमारा दिल नहीं पसीजता। क्या मुंबई जैसे हमलों में शहीद होने वाले ही शहीद होते हैं और उनके लिए ही मोमबत्तियां जलाई जा सकती हैं ? ये सब बातें इसलिए क्योंकि घर, परिवार और समाज छोड़कर जंगल में ड्यूटी करने वाले सिर्फ पैसे के लिए ही नहीं जीते हैं। अगर किसी नेता-मंत्री या उसके परिवार के किसी सदस्य की मौत हो जाती है तो आंसू बहाने वालों का तांता लग जाता है, विज्ञप्तियां जारी होती हैं, शोक संदेश छपते हैं, क्या बस्तर में शहीद होने वाले इनके काबिल भी नहीं है।

देश में आंतरिक सुरक्षा, बाहरी हमलों से भी खतरनाक हो चुकी है। इस पर गंभीरता से राजनीतिक स्वार्थ के कारण कोई नीतिगत निर्णय नहीं लिया जा सका है। हाल यही रहा तो शहरों में खुद को महफूज समझने वाले लोगों के बंगलों में भी एके-47 की आवाज सुनाई देगी। शायद तब इस समस्या के प्रति सरकार कोई सही निर्णय ले सकेगी और यहां शहीद होने वालों को कुछ दिनों के लिए याद किया जायेगा।

सरकार द्वारा नक्सलवाद को विकास विरोधी माना जाता है। सरकार कहती है कि जहां सही तरीके से विकास नहीं हो सकें हैं वहां नक्सली समस्या प्रमुख है। सवाल यह है कि जहां नक्सलवाद जैसी कोई समस्या नहीं है, वहां ईमानदारी के साथ प्रयास क्यों नहीं किया जाता।

कुछ दिन पहले बस्तर में तैनात एक पुलिस अफसर से बात हो रही थी। उनका घर बस्तर में ही है। वे दो साल से घर नहीं गये हैं। उनके घर जाने पर परिवार वालों को नक्सली मार डालेंगे। परिवार वाले उनसे बाजार के दिन चोरी-छूपे ही मिल पाते है। इस अफसर ने कहा कि वे अच्छे से जानते है कि बस्तर में नक्सली क्यों पैदा होते हैं और यह समस्या यहां कब तक रहेगी।

वे बताने लगे कि यहां ऐसे कई घर है जहां शाम को लोग कंदमूल खाकर या भूखे पेट ही सो जाते हैं। कई बार उन्होंने अपनी आंखों से नक्सली अभियान के दौरान यह सब देखा है।

हालत यह है कि आदिवासी का बेटा नक्सली बन रहा है या नक्सली उसे जबरन अपने साथ रहने को मजबूर कर रहे है। आपस में पुलिस और नक्सलियों के बीच होने वाले टकराव में भी गरीब का बेटा ही मारा जा रहा है। चाहे वह नक्सली के रूप में मरता हो या फिर सरकारी फोर्स के जवान के रूप में। इन दोनों के बीच जंगल और खेत में पसीना बहाने वाला मरता है।

ऐसे में आखिर एयर कण्डिशनर वाले इन्हें मरने से पहले या इसके बाद याद क्यों करेंगे। याद तो तब करेंगे जब ताज और नरीमन जैसे होटलों या रइसों के क्लबों में मौत का यह खूनी खेल हो।
-दिलीप जायसवाल

सोमवार, 23 नवंबर 2009

संपादक ने शादी के लिए न ली छुट्टी और न दी

पत्रकारिता क्या है और क्या हो रहा है, यह हर रोज वरिष्ठ पत्रकारों से सुनने को मिलता है। कल एक न्यूज एजेंसी के दफतर में पहुंचा तो एक परिचित वरिष्ट पत्रकार से मुलाकात हो गई। वे कुछ महिने पहले ही एक बड़े अखबार की नौकरी छोड़कर वहां से कम वेतन पर यहां काम कर रहे हैं। हालचाल जानने से शुरू हुई चर्चा पत्रकारिता के किस्से कहानियों तक पहुंच गई। इस पर वे बताने लगे कि जब एक अखबार में काम कर रहे थे, उस समय जब उन्होंने शादी के लिए छुट्टी मांगी तो संपादक ने कहा-शादी के लिए भी कोई छुट्टी की जरूरत है। उन्होंने बताया कि संपादक ने भी अपनी शादी के लिए छुट्टी नहीं ली थी। मंडप में शाम को शादी संपन्न होते ही रात में वे ड्यूटी के लिए आ गए थे।

यह बात वे आज की पत्रकारिता के तौर पर चर्चा के साथ बताने लगे थे। उन्हांेने कहा कि अब जमाना वैसा नहीं रहा। वे आफिस जाने की सोच के साथ घर से नहीं निकलते, वल्कि महसूस करते हैं कि किसी बनिए की दुकान में काम करने जा रहे हैं।

चर्चा में संपादकों के साथ रिर्पोटरों के समाचार लेखन में सामंजस्य को लेकर भी बात होने लगी। वे कहने लगे की जब कोई नया संपादक आता है तो रिर्पोटरों को सामंजस्य बनाने में काफी समय लग जाता है। जैसा कि मैंने भी अनुभव किया है-आपकी कोई बात उस संपादक को अच्छी लगती है, जबकि वह दूसरे संपादक के हाजमे लायक न हो। समाचार लिखने का तरीका भी अलग-अलग हो सकता है। जिस नजरिए से रिपोर्टर समाचार लिखता है, हो सकता है वह नजरिया संपादक को अच्छा न लगे। अब तो रिपोर्टिंग से पहले अधिकतर मीडिया संस्थानों में किस नजरिए से रिपोर्टिंग करनी है, यह पहले ही बताकर भेजा जाता है।

इन सबके अलावा बातों-ही-बातों में और भी कई ऐसी बिंदुओं पर चर्चा हो गई । कुल मिलाकर वे पत्रकारिता की वर्तमान हालत पर काफी आहत थे। सवाल उठता है कि जब पत्रकारिता के क्षेत्र में पैसे की चाहत से लोग पहुंचेंगे और समाज एक-दो रुपए में अखवार पढ़ना चाहेगा तो हालत बाजार का ही बनेगा और बाजार में दुकान तो होती ही है।
दिलीप जायसवाल

शनिवार, 21 नवंबर 2009

अभिव्यक्ति पर रोज हो रहा शिवसेना से खतरनाक हमला

जाति-धर्म और भाषा पर राजनीति करने वालों की आंखो की मीडिया किरकिरी बन गया है। आईबीएन के न्यूज चैनल लोकमत के कार्यालय में शिव सेना के कार्यकत्ताओं ने तोडफोड की गई। इस घटना के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चाह्मण का यह बयान कि मीडिया को अपनी सुरक्षा खुद करना चाहिए, लेकिन सवाल उठता है कि फिर उनके जैसे नेताओं को भी अपनी सुरक्षा खुद करनी चाहिए। जनता का करोडो रुपये नेताओ के बंगलों और बीबी-बच्चों की सुरक्षा में खर्च होता है। क्या मीडिया का महत्व इनसे भी कम है। वैसे भी जब आतंकियों की तरह जिस राजनैतिक दल के कार्यकर्ता काम कर सकते हैं वे अपने नेताओ की सुरक्षा भी तो कर सकते हैं।


यह पहली बार किसी पत्रकार या मीडिया संस्थान के दफ्रतर में मारपीट और तोड़-फोड़ नहीं हुई है, इससे पहले भी ऐसी घटनाएं हो चुकी है। तीन वर्ष पूर्व भी एक चैनल के दफ्रतर में इसी तरह की घटना हुई थी। मीडिया पर होने वाले हमलों को लेकर सरकारें गंभीर नहीं है। सरकारों से इनका उम्मीद करना भी बेमानी है।


आईबीएन के लोकमत दफ्रतर में हमले के बाद शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का यह बयान की उनके कार्यकर्ताओं ने कोई गलत काम नहीं किया है। हमला करने वाले कार्यकर्ता उनके शेर हैं और मीडिया खुद को भगवान न समझे। ठाकरे का यह बयान उसकी सोच को बताने के लिए काफी है।

शिवसेना ही नहीं बल्कि देश में इस तरह की और भी राजनैतिक दल हैं, जिनके विचार ऐसी घटनाओं के माध्यम से सामने आता रहा है। कल की इस घटना पर शिवसेना का यह भी कहना है कि उनके प्रमुख के लिए आपत्तिजनक श्बुढ्ढाश् शब्द का प्रयोग किया गया। शिवसेना और मनसे जैसे पार्टियां इस शब्द से भी अपमानित करने वाले शब्दों का प्रयोग करते रहे है। चाहे वह उत्तर भारतीयों के लिए हो या फिर मराठी नहीं बोलने और सुनने वालों के लिए।

शिवसेना जैसी राजनैतिक पार्टियों द्वारा जिस तरीके से करतूत किये जा रहे है, उससे साफ है कि इन दलों को भारतीय लोकतंत्र की राजनीति से बाहर कर देना चाहिए। महाराष्ट्र की जनता ने पिछले दिनों चुनाव में शिवसेना के प्रति जिस तरीके से अपने मत का प्रयोग किया वह भी इसी की ओर इशारा कर रहा है। वहीं उसी से खींज खाकर पार्टी के कथाकथित कार्यकर्ताओं ने मीडिया के दफ्रतर में हमला किया।


देश भर के पत्रकारों और मीडिया संस्थानों को आपसी व्यवसायिक प्रतिस्पर्धाओं को अलग होकर एकजुट होने की जरूरत है, ऐसा नहीं हुआ तो ऐसी घटनाएं आम हो जायेंगी और लोकतंत्र की चैथे स्तंभ की भूमिका में खड़े मीडिया के खम्भे को खड़ा रखना मुश्किल होगा। वैसे भी इस संक्रमण काल में पत्रकार अपने दायित्वों को विषम परिस्थितियों में पूरा कर रहे हैं। इसका नतीजा क्या मिल रहा है, उदाहरण कल की घटना पर्याप्त है।

जब ऐसी घटनाएं होती है तो समाज में मीडिया पर गैर जिम्मेदाराना होने का भी आरोप लगता है। इस पर भी मीडिया को आत्ममंथन करने की जरूरत है। खास कर उद्योगों की दुनिया से मीडिया में कदम रखने वाले मालिकों को। नहीं तो मीडिया की अभिव्यक्ति पर अप्रत्यक्ष रूप से बाजार और दूसरी शक्तियां जो हमला कर रही हैं, वह इस हमले से भी खतरनाक होगी। फिलहाल जरूरत इस बात की है कि पत्रकार अपने दायित्वों के प्रति हर परिस्थिति में काम करते रहें।

-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

प्यास...

भीषण गर्मी पड़ रही थी, मैं यूं ही अकेला पैदल चला जा रहा था। दूर-दूर तक कोई पेड़ या घर भी नजर नहीं आ रहा था। पैदल चलते-चलते बिल्कुल ही थक चुका था। पैर भी लड़खड़ाने लगे थे। वे आराम मांग रहे थे। प्यास से गला सूख चुका था। मुंह में लार भी नहीं बची थी कि मुंह को गीला रख सकूं। होठ तो कब के सूख चुके थे।

एक नदी दिखाई दी। यह सोच कर कि वहां चेहरा धो लूंगा, एक उम्मीद के साथ कदम आगे बढ़ाया, लेकिन नदी रेत से पटी हुई थी। रेत आग की तरह जल रही थी। गर्म हवा के थपेड़ों से जान निकली जा रही थी। इसी बीच पानी निकालने का एक तरीका सूझा। नदी की रेत को खोदना शुरू किया पर एक बूंद पानी की बात तो दूर नमी भी नहीं मिली।

मेरी नजर तभी मरी हुई मछलियों पर पड़ी, उन्हें एक कौआ खा रहा था। मैं यहां से आगे निकल गया, उस समय दोपहर के कोई दो बज रहे होंगे। कुछ ही दूर पर एक पेड़ दिखाई दिया। पेड़ पर पत्ते नहीं थे, वह पूरी तरह सूख चुका था। चिड़ियों के घोसले के तिनके नीचे बिखरे पड़े थे। मेरी हालत प्यास से बिगड़ने लगी थी। मुझे घर से निकले कई दिन हो चुके थे।

मन ही मन अपनी इस हालत पर सोच रहा था कि मेरी ओर दौड़ता हुआ आठ-दस साल का एक बालक पहुंचा। वह मुझे देख कर रूक गया। वह भी दौड़ने के कारण काफी थक चुका था और हांफ रहा था। वह मेरे पास आकर बैठ गया, उसके हाथ में पानी से भरी बोतल थी। मैंने उससे पूछा कहां से आ रहे हो तो वह बोला पानी की बोतल चोरी करके, पुलिस वाले मुझे ढूंढ़ रहे हैं।

मेरे पीने के बाद बोतल में बचे हुए पानी को वह पी गया और बोतल को वहीं पर छूपा कर बैठ गया। बोतल में अब भी थोड़ा पानी बचा था। मुझे डर लगने लगा कि बालक को ढूंढ़ती हुई पुलिस यहां तक न आ पहुंचे। मेरा डर सच निकला, कुछ देर में एक पुलिस वाला वहां आ पहुंचा। तब तक मुझे नींद आ चली थी और मैं ऊंघन लगा था। उसने मुझे कोंचकर जगाया और पूछा- तुम्हारे पास पानी है ? मैंने देखा उसकी सांस तेज चल रही थी, बालों व चेहरे पर धूल जमी थी और होठ सूखे थे।

मैंने उसे बोतल दे दी। दो घूंट पानी पीकर उसे राहत मिली। उसने बालक को देखा और पूछा- और ला सकता है ? वहां कोई चोर या पुलिस नहीं था। प्यास ने हम सबको एक बना दिया था।
-दिलीप जायसवाल

पंचसितारा होटल में खाने वालों ने किसानों का जख्म देखा..?

देश की राजधानी दिल्ली में किसानों ने गन्ने के समर्थन मूल्य को लेकर अपने ताकत का प्रदर्शन किया, वह यह बताने के लिए काफी है कि किसानों का जख्म अब सहन से बाहर हो गया है। हालांकि आज दिल्लीवासियों को इससे परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन कम से कम शहर में रहने वालो को ये तो पता चला कि वो वातानुकुलित, पंचसितारा होटलों में बैठ कर जो स्वाद लेते हैं। वह इन्हीं किसानों से ही संभव है।

आजादी के पचास साल बाद भी किसानों की जैसी दुर्दशा हो रही है, वह शोषण और भ्रष्टाचार की सोच रखने वाले नेता-मंत्रियों के रहते कोई बड़ी बात नहीं है। किसानों के अंदर का आग तो बिना किसी राजनीति के भड़क जाना चाहिए था, लेकिन वह हमारे देश में नहीं हो पाता है। दिल्ली की सड़कों में किसानों की जो आवाज सुनाई दी, उसमें भी उनके साथ वही नेता दिखाई दे रहे थे जो चाहते तो किसानों को सड़क में आये बिना ही उनके अधिकार मिल जाते। लेकिन नेता भी ऐसा नहीं करना चाहते। किसानों को सड़क में उतार कर वे अपनी रोटी सेकना चाहते है। इसे किसानों को समझने की जरूरत है और हमारे किसान यहीं पर भूल कर जाते है।

किसानों को सड़क पर उतार कर इनका कथित रूप से समर्थन कर रहे नेता खुद को बलवान समझ रहे होंगे। लेकिन सोचने की जरूरत है कि जो किसान अपना पसीना बहा कर खेत से मिठास पैदा कर सकता है वह बिना राजनीति के अपने हक के लिए लड़ने का मद्दा रखता है।

छत्तीसगढ़ के किसानों को भी विपक्ष में बैठे कांग्रेस ने धान के समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी के लिए सड़क पर उतारा है। किसानों का आंदोलन राज्य में पहली बार मजबूती के साथ उभरती हुई दिखाई दी है, लेकिन यहां भी राजनैतिक स्वार्थ हावी है। ऐसे में स्वार्थ पूरा होते ही साथ देने का वादा करने वाली नेता कब तक उनके साथ रहेंगे, इस पर भी संदेह है।

किसानों की ही बात हो रही है तो यह भी सोचने को मजबूर करती है कि छत्तीसगढ़ के जशपुर के लुडेक में टमाटर की खेती किसानों द्वारा जला दी जाती है। खेत से टमाटर को निकालने के बाद इतना भी पैसा नहीं मिल पाता कि उसे तोड़ने की मजदूरी मिल सके। वहीं सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण ही मांग के बाद भी यहां टमाटर रखने के लिए कोल्ड स्टोर की स्थापना नहीं हो सकी है और आज बाजार में टमाटर 40 रूपये किलो मिल रहा है। अगर सरकार सचमुच किसानों के विकास के लिए सोचती तो ऐसा हाल न होता।

वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने अंततः आज इस बात को स्वीकार कर लिया कि देश में चावल की कमी है और इसका आयात करना पड़ेगा। कृषि प्रधान देश में खेती और उसके किसान किस हालत में जी रहे हैं। इस पर सरकार को सोचने की फुर्सत नहीं है। जबकि हमारे देश की अर्थव्यवस्था का कृषि बड़ा साधन है।

दुर्भाग्य की बात है कि पचास साल बाद देश के किसान एकजुट नहीं हो सके हैं। यही कारण है कि आज भी किसानों को अपने हक के लिए सड़क पर उतरना पड़ रहा है। इसके बाद भी जब किसानों की आवाज नहीं सुनी जाती तो वे आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते है। नेता, मंत्रियों और सरकारी नुमाईंदों ने जो व्यवस्था बना कर रखी है, उसके रहते किसानों के विकास की बात करना बेमानी है।

यही हाल रहा तो किसान पैकेट बंद दाल-चावल खरीदते हुए बाजार में दिखाई देगा, जो विदेशी कंपनियों के बनाये हुए होंगे। ऐसी स्थिति शहरों में दिखने लगी है लेकिन ऐसी स्थिति उस समय सोचने के लिए मजबूर करेगा जब- किसान की जमीन पर धुंआ उगलती फैक्ट्री लगी है और वह उसमें मजदूरी कर रहा है। पास के दुकान में शाम को दुकान में जायेगा और गुणवत्ता मापक वाले सिम्बाल लगे पैकेटों में बंद चावल-दाल खरीदेगा। -दिलीप जायसवाल

सोमवार, 16 नवंबर 2009

मीडिया में गरीबों और शोषितों की बात करने वाला बन जाता है नक्सली


राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस के अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्रीपाल जोशी ने कहा कि मीडिया में गरीबों, शोषितों की बात करने वाला नक्सली बन जाता है। मीडिया में तट्स्थता और निष्पक्षता का मतलव मीडिया के मालिकों का हित बनकर रह गया है। पूरी पत्रकारिता कार्पोरेट हो गई है। अन्याय, पीड़ा और अत्याचार छापने वाले वर्तमान में सबसे ज्यादा पीड़ा का सृजन कर रहे हैं।

कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर में आयोजित कार्यक्रम में छात्रों को संबोधित करते हुए वरिष्ठ संचार विशेषज्ञ श्रीपाल जोशी ने कहा कि वर्तमान में प्रभाष जोशी के युग की पत्रकारिता मर गई है। अमेरिकन और यूरोपियन सिद्धांतों पर पत्रकारिता की शिक्षा दी जा रही है। उन्हांने इस पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि यही कारण है कि बड़ा किसान आज मजदूर बन रहा है और शहरों की गंदी बस्तियों में रहने के लिए मजबूर है।


श्री जोशी ने कहा कि आज ऐसे लोग नहीं के बराबर हैं जो अपने मूल्यों के लिए आंदोलन और कष्ट सह सकें। पहले जब संचार माध्यम राज्यों के हवाले था और राज्य सरकारों से आम हाथों में आया, उसके बाद हालत और बिगड़ा। इसका नतीजा है कि मीडिया चंद लोगों के हाथों में चला गया है। खोजी पत्रकारिता का मतलब बेड रूम तक पहुंचना हो गया है, वहीं रियलिटी शो का मतलब इस देश की रियलिटी नहीं बल्कि राखी का स्यंबर है।

कार्यक्रम में भोपाल से पहुंचे वरिष्ठ पत्रकार कमल दीक्षित ने वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी से अपने संबोधन को शुरू करते हुए कहा कि उनमें सरोकारी और मूल्य भ्रष्ट होती पत्रकारिता को लेकर चिंता थी। पत्रकारिता लगातार गैर जिम्मेदाराना हुई है। निष्पक्षता और सरोकारी पत्रकारिता हांसिए पर चली गई है। इसके लिए उन्होंने उपभोक्तावाद और बाजारवाद को जिम्मेदार बताया।

श्री दीक्षित ने कहा कि कुछ दशक के बाद से मीडिया में नियंत्रण करने वालों में होड़ मची हुई है। सत्ता और पूंजी वालों के अलावा बिल्डरों और ठेकेदारों का मीडिया पर नियंत्रण हो गया है। वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए मीडिया को सबसे सस्ता साधन मानते हैं। यही कारण है कि मीडिया आज पिछड़े क्षेत्रों के उत्थान के लिए काम नहीं कर रही है।

मीडिया को खुद से आत्म अवलोकन कर नियम बनाना चाहिए। दस वर्षों से पत्रकारिता को कैरियर के रूप में ही देखा जाने लगा है। इसमें कैरियर के अलावा रसूख और ग्लैमर आ गया है । मीडिया सही को गलत और गलत को सही करने का काम कर रहा है। इस पर चिंता करने वालों की संख्या भी काफी कम है। प्रभाष जोशी के निधन पर उन्होंने कहा कि निधन की खबर अखबारों में सिंगल काॅलमों में सिमट गई। जनसत्ता के लिए उन्होंने पूरी जिंदगी बिताई वहां भी निधन के बाद उन्हें खबरों में पर्याप्त सम्मान नहीं मिली। ऐसी बेईमानी और वाहियात स्थिति सोचनीय है। इन मीडिया माध्यमों से उनपर अच्छी चर्चा ब्लागों में हुई ।

उन्होंने प्रभाष जोशी द्वारा छात्रों के लिए कहे गए एक कथन को दुहराया - मैं ज्योतिषियों के पास नहीं जाता । मेरा भविष्य तो आप हैं। पत्रकारिता का भविष्य बनाएंगे तो वह मेरा भविष्य होगा।

पत्रकारिता दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के कुलपति सच्चिदानंद जोशी सहित प्रोफेसर और विश्वविद्यालय से अध्ययन कर निकले मीडियाकर्मी मौजूद थे।
दिलीप जायसवाल/ राम मालवीय

रविवार, 15 नवंबर 2009

जंगल से पहले संसद में बैठने वालों से निपटना जरूरी

नक्सवाद की समस्या को लेकर अब से पहले सरकार इतनी गंभीर पहले क्यों नहीं थी, जितनी गंभीर वह अब दिखाई दे रही है। सरकार कभी नक्सलियों से बातचीत करने की बात करती है, तो कभी उनके आक्रामक तेवर को देखकर बुलेट के बल पर निपटने की योजना पर गंभीरता से काम करने की बात कहती है। सरकार में बैठे कुछ लोेग नक्सलियों पर हमले का विरोध करते हैं। तो कुछ अप्रत्यक्ष तरीके से यह कहने की कोशिश करते हैं कि नक्सली लोकतंत्र पर विष्वास कर रहे हैं और उनके साथ कुछ नक्सली नेता अब लोकतांत्रिक विचारधारा के साथ लौट आये हैं। वहीं कुछ बंदूक के बल पर निपटने की रणनीति को कारगर मानते हैं।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी. चितम्बरम अपने बयानों से इन परिस्थितियों में उलझते नजर आ रहे हैं। प्रधानमंत्री कभी नक्सलवाद को आदिवासियों का सही विकास नहीं होने और उन पर होने वाले अत्याचार को जिम्मेदार बताते है। गृहमंत्री नक्सलियों को संगठित गिरोह बताते हैं।

हमारा मानना है कि जब तक एयर कण्डिशनरों में बैठ कर नक्सलियों और उनसे प्रभावित क्षेत्रों के बारे में योजनाएं बनाई जायेंगी, तब तक हालत में सुधार होने के बजाय यह समस्या और गंभीर होगी। यह समझने की जरूरत है कि नक्सलियों ने कोई दो-चार साल में अपना जड़ इतना गहरा नहीं किया है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर और उससे लगे क्षेत्रों की बात करे तो आज भी सरकारी तंत्र नक्सलियों के जड़ को मजबूत करने खाद-पानी दे रहा है। क्षेत्र के गांव में पटवारी और ग्राम सेवक जैसे जमीनी सरकारी नुमाईंदें आज भी आदिवासियों का षोषण कर रहे हैं। जिस बात का जिक्र नक्सल समस्या को लेकर प्रधानमंत्री ने हाल ही के दिनों में किया था।

छत्तीसगढ़ के सरगुजा में पांच साल पहले जिस तेजी के साथ नक्सलियों ने अपना विस्तार किया और उसके जो सहायक तत्व बने वे अभी भी विद्मान हैं। यहां आदिवासियों के विकास और उनके लिए किये गए अधोसंरचना के कार्यों में इतना भ्रष्टाचार हो रहा है। इसे वहां जाकर ही समझा जा सकता है। इस पर न तो राज्य सरकार गंभीर दिखती है और न ही दिल्ली की सरकार। ऐसे में अगर नक्सली यहां अपनी पैठ फिर से मजबूत करते हैं तो इसके लिए जिम्मेदार किसे माना जायेगा। ऐसा नहीं भी होता है तो क्या यहां रहने वालों को उसी हाल में छोड़ दिया जाये और यह मान लिया जाये कि सरकारी नुमाईंदों और नेता मंत्रियों को आम आदमी के विकास के लिए बनने वाली योजनाओं में कमीषन खोरी करने की आजादी मिली हुई है।

ऐसा इसलिए लिखना पड़ रहा है कि चुनाव जीतते ही सांसद और विधायक, मधुकोडा बनना चाहता है। वहीं कई ऐसे कई मुधकोणा भी हैं जिनका चेहरा परदे के पीछे है और असल में इन्हें आज के दौर में नक्सलवाद को पोषित करने के लिए जनक की उपाधी दी जाये तो कोई अतिषयोक्ति नहीं होगी। जंगल और गांव में नक्सलियों से निपटने के पहले ऐसे हस्तियों से निपटने की जरूरत है तभी तो जंगल में भी सूरज की किरणें दिखाई देंगी और रोशनी हमेशा कायम रह सकेगी।

-दिलीप जायसवाल

शनिवार, 14 नवंबर 2009

डिग्री की अहमियत तुम समझते नहीं

आज पत्रकारिता विष्वविद्यालय में अपने ही बैच के एक छात्र से पत्रकारिता की डिग्री को लेकर बहस हो गई। उसका कहना था कि डिग्री मिलने पर वे इस क्षेत्र में अनुभव वाले व्यक्ति को पछाड़ कर पत्रकारिता के षिखर तक पहुंच सकते हैं। पत्रकारिता के अनुभव वाले व्यक्ति और सिर्फ डिग्रीधारी जब नौकरी मांगने कहीं जायेंगे तो डिग्रीधारी को ज्यादा महत्व मिलेगा।

मैं इसे स्वीकार नहीं करते हुए बोल रहा था, तो वह दूसरे क्षेत्रों का उदाहरण देने लगा। कुछ ही देर में वह सरकारी नौकरी में प्रमोषन के पेटर्न से इसे भी जोड़ने लगा। वह कहने लगा कि अगर 12वीं पास को तृतीय श्रेणी की नौकरी मिलती है तो ग्रेजुएषन वाले को दूसरे श्रेणी की नौकरी मिलती है।
उसकी समझ और उसके उदाहरणों के आगे मैं चुप रहना ही बेहतर समझा। मन ही मन सोचने लगा कि ये छह महीने बाद डिग्री लेकर निकलने वाला है। उसे रूटिन की रिपोर्टिंग कर दो काॅलम की खबर बनाने कह दिया जाये तो पत्रकारिता के प्लेटफार्म में पहुंचते ही खुद खबर बन जायेगा। मैं किसी डिग्री का अपमान नहीं कर रहा हूं। लेकिन यह सच्चाई मैंने कई बार अपने आंखों से देखी है। जब पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए हजारों-लाखों रूपये खर्च करने के बाद भी कलम का सौदागर बनने की तमन्ना रखने वाले इसके प्लेटफार्म में आकर एबीसीडी सीखते हैं। -दिलीप जायसवाल

हर गांव में पैदा हो जाती माता राजमोहनी

छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के विकास में षराब बड़ा अवरोधक बन चुका है। नये राज्य बनने के बाद यह और भी खतरनाक रूप में दिखाई देने लगा है। पिछले दिनों रायगढ़ जिले के घरघोड़ा क्षेत्र में षराब के नषे में एक व्यक्ति ने मां, पत्नि समेत बच्चों की हत्या कर आत्महत्या कर ली। ऐसी घटनाएं इस आदिवासी बाहुल्य राज्य के परिपे्रक्ष्य में सोचने को मजबूर करती है।
कुछ सालों के भीतर विदेषी षराब यहां के दूर-दराज गांव में भी मिलने लगा है। षराब के बिक्री के मामले में राज्य, देष में दूसरे स्थान के बाद पहला स्थान में आता दिखाई दे रहा है। इससे सरकार नुमाईंदांे और नेता, मंत्री, षराब माफिया ही खुष हो सकते है।

घर का महुआ षराब पीने वाला आदिवासी समाज अब विदेषी षराब भी षौक से पीने लगा है। इसके खतरनाक रूप को देखते हुए राजधानी रायपुर के आस-पास ही नहीं बल्कि सरगुजा के दूरस्थ गांवों की महिलाओं ने भी षराब के खिलाफ मोर्चा खोला है। षराब कोचियों के खिलाफ महिलाओं द्वारा आंदोलन किये जाने की खबरें मीडिया में आती रही है, सरगुजा के वाड्रफनगर क्षेत्र के एक गांव की महिलाओं ने गांवों में षराब बनाने और बेचने के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है। षराब बनाने पर जुर्माना तय किया है। लेकिन वे महिलाएं भी षराब ठेकेदारों के गुर्गो के सामने मजबूर हैं।राज्य बनने के बाद यहां षराब दुकानें दूगुनी हुई हैं। कई दुकानें विरोध के बाद भी रिहायषी स्थानों पर चल रही है। वहीं दूसरी तरफ विकासखण्ड स्तरों पर संचालित मयखानों से कोचिये षराब गांवों तक पहुंचा रहे हैं। इससे ग्रामीण युवा भी बोतल बंद विदेषी षराब की ओर खिंचा जा रहा है।

छत्तीसगढ़ में षराब के दुष्परिणामों को बहुत पहले ही माता राजमोहनी देवी ने समझ लिया था। उन्होंने षराब बंदी के लिए राज्य के सरगुजा, कोरिया, जषपुर, रायगढ़ सहित कई जिलों में सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा की थी। सरगुजा के प्रतापपुर क्षेत्र में जन्मी यह बेटी अगर राज्य के हर गांव में कम से कम एक बार भी पैदा हो जाये तो हालत कैसी होगी? फिलहाल माता राजमोहनी देवी की तरह महिलाआंे को आगे आने की जरूरत है। हालांकि वर्तमान समाज में यह इतना सहज भी नहीं है। षांतिपूर्वक षराब के खिलाफ आंदोलन करना और इसमें सफलता पर संदेह है। यह इसलिए क्योंकि सरकार तंत्र और नेता-मंत्री इसकी अपेक्षा नहीं करते। इसके बावजूद अगर राज्य के आदिवासियों का षैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से विकास का सपना कोई देख रहा है तो उसे इस हालत से निपटना होगा। ऐसा नहीं होगा तो षराब की मदहोषी और भी परिवारों को हमेषा के लिए सुलाने को तैयार है। यह एक ऐसी खतरनाक मदहोषी है जो माता-पिता, पत्नि और बेटे-बेटियों को ही नहीं बल्कि खुद को भी नहीं बचा पाता है।
-दिलीप जायसवाल

इससे अच्छा है नक्सलियों का साथ

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर में रहने वाली एक लड़की, जिसे मैंने कभी देखा नहीं है। उसे फोन के माध्यम से जानता हूं, वह कभी-कभी फोन कर बात करती है। कल जब उसका फोन आया तो हाल-चाल पूछने पर वह कहने लगी- मां ने आज बहुत मारा। वहीं पापा भी षराब पी कर आ जाते हैं और घर का माहोल बिगड़ जाता है। मुड़ खराब हो गया तो घर के बाहर खड़ी हूं। कभी-कभी तो मन करता है नक्सलियों के साथ चल दूं। इस तरह जीने से अच्छा है नक्सलियों के साथ ही रहूं, चाहे भले ही वे बाद में मार डाले। मैं उसकी बातों को सुन कर कुछ भी नहीं समझ पा रहा था कि उसे मैं क्या बोलू।

ये लड़की कक्षा दसवीं की पत्राचार के माध्यम से परीक्षा देने की तैयारी कर रही है। वह नियमित पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन कुछ इसी तरह से बनी विपरीत परिस्थितियों के कारण वह नियमित पढ़ाई नहीं कर सकी।

बस्तर जैसे क्षेत्रों में जाने ऐसी कितनी लड़कियां होगी जो विपरीत माहोल को सहन नहीं कर पाने के कारण नक्सलियों के साथ हो खुद के लिए बेहतर महसूस करती होंगी। इस पर चिंता करने की जरूरत है। वह सिर्फ इसलिए नहीं कि वे घर से अच्छा नक्सलियों के साथ को बेहतर मानती है बल्कि इसलिए भी कि ऐसी लड़कियां स्वस्थ्य माहौल पाकर जिंदगी को सकारात्मक रास्ते में कायम रख सकें। पढ़ने-लिखने के सपने को पूरा कर सकें।
-दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

आलीशान होटल और गाड़ी नहीं मांगते, उन्हें मंच पर समय तो दे दो



छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस के नौ साल पूरे होने पर सात दिन तक चले राज्योत्सव में जनता का करोड़ों रुपए खर्च हुआ। यह वही पैसा है जिसे लोग कभी पानी के नाम पर तो कभी साफ-सफाई के नाम पर सरकार को टैक्स देते हैं। हालांकि लोगों ने भी इस आयोजन पर खूब मनोरंजन किया। राजधानी रायपुर में आयोजित इस जलसे में मैं पहली बार पहुंचा था।

उत्सव में राज्य के बाहर से भी कई कलाकार सातों दिन पहुंचे, जिन्हें लोगों ने खूब देखा और सुना। इन कलाकारों को लाखों रुपए फीस बतौर संस्कृति विभाग द्वारा दिया गया। दर्शकों ने उत्सव के दौरान बड़ी संख्या में युवाओं का एक ऐसा भी वर्ग था जिसने इन कलाकारों के कार्यक्रमों के दौरान कुर्सियां और वेरिकैट्स भी तोड़ी। इस पर पुलिस को लाठी भी लहरानी पड़ी।

उत्सव के आखिरी दिन समापन अवसर पर मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के आगमन पर मुझे उसकी रिर्पोटिंग के लिए भेजा गया। अतिथियों के पहुंचने में देर थी। इस दौरान दूसरे मंच में छत्तीसगढ़ी लोकनृत्यों और गीतों की प्रस्तृति हो रही थी। इन कलाकारों के लिए कार्यक्रम उद्द्योषक के मन और जुबान में भी सम्मान की भावना नहीं थी। यही नहीं मौजूद दर्शक जिनमें संभ्रांत समझे जाने वाले परिवारों के लोग शामिल थे, वे भी इनकी प्रस्तुतियों को नहीं देख-सुन रहे थे। इन कलाकारों के लिए अपनी प्रस्तुति देने के दौरान समय की भी पावंदी थी, जबकि कलाकार और भी प्रस्तुतियां देना चाहते थे।

इन कलाकारों को कभी-कभार ही ऐसे मंचों में अपनी कला को दिखाने का मौका मिलता है। जब कार्यक्रम चल ही रहा था, उद्द्योषक ने समय खत्म होने की बात कही। इस पर कलाकारों ने एक और लोकनृत्य प्रस्तुत करने की इच्छा प्रकट की। यह देख उद्द्योषक ने ऐसा जबाब दिया मानों वह इन कलाकारों पर बहुत बड़ी मेहरबानी कर दिया हो।

इन बातों का उल्लेख करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि लाखों रुपए लेकर आने वाले कलाकारों के लिए कोई समय सीमा नहीं होती। कम-से- कम अपने कलाकार आने के लिए मंहगी कार और मंहगी होटलों में ठहरने की बात तो नहीं करते, जैसा कि लाखों रुपए लेने वाले करते हैं। ऐसे में इन कलाकारों के लिए मंच में कत-से-कम इतना समय तो होना ही चाहिए ताकि वे भी अपना जौहर दिखा सकें। वहीं दर्शक भी उन्हें दोयम दर्जे में देखते हैं, ऐसे में हमारे लोकनृत्य, संस्कृति और संगीत का विकास कैसे होगा ?

संस्कृति विभाग के दफतर में एक दिन इस उत्सव के शुरू होने के पूर्व अधिकारी चर्चा कर रहे थे कि किस कलाकार को मुंबई से बुलाया जाए कि भीड़ ज्यादा जुट सके। यहां मैं खामोश था पर मन-ही-मन सोच रहा था कि इस पर चिंता और चर्चा करने से बेहतर होता कि ये सरकारी नुमांइंदे अपने कलाकारों के माध्यम से लोकसंस्कृति और लोकनृत्यों को आकर्षक बनाने के लिए चिंता कर उसके लिए दर्शकों की ज्यादा संख्या जुटाने की कोशिश करते तो वह राज्य के संस्कृति और पारंपरिक नृत्यों के विकास के लिए महत्वपूर्ण होता।

उत्सव में लोक कलाकारों को प्रस्तुति का मौका दिया गया, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो उन्हें अपनी कला के नमूने दिखाने भर के लिए ही कहा गया है। इस पर लोकसंस्कृति और लोकनृत्यों व गीतों के संरक्षक तथा संवर्धन की बात करने वालों के साथ ही यहां कि आबो हवा में पले बड़े लोगों को भी चिंता करने की जरूरत है, ताकि उनके रग-रग में यहां कि संस्कृति रची बसी रहे।
दिलीप जायसवाल

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

पहचान ढूढंते रह जाओगे

गंावों में हमारे देश की संस्कति और रहन सहन छुपी हुई है। यह ऐसा अमूल्य धरोहर है जिसे खोने के बाद नहीं पाया जा सकता और न ही हमारी विशिष्ट पहचान दुनिया में सुरक्षित रह सकती हैै। हम इसे नजर अंदाज कर रहे है। लोग शहर में घर होने की बात कर जितना गौरवान्वित होते हैं उतना गांव में घर होने की बात कर नहीं होते। लोग खुद को शहरी बताकर खुश होते है। ऐसे लोगो को भय होता है कि गांव में रहने की बात करेगें तो वे देहाती समझे जायेंगे। देहाती शब्द उनके लिए मानो अपमान जनक हो। लेकिन जब देहाती टमाटर या मिर्ची बाजार में आती है तो अधिक कीमत के बाद भी लोग खरीदते हैं। इसके बाद भी गांवो के प्रति उपेक्षित रुप खतरनाक है।

ऐसी स्थिति गांवो की आत्मा को मार सकती है। ऐसा होता है तो इस देश की आत्मा कहां होगी चिन्ता का विषय है।

ग्रामीण युवा वर्ग शहरी तडक भडक की जाल में बुरी तरह फंस चुका है। वह शहरों की ओर भाग रहा है। वह खेत में काम नहीं करना चाहता। भले ही शहरों में रहकर उसे रिक्शा चलाना पडे या दूसरे के घर पर बर्तन धोना पडे, वह तैयार दिखता है। वहीं लोग बेटे-बेटियों की शादी शहर में करके अपनी खुश किस्मती समझते हैं। इस तरह शहरी हवा खानं के बाद गंावो को भूलने लगते है और धीरे धीरे गांवो की ओर मुडकर देखने में भी अपना अपमान समझने लगते है। इस सोच से बाहर निकलने की जरुरत है। इसके बिना गंावां का विकास भी नहीं हो सकता है। यह अलग बात है कि सरकारें विकास के लिए काम कर रही हैं लेकिन गांवों के प्रति हमारी संवेदनशीलता जब तक नहीं होगी तब तक यह सफल नहीं हो सकता।

ग्रामीण युवा शहरी आबो हवा में आने के बाद गांवो के बारे में सोचना ही नहीं चाहता। वहीं खेतो में काम करने वालो को पेट और बाल- बच्चो के बाद इतना समय नहीं मिलता कि वे गंावो के प्रति अपने सपनो को सच करने प्रयास कर सकें। कभी प्रयास भी करते हैं तो सरकारी तंत्र के जाल को भेद नहीं पाते। ऐसे में गांव की मिटटी में पैदा हुए लोग एक बार एक बार गांव की ओर मुडकर देखे और वहां की हालत को समझे तो गांवो की तकदीर बदलने से कोई नहीं रोक सकता।

हम क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों का प्रयोग करना भी अपमान समझने लगे हैं। लोग बच्चों को अंग्रेजी की कोचिंग करा रहे हंै, यह जरुरी भी है। वहीं हम अपनी क्षेत्रीय भाषा व बोली का प्रयोग घर और परिवार में भी नहीं करते। इसका उदाहरण अपना छत्तीसगढ है। जब छत्तीसगढ राज्य बना तो यहां के लोगो में छत्तीसगढी के प्रति अगाध प्रेम दिखाई दिया। वह अब दिखाई नहीं देता।

डेढ-दो दशक से शहर में रहने वाले लोगों के लिए गांव घुमने भर का साधन रह गए हैं। भाग-दौड की जिंदगी में शहर के लोगों को जब सुकून की जरुरत होती है तो वे गंाव की ओर निकलते हैं। महंगी कारो से गांव पहुंचते है और मस्ती कर लौट आते हैं। ऐसी तस्वीरे मैने अपनी आंखो से देखी है। ऐसा होता रहा तो कुछ दशको बाद हम अपनी स्वस्थ्य पहचान सुरक्षित नहीं रख पायेगें।
दिलीप जायसवाल

बुधवार, 4 नवंबर 2009

विदेश यात्रा, घर में मवेशी और इंसान पी रहे एक घाट का पानी


छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के नौ साल पर आयोजित जलसे में सरकार के लोगों ने विकास में आम लोगों की सहभागिता की बात कही। यह बात लोग पचाने को कहने पर ही नहीं बल्कि तभी से तैयार है जब राज्य का निर्माण भी नहीं हुआ था। ऐसा कहने की जरूरत आखिर क्यों पड़ रही है, इस पर विचार करने की जरूरत महसूस होती है।

राज्य बनने के बाद से मंत्री और अधिकारी कितने बार विदेश यात्रा कर राज्य के हित में काम किये हैं और वह धरातल पर दिखाई दिया है ? वह धरातल पर दिखाई दिया है तो क्या बिना विदेश की हवा खाये बगैर वह संभव नहीं था। विदेश यात्रा पर चर्चा करना इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह अपने सचिवों के साथ दक्षिण अफ्रीका यह बता कर गये कि वहां की औद्योगिक नीति को समझेंगे। वहां के उद्योगपतियों को खनिज सम्पदा के दोहन के लिए आमंत्रित करेंगे, लेकिन यहां पर बड़ी बात सामने आ रही है, वह है कि वे अपने परिवार के सदस्यों के बिना यह यात्रा नहीं कर सकते थे ? खबर तो यह भी है कि मुख्यमंत्री परिवार के सदस्यों के साथ ही नहीं बल्कि उनके सचिव भी सपत्निक थे। आखिर इस तरह आम छत्तीसगढ़ी के पसीने की कमाई का फिजूल खर्च कब तक होता रहेगा। यह पहली बार नहीं है जब ऐसा हुआ हो। इससे पहले भी करोड़ों रूपये विदेश यात्रा के नाम पर हर साल खर्च किया जाता रहा है। विदेश जाने से तो अच्छा होता ये मंत्री और अफसर राज्य के उस अंतिम गांव तक जाते जहां आज भी मवेशी और इंसान एक घाट का पानी पी रहे हैं।

राज्य के विकास की जब भी बात होती है, सरकार द्वारा नक्सल समस्या को जिम्मेदार ठहराया जाता है। आखिर नक्सल समस्या के नाम पर कब तक विकास के गति के पहियों को रोक कर रखा जायेगा और आम आदमी नव राज्य निर्माण की परिकल्पना को सपने में ही देखता रहेगा।

राज्य निर्माण से पहले मध्य प्रदेश द्वारा छत्तीसगढ़ क्षेत्र को उपेक्षित किये जाने का आरोप लगा करता था। अब जबकि छोटा राज्य बना और अकूत खनिज सम्पदा छत्तीसगढ़ को मिला उसके बाद भी यहां के लोगों को अभी भी इसका लाभ नहीं मिल सका है। नौ सालों में अगर उद्योगों की स्थापना हुई है और उसमें किसी को लाभ मिला है तो वे आम छत्तीसगढ़ी नहीं है। उद्योगों में तो आम आदमी मर रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बालको का चिमनी हादसा है। यह ही नहीं इन उद्योगों से आम आदमी को धूल-धुआं और इनसे होने वाली खतरनाक बीमारियां उपहार में मिली है। इसे जानने के लिए किसी से पूछने की जरूरत भी नहीं है।

राज्य उत्सव पर राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन ने कही कि अशिक्षा और गरीबी दूर किये बिना विकास नहीं हो सकता। यहां सवाल आता है कि अशिक्षा के अंधेरे को दूर करने के लिए राज्य बनने के बाद से अरबों रूपये पानी की तरह बहाया जा चुका है, उसके बाद ऐसे बच्चों की कमी नहीं है जिनके मां-बाप मजबूरी में अपने सपूतों को स्कूल का मुंह तक नहीं दिखा पा रहे है। ऐसे में विकास की परिकल्पना क्या विदेश दौरे से पूरा हो सकता है। सरकार के नुमाईदों को सोचने की जरूरत है, नहीं तो वही हाल होगा जो 53 साल बाद मध्य प्रदेश का है, जहां कुपोषण और गरीबी इस कदर हावी है कि लोग भूख से मर रहे है।
दिलीप जायसवाल