शनिवार, 24 जनवरी 2009

सरगुजा में नक्सलियों से ज्यादा आतंक हाथियों का ,सैकड़ों परिवारों का आशियाना उजड़ा

वे तूफान की तरह आते हैं और तबाही मचाकर निकल जाते हैं। पीछे छोड़ जाते हैं कुचले हुए कराहते इंसान और बरबाद फसल। आए दिन का आलम बन गया है। 1988 के सितम्बर महीने में शुरू हुआ जंगली हाथियों के आतंक का सिलसिला बीस साल बाद भी लगातार जारी है। जशपुर के जंगलों से होता हुआ जंगली हाथियों का दल पहली बार कुसमी इलाके में पहुंचा था। धीरे-धीरे इसने अपने आतंक क्षेत्र का विस्तार कर लिया। अविभाजित मध्यप्रदेश के सरगुजा एवं रायगढ़ को आतंकित करने वाला जंगली हाथियों का दल उत्तर छत्तीसगढ़ के पांच जिलों सरगुजा, कोरिया, जशपुर, कोरबा एवं रायगढ़ में अपने आतंक क्षेत्र का विस्तार कर कारण का पर्याय बन चुका है। सरगुजा की एक बड़ी आबादी के लिए ये काल बन गये हैं। बीस साल पहले शुरू हुआ हाथियों का आतंकी खेल बदस्तूर जारी है। आगमन के शुरूआती दौर में कौतूहल के केन्द्र इन हाथियों से पीछे छुड़ाने का कोई मार्ग नजर नहीं आ रहा है। कौतूहल बनकर आए ये मेहमान तबाही का मंजर बन गये हैं। इन बीस वर्षों में हाथियों ने सैकड़ों जानें लेकर हजारों घरों को तबाह किया है। करोड़ों रूपये की फसल बरबाद किया है। जिले का वन विभाग हाथियों की समस्या से निजात दिलाने लगतातार दो दशकों से प्रयोग करते रहा है। हाथियों की पहली खेप कुसमी क्षेत्र को हलाकान करने के बाद बरसात में अपने स्थाई ठिकाने लौट गये थे। दूसरे वर्ष हाथियों ने कुसमी के साथ-साथ राजपुर एवं धौरपुर, लुण्ड्रा क्षेत्र में अपने आतंक का विस्तार किया। साल-दर-साल इनकी आवा-जाही जारी रही। आतंक क्षेत्र का विस्तार होते रहा। आज इन हाथियों से तकरीबन पूरा जिला ही नहीं पूरा संभाग आतंकित है। मानवीय छेड़छाड़ और धान, महुआ शराब के प्रति इनकी रूचि इतनी बढ़ गई है कि पिछले महीने हाथियों का एक दल जिला मुख्यालय के मायापुर मुहल्ले में अपनी उपस्थिति बताकर शहरी लोगों को भी सावधान रहने चेतावनी दे डाला है। पहली बार 18 हाथियों के दल ने यहां के लोगों को अपनी दबिश का शिकार बनाया था। ग्रामीणों के घरौंदे उजाड़ना और खड़ी फसल को रौंद डालना इनका शगल था। गलती से भी कोई व्यक्ति इनके सामने पड़ा उसकी मौत तय है। हाथियों के दल तो बदलते गये, लेकिन इनका शगल नहीं बदला। दिन में आबादी से अलग जंगल-पहाड़ के बीच अठखेलियां और आराम। शाम ढलते ही बस्ती में उतर कर घरों को तोड़ना और उसमें रखे धान, महुआ को खा जाना। धान इन्हें ज्यादा पसंद है। धान में भी सुगंधित धान विशेषकर जीराफूल खास पसंद है। गांव की लूट एवं तबाही के बाद धान के खेत खाना, उखाड़ना, रौंदना इनका दूसरा शगल बन गया है। यही कारण है कि हाथियों का दल हर साल धान के पकने के पहले यहां हाजिर हो जाता है। 1989 में तत्कालीन राज्य सरकार की पहल पर केन्द्र के वन महानिरीक्षक और बंगाल, अविभाजित बिहार, तमिलनाडू एवं अविभाजित मध्यप्रदेश के वन अधिकारियों ने विचार-विमर्श कर प्रशिक्षित हाथियों के सहयोग से इन्हें इनके रास्ते वापस करने की योजना बनाई। तब तक एक साल में हाथियों ने चालीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। उस दौरान सरकार ने दस लाख के मुआवजा भुगतान किया था। इस दौरान हाथियों से तबाह लोगों को मुआवजा देने लम्बी प्रक्रियाओं से गुजरना होता था। जनवरी 1990 में तत्कालीन मुख्य वन संरक्षक पी.एन. लाड, कर्नाटक ने हाथी विशेषज्ञ प्रभाकरन के साथ हाथियों से प्रभावित इलाके का दौरा कर इन हाथियों को प्रशिक्षित हाथियों के सहारे एक सीमांकित वनखण्ड में घेरने की योजना बनाया। पन्ना बांधवगढ़ एवं कान्हा नेशनल पार्क से प्रशिक्षित तीन हाथी बुलाकर जंगली हाथियों को कुसमी एवं सन्ना वनपरिक्षेत्र के 75 वर्ग किलोमीटर में इन्सीलेटर की सहायता से तीन एवं छह फीट की ऊंचाई पर जीआई तार की फेंसिग के भीतर घेरने की तैयारी की गई। एनरजाइजर के माध्यम से तार में आठ हजार बोल्ट का विद्युत करंट प्रति एक सेकेण्ड के अंतराल में किया गया। इस उक्ति से कई हाथी तो जंगल के दायरे में रूके रहे, लेकिन एक दंतैल हाथी ऊपर के तार को दांत से उठाकर नीचे के तार से नाखून से दबाकर बाहर निकल जाता था। बाद में प्रशासन की यह उक्ति भी फेल हो गई और दंतैल के सहयोग से सारे हाथी अपने मार्ग पर वापस हो गये। हाथियों का दल नियमित रूप से आने लगा और अपने कैम्प की अवधि के साथ-साथ तबाहियों का सिलसिला भी बढ़ाते गया। ग्रामीणों के विरोध के आगे प्रशासन ने फिर से एक बार हाथियों को पकड़ने योजना बनाई। प्रदेश स्तर पर कर्नाटक के एक विशेषज्ञ टीम को इस कार्य का जिम्मा सौंपा गया। शहर के निकट रायगढ़ मार्ग पर लालमाटी के जंगलों में छिपकर गांवों में लूटपाट एवं बरबादी की कहानी लिखने वाले हाथियों को पकड़ने लालमाटी में बेस कैम्प बनाकर पकड़ने का सिलसिला शुरू हुआ। कर्नाटक की इस टीम में दो पशु चिकित्सक, एक एसीएफ एवं 6 प्रशिक्षित हाथी एवं महावत थे। टीम का विशेषज्ञ हाथियों की स्थिति एवं दूरी बताता। इस आधार पर एक निश्चित दूरी से औषधीय प्रभाव वाले टें्रकुलाजर गन के सहारे एक जंगली हाथी पर शूट की जाती। इंजेक्शन लगते ही हाथी चिंघाड़ता और बेहोश होने लगता। बेहोश हाथी को प्रशिक्षित हाथियों को दोनों ओर सहारा देकर बंधन के साथ बेस कैम्प में लगाया जाता था, फिर उपचार कर इस बेहोश हाथी को ठीक कर दिया जाता। यह हाथी तब तक जंजीरों में जकड़ दिया जाता था। बेहोशी के दौरान हाथी को प्रशिक्षित हाथियों द्वारा पानी से लगातार नहलाया जाता था, ताकि उसके शरीर का तापमान संतुलित रहे। इस दौरान इस टीम ने उस साल आए 13 हाथियों को यहां तथा 4 को जशपुर के जंगल में जंजीरों से जकड़ दिया। मौत का खौफ दिखाने वाले इन हाथियों का पकड़ाना और जंजीरों में जकड़ जाना लोगों के कौतूहल का कारण बना रहा। वहां इस चमत्कार को देखने भीड़ लगी रही। 2003 में ही हाथी विशेषज्ञ पार्वती बरूआ के नेतृत्व में जशपुर में हाथियों को पकड़ने का प्रयोग किया जा चुका था, जिसमें एक हाथी पकड़ा गया और अठारह दिनों में ही मर गया। हाथी के मरने पर प्रदेश सरकार ने पार्वती बरूआ के साथ अपने अनुबंध को समाप्त कर उन्हें वापस भेज दिया। इन प्रयोगों के बाद भी हाथियों के दल पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। तेज स्मरण शक्ति एवं बेहद बुद्धिमान इस परिवार के दूसरे सदस्य आते रहे और अपने अतिक्रमण क्षेत्र का विस्तार करते रहे। आने वाली टीमें बदल जाती हैं या फिर उसमें दूसरे सदस्य शामिल होते जाते हैं। आज 122 हाथियों का दल पांच दलों में बंटकर इन प्रभावित जिलों में लूटपाट एवं आतंक पैदा कर रहा है। इनमें से लगभग पचास हाथियों के तीन दल जिले में भ्रमण कर सरगुजा जिले को अपने प्रभाव क्षेत्र में कैदकर रखे हैं। पिछले चार सालों में हाथियों ने 47 लोगों को कुचल डाला है। सामान्य धारणा है कि जंगल का बेतहाशा सफाया जीव-जंतुओं को विचलित कर रहा है। ये जंगली हाथी झारखड के सिंहभूमि और लातेहार जिला के बेतला नेशनल पार्क और उड़ीसा में झारसुगुड़ा से होते हुए जशपुर या सरगुजा में प्रवेश करते हैं। बेतला राष्ट्रीय उद्यान चोरी-छिपे जंगलों की बेतहाशा कटाई एवं खदानों के विस्तार से अब सिर्फ नाम का उद्यान रह गया है। हाथियों का प्राकृतिक आवास और उदरपूर्ति का क्षेत्र लगभग समाप्ति की ओर है इसलिए हाथी सरगुजा में घुस रहे हैं। सिंहभूमि के हाथी भी इन्हीं कारणों से झारसुगुड़ा होकर यहां अपना रहवासी क्षेत्र खोजने आ रहे हैं। स्थानीय जंगलों में इन हाथियों को कुछ सुकून मिल रहा है इसलिए यहां ये बार-बार दस्तक दे रहे हैं। जिले में अवैध कटाई, बस्तियों का अतिक्रमण एवं वनभूमि अधिकार पत्र पाने की होड़ में जंगल रातों-रात साफ हो रहे हैं। इन्हीं कारणों से हाथियों का दल अब मानवीय बस्तियों से भी गुरेच नहीं कर पा रहा है। आसानी से उपलब्ध भोजन का अनाज और फसल तथा मदमस्त कर देने वाला महुए के अम्यस्त हो गये हैं। इतना सबकुछ होने के बाद भी राज्य एवं केन्द्र की सरकारें समस्या को नजर अंदाज कर रही हैं। आज तक इस समस्या के स्थाई समाधान के विषय में सोचा ही नहीं गया। इतनी जानें चली जाने की घटना को एक सामान्य दुर्घटना मानकर जनप्रतिनिधि सिर्फ मुआवजा देने की बात कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। हालांकि सेमरसोत, तैमोर पिंगला एवं बादलखोल अभ्यारण्यों को एलिफेंन्ट कारीडोर बनाने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजा जा चुका है, किन्तु इतने बड़े मुद्दे के प्रति राज्य एवं केन्द्र सरकार को जिस संवेदनशीलता एवं तत्परता का परिचय देना चाहिए वह कहीं दिखाई नहीं दे रही। इस समस्या का स्थाई समाधान तत्काल किया जाना चाहिए, जिसमें हाथियों एवं बस्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो। हाथियों ने जीता आस्कर पुरस्कार अपने स्थाई रहवास क्षेत्र के साथ गंभीर छेड़छाड़ के बाद जिले में आकर आतंक मचाने वाले हाथी भले ही कई परिवारों को बरबाद करने का बदनुमा टीका अपने सर लिखवाए हों, लेकिन इन्हीं हाथियों की बदौलत न्यूनतम खर्च एवं समय में बनी एक फिल्म को विश्व का सर्वश्रेष्ठ आस्कर पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1993 में लालमाटी के जंगलों में जब इन जंगली हाथियों को पकड़ा जा रहा था, तब माइक पाण्डेय अपने कंधे पर वीडियो कैमरा टांगे अपने दो महिला सहयोगियों के साथ इस दृश्य का फिल्मांकन कर रहे थे। द लास्ट माइग्रेशन नाम से बनी इस फिल्म को अभूतपूर्व सफलता मिली। शुरूआती दौर में विश्व के 28 देशों में इसे प्रदर्शित किया गया। हर देश में सराही गई इस फिल्म को बाद में 56 देशों में प्रदर्शित किया गया। इस फिल्म को 7 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ-साथ अनेक देशी पुरस्कार प्राप्त हुए। इस फिल्म के बाद माइक पाण्डेय अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पर्यावरण विशेषज्ञ के रूप में स्थापित हो गये हैं और इस दिशा में अनेक महत्वपूर्ण काम कर चुके हैं। इस दिशा में उनका प्रयास आज भी जारी है। सरगुजा के अमलेन्दु मिश्र ने एक चिंतन के साथ इस फिल्म के फिल्मांकन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस फिल्मांकन के बाद श्री मिश्र भी पर्यावरण, वन्य जीवों के अध्ययन एवं फिल्मकार के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं। श्री मिश्र का स्थान विश्व के चार प्रमुख वन्य जीव फिल्मकारों में भी माना जाता है। वर्ष 2004 में अमलेन्दु मिश्र एवं माइक पाण्डेय ने एक बार फिर मिलकर जशपुर में विलुप्त होते महाकाय पर वैनेशिंग जाइन्टस नाम से दूसरी फिल्म बनाई, जिसे दूसरा आस्कर पुरस्कार प्राप्त हुआ। अमलेन्दु मिश्र द्वारा इस फिल्म के फिल्मांकन से ज्यूरी के सदस्य अत्यधिक प्रभावित हुए।हाथियों की जीवनचर्याइन जंगली हाथियों की जीवनचर्या से जुड़ी अनेक बातें काफी रूचिकर हैं। हाथियों का परिवार मातृ प्रधान होता है। इनका समूह रक्षक युवा बलशाली हाथी होता है, जबकि आदेश हथिनी का चलता है। हथिनी समूह रक्षक का चयन करती है। समूह रक्षक बनने प्राय: लड़ाई होती रहती है। हमेशा समूह रक्षण बलशाली के ही हाथ में होता है। समूह रक्षक रात के अंधेरे में अकेले निकलकर भोजन, पानी एवं पड़ाव की खोजकर विशेष अल्ट्रासोनिक वायस से दल को सूचना देता है या जाकर दल को साथ लाता है।हथिनी का गर्भकाल 22 से 26 माह का होता है। हथिनी किसी जल स्त्रोत के निकट ही बच्चे को जन्म देती है। प्रसव के दर्द के दौरान वह चिंघाड़ती है और दल की दूसरी हथिनी जलस्त्रोत से सूंढ़ में पानी भरकर उसे बच्चा होने तक नहलाते रहती हैं। प्रसव होने पर थैली में लिपटे फुटबाल की शक्ल के शावक को पहले फुटबाल की तरह लुढ़काती हैं, जिससे ऊपर की झिल्ली फट जाती है। झिल्ली साफ करने के बाद बच्चे को सूंढ़ के पानी से नहलाकर सूंढ़ पर उठाकर बच्चे को जंगल में ले जाते हैं। बच्चे को हाथियों का दल हमेशा सुरक्षा घेरे में रखता है। हाथियों का वजन पांच से सात टन का होता है और उम्र औसत डेढ़ सौ साल की। चौबीस घंटे में वह तीन-चार घंटे ही सोता है, जबकि जगे रहने पर वह पूरे समय तक खाते रह सकता है। चौबीस घंटे में मौसम के अनुसार एक या दो बार पानी पीता है तथा सामान्य तौर पर 10 से 15 गैलन पानी पी जाता है। एक वयस्क हाथी तीन-चार क्विंटल चारा लेता है। गर्मी लगने पर वह सूंढ़ के सहारे पेट के भीतर का पानी खींचकर शरीर पर छींटता है। हाथी एक विशेष प्रकार का अल्ट्रासोनिक वायस निकालकर दल के दूसरे साथियों को दिशा एवं दूरी सहित संभावित खतरे की जानकारी देता है। हाथियों में बला की एकजुटता होती है। आज भी कायम है आखेट परम्परासरगुजा के जंगलों में वन्य जीवनों की समृद्ध परम्परा रही है। अलौकिक सुन्दरता को अपनी ओट में समेटे अंचल के वनखण्ड जल के प्राकृतिक श्रोत, पहाड़ और उनके बीच जंगल की समृद्ध परम्परा आज भी बरबस किसी को भी आर्पित कर लेती है। इस घनघोर जंगलों में रियासती काल में राजा-महाराज और अंग्रेज अधिकारी तो शिकार खेलते ही थे, आजादी के बाद एवं राजनेताओं अविभाजित मध्यप्रदेश के कई अधिकारियों को खुश करने यहां शिकार पर आमंत्रित किया जाता था। नगर सहित जिले के अभिजात्य वर्ग के कुछ लोग आज भी शिकार पर निकलते हैं। शिकार खेलना इनका शगल है। यही कारण है कि आजादी के बाद तक जंगलों में बरबस दिख जाने वाले शेर, चीते, हिरण, मृग और कोटरा यहां से गुम हो गये हैं। अब जंगली सूअरों की संख्या भी तेजी से घटते जा रही है। गन्ने के दीवाने जंगली सूअर अब शिकारियों के शौक का कोपभाजन बनते जा रहे हैं। सरगुजा रियासत के तत्कालीन शासक महाराज रामानुज शरण सिंहदेव एक चर्चित विश्वस्तरीय शिकारी थे। वे न केवल मध्य प्रान्त और पूरे देश के जंगलों में अपितु अफ्रीका के जंगलों तक शिकार खेल चुके थे। उन्होंने ग्यारह सौ से अधिक शेरों का शिकार करने का विश्व रिकार्ड कायम किया है। शिकारियों के शगल से समाप्त वन जीवों की पूर्ति तो अब नहीं हो सकती, लेकिन अब भी बची धरोहर को बचाने ईमानदार प्रयास की जरूरत है। जिले के जंगलों से भालू एवं बंदरों की जनसंख्या पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ृा है। इसका प्रमुख कारण यह हो सकता है कि भालू एवं बंदर का मांस नहीं खाया जाता इसलिए इनके शिकार के प्रति लोगों की रूचि नहीं है। खाल या नाखून के शौकिनों द्वारा कभी कभार भालू मारने या भालू के आतंक से प्रभावितों द्वारा जहर देकर भालू मारने की शिकायतें मिलती रही है। बेघर हाथियों का घर बना सरगुजायह जानकर लोगों को आश्चर्य हो सकता है कि कभी सरगुजा के घनघोर जंगल हाथियों के लिए महफूज हुआ करते थे और यहां भारी तादाद में हाथी रहते थे। मुगल सल्त्नत के सुल्तान अपने जरूरतों के लिए हाथी सरगुजा से भी प्राप्त करते थे। कहते हैं कि नगर के श्रीगढ़ में सरगुजा रियासत के शासक हाथियों को रखते थे। यहां प्रशिक्षित महावतों की समृद्ध परम्परा रही है। कई महावत हाथियों के साथ दूसरे क्षेत्रों में भेजे गये या चले गये। आज भी महामाया मंदिर के निकट इस परम्परा के साक्षी कई परिवार निवासरत हैं। सन् 1440 में मालवा का सुल्तान महमूद खिल्जी हाथियों की खोज में सरगुजा की ओर निकला। वह रास्ता भटककर बांधोगढ़ पहुंच गया। बांधोगढ़ में उसकी भेंट ऐसे लोगों से हो गई जो सरगुजा से हाथी लेकर आये थे और महोरा जा रहे थे। उन दिनों बाधोगढ़ के हाट में हाथी बिका करते थे। सुल्तान ने हाथियों की खोज में अपने एक सिपहसलार को सरगुजा भेजा और आसपास के कई स्थानीय सामंतों से सम्पर्क साधा। उसने शादियावाद मांडू लौटने से पहले सरगुजा से पथस हाथी प्राप्त कर लिए। तत्कालीन सरगुजा रियासत ने प्रतिवर्ष उसे दस हाथी नजराने में भेजने वचन दिया। मध्यकालीन युव की लड़ाईयों में हाथियों को शक्ति के एक अति महत्चपूर्ण प्रतीक के रूप में देखा जाता था। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक घनघोर जंगल के रूप में पहचाने जाने वाले सरगुजा के जंगल आबादी के बढ़ते घनत्व एवं सरकारी नीतियों के कारण सिमटते गये। हाथी तो पहले ही यहां से भाग निकले थे या भगा दिए गये थे। कहते हैं कि हाथियों की स्मरण शक्ति बहुत तेज होती है। यही कारण है कि वे अपना रास्ता नहीं भूलते और अपने पुरखों के समृद्ध वन साम्राज्य को तहस-नहस करने वालों की खबर लेने साल-दर-साल लगातार दस्तक दे रहे हैं।
जंगली हाथियों की तबाही से डरे-सहमे लोग अपनी जान बचाने रतजगा कर रहे हैं। गांव के स्कूल भवन एवं पंचायत भवन में अपनी रातें गुजार रहे हैं। एक तरफ हड्डियां कंपा देने वाली ठंड दूसरी तरफ मौत का खौफ देखते ग्रामीण अपने बच्चों को बचाने बेबस नजरों से रहनुमाओं की खोजकर रहे हैं। गाड़ियों से उतरकर तबाहियों के आकलन के लिए आने वाले अधिकारियों की तरफ ये बेबस इंसान रोज नई आशाओं का भ्रम पाल कर रातें गुजार रहे हैं। अधिकारी उन्हें हाथियों से दूर रहने का पुराना जुमला पढ़ाकर विदा हो लेते हैं। इतनी बड़ी समस्या में रातें गुजारने वालों की तस्वीर शायद हमारी सरकार या राजनेताओं तक नहीं पहुंच सकी है या पहुंची है तो राजनेता और सरकार इस मामले के प्रति गंभीर नहीं हो रहे हैं। बरवादियों से उजड़े परिवार को मुआवजा का मसाला चटाकर यथा स्थिति में सब के जीने का अधिकार कायम रहे इस सोच से अलग कुछ नहीं हो सका है। स्थिति को देखकर लगता है कि समस्या के निराकरण में बरबादियों के बदले मुआवजा देने से अधिक कुछ भी नहीं हो सकता। दो दशकों से बरबादी की कहानी से साक्षी इस जिले के ग्रामीणों की चिंता इसके जनप्रतिनिधियों से लेकर राज्य सरकार तक को नहीं है अन्यथा कोई तो पूछ-परख करता। मुआवजा देने से अलग स्थाई हल की बात सुझाता। आश्चर्यजनक है कि राज्य की विधानसभा में जनप्रतिनिधियों ने अपने प्रश्नों में प्रभावित के मुआवजे से अलग इस सम्बन्ध में कुछ विशेष नहीं जानना चाहा है। उन्होंने अपने क्षेत्र में मुआवजा वितरण की बात को प्रमुखता से उठाया है। ग्लोबल टाइगर फोरम के महासचिव एवं हाथी परियोजना के पूर्व निदेशक एस.सी.डे के अनुसार 1989 में वन्य जीव संस्थान देहरादूर में आयोजित सेमिनार में यह जानकारी दी गई थी। सिंहभूमि के वेतला राष्ट्रीय उद्यान से जंगली हाथी विस्थापित होकर पश्चिम बंगाल के मिदानापुर एवं सरगुजा जंगलों में आए थे। श्री डे ने बताया कि उनके अध्ययन में सत्तर साल के अंतराल में हाथी नहीं आए हैं। अस्सी के दशक में पहली बार हाथी पहली बार सरगुजा आए। उनकी नजर में इस समस्या का हल आवश्यक है जो दृढ्ता से लेना होगा। इस हल में जनता, जनप्रतिनिधि, सरकार की सहमति से ही हल निकाला जा सकता है जो अत्यंत मालूम पड़ता है। क्षेत्र के किसी बड़े सुरक्षित वनखण्ड में हाथियों के बड़े दल को रखने की योजना बनाई जा सकती है। छोटे दलों में बंटे हाथियों को खदेड़कर या फिर पकड़कर इस समस्या का हल ढूंढा जा सकता है। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नजर नहीं आता। हाथियों को पकड़ने के लिए कर्नाटक सरकार से ही मदद मिल सकेगी क्योंकि कर्नाटक में ही हाथियों के विशेषज्ञ हैं। कनार्टक सरकार से हाथियों को पकड़ने विशेषज्ञों की मांग प्रदेश एवं केन्द्र सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति पर ही निर्भर करेगा। हाथियों के पकड़ने पर अत्यधिक व्यय आने की सम्भावना है। उन्होंने बताया कि 1993 में एक हाथी को पकड़ने में 85 से 90 हजार रूपये का खर्च आया था, जो आज की स्थिति में पांच से छह लाख रूपये हो सकती है वह भी तब जब कर्नाटक से विशेषज्ञ उपलब्ध हो जाएं।हाथियों का उपयोगराजघरानों के ध्वस्त होने के बाद हाथी पालने का शौक जमींदारों ने पाल लिया। हाथी से उनके समृद्धि की पहचान उनके इलाके में होती थी, लेकिन आज हाथियों के ऊपर बढ़ते खर्च के आगे सबने हाथ उठा लिए। नये दौर में यह न तो शौक का सवारी रहा न समृद्धि की पहचान। नये दौर में हाथी-हाथी पालने का जुमलाभर रह गया है। आज हाथियों का उपयोग पर्यटन, अभ्यारण्यों की चौकसी एवं लकड़ी से जुड़े कारोबार में ही किया जा सकता है। देश में आज इनकी संख्या 28 से 30 हजार है, जबकि 1980 में इनकी जनसंख्या 12 हजार थी। सोनपुर मेले में 1965 में 5 हजार में बिनके वाले हाथी की कीमत बढ़कर आज पांच से छह लाख हो गई है। सिंहभूम में अभ्यारण्य के किनारे खुले खदानों से निकलने वाले पानी के जहरीले प्रभाव से हाथियों के बच्चे मरने लगे। इससे हाथियों ने अपने लिए सुरक्षित स्थान की खोज में अन्यत्र पलायन किया। पलायन स्थलों में वे अपने को सुरक्षित महसूस करने लगे। यही कारण है कि यह स्थान उका स्थाई निवास बनने लगा।
सरगुजा नामकरण में हाथियों का हाथ सरगुजा के नामकरण के पीछे हाथियों का बहुत बड़ा हाथ है। इससे ऐसा भान होता है कि सरगुजा में भारी तादाद में हाथियों की उपस्थिति रही होगी। सरगुजा शब्द सुरगज, सरगजा या स्वर गजा का विकृत रूप हो सकता है। सुरगज- जहां इन्द्रदेव के हाथी ऐरावत जैसे हाथी पाए जाते हों। सरगजा- जहां हाथियों के विशालकाय सिर ही सिर दिखते हों। स्वरगजा- जहां हाथियों का स्वर चिंघाड़ गुजता रहता हो। इस प्रकार सरगुजा नाम की व्युत्पत्ति इन शब्दों से विकृत होकर हो सकती है। ऐसी किंवदली है कि सरगुजा के जंगलों में कभी विशालकाय हाथी होते थे, जो देवराज इन्द्र के हाथी ऐरावत के सदृश्य विशाल ललाट पर सफेद चिन्ह लिए पैदा होते थे। जिले के ऐतिहासिक स्थल जिले के रामगढ़ का सम्बन्ध कालीदास के मेघदूत के नायक यक्ष से जोड़ा जाता है। इंद्र के हाथी ऐरावत ने कुबेर का बाग उजाड़ दिया था और बाग के रक्षक यक्ष को इस दण्ड स्वरूप अकेले रामगढ़ में प्रवास करना पड़ा।