मंगलवार, 24 मार्च 2009

टीआरपी न बढे तो यह खेल भी काम लायक है

ये क्या हो रहा है, बहस जारी रखूंगा, यह लखनऊ की सभ्यता नहीं है, जनता से बात करने फिर आऊंगा, इसके लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाये, तय नहीं कर पा रहा हूं, इस चैनल की ओर से माफी मांगता हूं । यह सब लखनऊ में स्टार न्यूज द्वारा आयोजित कौन बनेगा प्रधानमंत्री कार्यक्रम के तहत कहिये नेता जी लाईव प्रसारण के दौरान दीपक चौरसिया के जुबान से सुनने को मिला। आखिर ऐसी स्थिति क्यों बन जाती है और अगर ऐसी स्थिति बनने की संभावना रहती है तो कार्यक्रम ही क्यों आयोजित किये जाते हैं। लखनऊ ही नहीं रायपुर में भी विधानसभा चुनाव के दौरान कहिये नेता जी के कार्यक्रम में कुर्सी फेंके गये और जमकर हंगामा हुआ था। मीडिया के कार्यक्रमों में ऐसी स्थिति क्यों बनती है शायद इस पर मीडिया भी विचार नहीं कर रही है, नहीं तो बार-बार ऐसा नहीं होता। लखनऊ में जिस तरीके से यह कार्यक्रम शुरू हुआ और वरूण गांधी को लेकर जैसे ही चर्चा शुरू हुई, परिस्थितियां बदलती हुई दिखाई दी। लोग कुर्सी छोड़ खडे हो गये और हंगामा करते हुये कुर्सियों को फेका गया। यह सब देख रायपुर में जिस तरीके से दीपक चौरसिया जी को अपील करनी पडी थी और जितना मशक्कत यहां करना पड़ा था शायद लखनऊ में नहीं करना पड़ा। दीपक चौरसिया शुरू में यह कहते टीवी पर सुने गये कि ये सब क्या हो रहा है,ये लखनऊ की सभ्यता नहीं है, मैं बहस जारी रखूंगा, जनता से बात करने अप्रैल में फिर आऊंगा,इसके साथ ही ब्रेक शुरू हो जाती है और जब श्री चौरसिया दुबारा लौटते हैं तो कहते है कि इस घटना के लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाये यह तय नहीं कर पा रहे हैं, इस चैनल की ओर से अगर कोई अशलील या सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली कोई बात प्रसारित हुई हो तो माफी मांगता हूं । कार्यक्रम को चैनल ने यही पर स्थगित कर दिया लेकिन यह सब घण्टेभर बाद ही दिखाना शुरू कर दिया गया। सब कुछ देखकर तो यही लगने लगा है कि अब ऐसी घटना भी चैनल की टीआरपी को बढ़ाने के लिए काम करती है और शायद चैनल भी यही चाहता है कि भले ही कुछ भी हो, उसकी टीआरपी बढे। चुनावों के कार्यक्रमों में चैनल द्वारा इस तरह के कार्यक्रम प्रसारित किये जाते है जिसमें पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था भी होती है। लेकिन जिस तरह से कार्यक्रमों में आम मतदाताओं की उपस्थिति बताई जाती है, वैसा दिखाई नहीं देता। कार्यक्रम में नेताओं के समर्थक माौद होते है और जिस नेता का पलढ़ा कार्यक्रम मे दौरान कमजोर दिखाई देता है वे उठ बैठते है, और हंगामा की स्थिति बनाते हैं। पुलिस भी इन पर राजनैतिक संरक्षण के कारण कोई कार्यवाही नहीं कर पाती। यह सब चैनल और कार्यक्रम के एंकर को भी मालूम होता है, उसके बाद भी कार्यक्रम में ऐसे मुददे उठाये जाते है जिससे उग्र होने का बहाना मिल जाता है । लखनऊ में जो कुछ हुआ वह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी। बल्कि ऐसी घटना का प्रत्यक्षदर्शी रहने के बाद टीवी पर देख रहा था। खास बात तो यह है कि मीडिया हमेशा किसी घटना से सीख लेने की बात करती है लेकिन जब ऐसी घटना का दोहराव हो तो मीडिया की बात खुद को संतुष्ट करने के अलावा यादा कुछ प्रतीत नहीं होती। वैसे भी कौन बनेगा प्रधानमंत्री में और नेता जी कहिन कार्यक्रम में ऐसा कुछ आम आदमी को प्राप्त नहीं होता जिससे वह सही नेता का चयन कर सके। ऐसे कार्यक्रमों से सिर्फ टीआरपी बढ़ाया जा सकता है और टीआरपी भी क्यों ने बढे ज़ब लाईव प्रसारण में कुर्सियां फें की जाने लगे और लाठियां चल जाये । यही नहीं एंकर को चींखना और चिल्लाना पडे। वैसे तो आज कल हर चैनल पर एंकर चिखते ही रहते है लेकिन उससे भी टीआरपी न बढे तो यह खेल भी काम लायक है । प्रस्तुतकर्ता दिलीप् जाय‌स‌वाल‌

कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के इलेक्ट्रानिक मीडिया अध्ययन विभाग के छात्र-छात्राओं ने दूरदर्शन केन्द एवं आकाशवाणी का भ्रमण किया।

रविवार, 22 मार्च 2009

जब मदहोशी के बाद आई होश


रायपुर की भागदौड़ की जिन्दगी, कू दता- फंादता इंसान। किसी को किसी से दो पल बात करने की फुर्सत तक नहीं। ऐसे में मुझे उस वक्त काफी सुकून मिला जब टे्रन से अंबिकापुर के लिए निकला। यूं तो अंबिकापुर शहर को मै तब से जान रहा हूं, जब से होश संभाला है। लेकिन अंबिकापुर से गांव जाने के लिए ट्रेन से उतरने के बाद ही योजना बना ली। मोटरसायकल से निकल पड़ा गांव और जंगल क ी दुनिया में। महुआ चुनती महिलाएं और महुआ की सोधीं खुशबू, साल के घने जंगल और फूलों से लदे साल के पेड़, पलाश की सुर्ख लाल फूलों से मदहोश हुआ जा रहा था। यहीं नहीं गुलाबी ठंडी हवा मन में उत्साह का संचार कर रही थी तो कोयल की सुमधुर तान का हो गया था दिवाना। जंगल रास्ते के इस छोटे से सफर में अकेला होने का एहसास तो हुआ ही नहीं। यहां तो यह भी भुल गया कि पूरी रात ट्रेन की सफर में थका भी था।
जंगल का रास्ता खत्म हो रहा था। ऐसे में एक पेड़ के नीचे लेट जाने की इच्छा को नहीं टाल सका। जैसे लेटा जंगल के कोने से धुंआ उठती हुई देख अचानक उठ बैठा। पता चला कि जंगल में आग पिछले कई दिनों से लगी हुई है। इस ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है। गांव पहुंचा तो लोगों ने बताया कि जंगल में आग तो लगी ही है। पेड़ों की कटाई भी बेखौफ चल रही है। वे इसकी शिकायत भी विभाग के अधिकारियों से करते हैं, लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मेरे मुंह से जंगल की तारीफ सुनकर गांव के एक वृध्द से रहा नहीं गया, वह कहने लगा तुमन जंगल ला देख के खुश होवत हा, येही हाल रही तो दोई- तीन साल मा ये गांव ले आने गांव ह आर पार दिखी। वृध्द की बात सुनकर मंथन में डूब गया। वृध्द की यह चिन्ता भले ही सामान्य हो लेकिन उसके चेहरे और ऑंखों में जंगल के प्रति जो श्रध्दा देखी वह काफी सुखद थी। मन में यह भी विचार आने लगा कि काश ऐसी सोच हमारी युवा पीढ़ी में भी होती। यह इसलिए भी क्योंकि जवान और विशालकाय पेड़ों को वृध्द हाथ नहीं काटते, बल्कि पेड़ों की गर्दन पर युवाओं का कुल्हाडी चलता है।
शहरी चकाचौंध के बीच लोगों को फूर्सत के क्षण में पार्क का ख्याल आता है। सिर्फ इस लिए क्योंकि प्रकृति की छांव उनसे दूर हो चूकी है। कभी गांवों में रहने वाले लोगों को भी प्रकृति की छांव की तलाश न करनी पडे, यह चिन्ता भी मेरे जेहन में है। जब सरगुजा के प्रेमनगर क्षेत्र में इफको पॉवर प्लांट की स्थापना पर लाखों की संख्या में होने वाले पेडाें की कटाई के विरोध में सैकड़ो ग्रामीणों ने सिर मूड़ाया था और महिलाओं ने पेड़ों पर राखियां बांधी थी। शायद ही कहीं ऐसा पेडाें के प्रति लोगों का प्यार दिखा हो। ऐसा प्यार लोगों में पेडाें के प्रति स्थाई तौर पर आखिर क्यों नहीं दिखता।
आदिवासी समाज पेड़ों की पूजा करता है। आदिवासियों की संख्या भी सर्वाधिक है, इसके बाद भी जंगल असुरक्षित हो गये हैं। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज यह सब भूल गया है लेकिन उसे पेट की फिक्र करनी पड़ती है और ऐसे में वह अपनी संस्कृति को नजर अंदाज करने मजबूर हो गया है। बात तो जंगल की सुनहरी वादियों से शुरू हुई थी, परंतु जंगल में धधकती आग ने रास्ता ऐसा मोड़ा कि यह कलम भी उसी रास्ते पर निकल चला। बस अब तो यही लगता है कि जंगल को देखकर खुश होना लाजमी है पर इसी से काम नहीं चलने वाला उसक ी सुरक्षा भी हमारी हाथों पर है।

शनिवार, 7 मार्च 2009

होश में आ जाओ छत्तीसगढ़िया, वक्त काफी कम है

छत्तीसगढ़ की संस्कृति खतरे की दौर से गुजर रही है। छत्तीसगढ़ के मूलनिवासियों का जड़ भी कमजोर होता दिखाई दे रहा है। मध्यप्रदेश से विभाजित होकर छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से स्थिति और भी खतरनाक हुई है। छत्तीसगढ़ियों को सामाजिक ,आर्थिक तथा राजनैतिक रूप से कमजोर किया जा रहा है। राज्य के ऐसे कई क्षेत्र है जहां मूल निवासियों की संख्या पचास प्रतिशत से भी कम होती दिख रही है। रायपुर, बिलासपुर , अंबिकापुर तथा दुर्ग शहर में हालत काफी खराब हो चुकी है। इन शहरों में छत्तीसगढियों का वर्चस्व खत्म हो गया है। यहां का मूल निवासी इन शहरों में रहने वाले लोगों के घर का नौकर मात्र बनकर रह गया है। बेटी-बहू भी इनके घरों की नौकरानी बनकर रह गई है। छत्तीसगढ़ियों के विकास को लेकर जब कोई क्षेत्रीय राजनैतिक दल सामने आता है तो उसे समर्थन नहीं मिल पाता। उसे क्षेत्रवाद बढ़ाने का हवा दिया जाता है। हालांकि ऐसा हवा देने वाले भी यहां के मूल निवासी नहीं हैं। दुर्भाग्य की बात है कि इसके बाद भी हम उसी हवा में बहे जा रहे हैं। एक बात यह भी है कि इन दलों का नेतृत्व करने वाले भी लोगों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाते और न ही इनके पास इतना धन है कि आर्थिक बदहाली और भुखमरी से जुझ रहे मूल निवासियों कॆ लियॆ चुनाव में खर्च किया जा सके। इस पर गंभीरता से मनथन करने की जरूरत है।
यह कहना लाजमी होगा कि राज्य बनने के बाद जो राजनैतिक परिदृश्य बना, वह किसी भी सूरत में छत्तीसगढ़ियों के हित में नहीं था। कांग्रेस की सत्ता के बाद भाजपा की सरकार आई इन दलों का नेतृत्व भी ऐसे हाथों में है जिन्हें छत्तीसगढ़ की अस्मिता की कोई चिंता नहीं है। आका जैसा कहते हैं और उनकी जैसी रणनीति बनती है, सरकार भी उसी रास्ते चलती है। भले ही सरकार मॆ छत्तीसगढ़ी मत्री हैं लेकिन वे भी छत्तीसगढ़ की अस्मिता पर आवाज नहीं उठा पाते । आवाज उठाते भी हैं तो पार्टी के अनुशासन का डर दिखाकर उन्हें चुप करा दिया जाता है। इसे आखिर कैसे भुला सकता है कि जब भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे चन्द्रशेखर साहू को छत्तीसगढ़ स्वाभिमान रैली निकालने के बाद पार्टी से बेदखल कर दिया । अब तो इसके बाद से कोई भी मुंह खोलने तक की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। नेता मंत्री इस मामले में रबड़ स्टाम्प से ज्यादा कुछ भी नहीं रह गये हैं। सवाल छत्तीसगढ़ियों की अस्मिता का है तो यह भी बात सामने आती है कि सिर्फ राजनैतिक रोटी सेकने के लिए आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा।
छत्तीसगढ़ को देश का सबसे विकसित राज्य बनाने का सपना भले ही दिखाया जाता हो, सड़कों चमकाने की बात की जाती हो लेकिन यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या इन चमचमाती सड़कों पर छत्तीसगढ़िया भीख मांगेंगे? छत्तीसगढ़ियों की उपेक्षा इस कतर हो रही है कि उद्योगों में ठीक से चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल पा रही है। उद्योगों की स्थापना से पूर्वजों की जमीन गंवा चुके छत्तीसगढ़ियों को हमाल का काम करना पड़ रहा है और उसकी धरती में कोई दूसरा राज् कर रहा है। क्या राज्य का यही औद्योगिक विकास है? क्या छत्तीसगढ़ियों का विकास मुफ्त के चावल और नमक से ही हो पायेगा। राज्य के विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों तथा दूसरे शैक्षणिक संस्थानों में कितने छत्तीसगढ़िया छात्र पढ़ रहे हैं, कितनों को नौकरी मिल रही है? इधर नजर घुमाकर क्यों नहीं देखा जाता। सबसे बदहाल हालत आदिवासियों की है। जिन्हें सिर्फ सत्ता पाने का हथियार बनाकर रख लिया गया है। ऐसा नहीं है तो आदिवासियों तथा छत्तीसगढ़ियों के अस्तित्व के प्रति सत्ता प्रतिष्ठान चिंतित क्यों नहीं है । महानगरों में बेची जा रही आदिवासी तथा गरीब लड़कियों के मामलों को अनदेखा क्यों किया जा रहा है? प्रदेश स्तर पर आदिवासी नेता-मंत्रियों की बड़ी मौजूदगी होने के बावजूद भी सरकार इसके खिलाफ सख्त कानून नहीं बना सकी है।
यह भी एक कडवा सच है कि छत्तीसगढ़ में उत्तरप्रदेश तथा बिहार के लोगों की आबादी बढ़ती जा रही है और मूल निवासियों को दरकिनार कर उन्हें राजनैतिक विकास तथा सत्ता की दृष्टि से संरक्षण भी दिया जा रहा है। वहीं मूल निवासियों को छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया का जुमला देकर खुश करने का प्रयास किया जा रहा है। सच तो यह भी है कि मूल निवासी इस षड़यंत्र को सही तरीके से समझ ही नहीं पा रहे हैं। इसके लिए छत्तीसगढ़िया कहलाकर गौरवान्वित महसूस करने वालों को आगे आने की जरूरत है नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब छत्तीसगढ़िया अपनी ही धरती पर गुलामी की जिंदगी जीने मजबूर होगा। यह जरूर है कि आगे आने पर लाठियां भी खानी पड़ सकती है, जेल भी जाना पड़ सकता है लेकिन अब वक्त निकलता जा रहा है। छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान को बचाना है तो इसके लिए पीठ भी मजबूत करना होगा। हालांकि ऐसी स्थिति न बने इसके लिए वैचारिक विकास की जरूरत है, जो सत्ता के हुक्मरान कभी नहीं चाहेंगे।
प्रस्तुर्तकत्ता -दिलीप जायसवाल

मंगलवार, 3 मार्च 2009

काश वह देख पाती कांच के टुकडे से उन चेहरों का सच...

हर रोज उसका कांच के टूकडे से खुद के चेहरे को बार-बार निहारना .... गोद में नवजात शिशु और उसका चुप रहना....। हां मैं एक ऐसे अर्धविक्षिप्त युवती की बात कर रहा हूं जिसका दिमाग सही होता तो शायद उसके गोद में नवजात शिशु नहीं होता। नवजात शिशु हर साल नया होता है, वह भी कुछ महिनों तक ही उसके साथ दिखाई देता है और अचानक सुबह होने के बाद गायब हो जाता है।
राजधानी रायपुर स्थित पुरानी बस्ती के कंकाली मंदिर के पास पिछले चार-पांच सालों से एक युवती अर्धविक्षिप्त होने के कारण पडी रहती है। उसकी उम्र महज 24 साल से अधिक नहीं होगी। उसे दरिंदे अपने हवस को मिटाने के लिये शिकार बनाते रहे हैं लेकिन समाज के ठेकेदारों की जुबान इस पर नहीं खुलती। अब तक वह तीन बच्चों को जन्म दे चुकी है लेकिन ये बच्चे भी उसकी गोद से चोरी हो जाते हैं। मुझे इस युवती के बारे में एक दिन का वह वाक्या याद आ रहा है जिस दिन उसके हाथ में कांच के कई टुकडे और उन टुकड में से एक बडे टुकडे से वह खुद के चेहरे को तो निहार रही थी लेकिन अपसोस उस टुकडे में उसे समाज का असली चेहरा नहीं दिख रहा था। वह समाज के असली चेहरे को भी देखने की शक्ति खो चुकी है। जब इस पर मैं दोस्तों से बात किया तो उनका कहना था कि यह सिर्फ यहां ही नहीं बल्कि उनके शहरों भी दिखाई देता है।
ऐसी घटनायें मीडियां की सुर्खियां नहीं बटोर पाती। वहीं अगर किसी विदेशी महिला के साथ छेड-छाड़ की घटना भी हो जाये तो मीडिया उसे पूरे दिन दौड़ाती रहती है। ऐसी घटनाओं पर बयान बाजी करने वालों की फेहरिस्त भी लंबी होती है। दूर्भाग्य की बात है कि लोगॊ को अब तनिक भी सोचने तक की फूर्सत नहीं है। ऐसे में कभी-कभी सोचने पर विवश हो जाता हूं कि आखिर लोग इतने भी अंधे कैसे हो जाते है कि जिंदा लाश की तरह रहने वाले अर्धविक्षिप्त महिलाओं और युवतियों से अपने हवस का भूख मिटाते है और समाज मौन व्रत में बैठा हुआ है। फिर ऐसा भी लगता है कि समाज से ही तो ऐसे दरिंदे बाहर निकलते हैं।
प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

चैनलों में काम दिलाने के नाम पर छत्तीसगढ़ में फर्जीवाड़ा, मीडिया की साख को धक्का

पूरे देश सहित छत्तीसगढ़ में पिछले कुछ सालों के भीतर टीवी चैनलों की बाढ़ सी आती हुई दिखाई दे रही है। चैनलों द्वारा जहां राज्य की समस्याओं को सामने रखने की बात की जाती है वहीं छत्तीसगढ़ में ऐसे कुछ चैनल भी हैं जिसकी आड़ में चैनल के स्थानीय प्रमुख फर्जीवाड़ा कर रहे हैं । ये युवक युवतियों को पत्रकार बनने का सपना दिखा कर उनका खूब शोषण कर रहे हैं। पत्रकार बनने के लिए उनसे कुछ चैनल के लोग पैसे भी अवैध तरीके से वसूल कर रहे हैं। वहीं छत्तीसगढ में एक चैनल का रहनुमा बनने वाले ने काम करा कर कई रिर्पोटरों को पैसा भी नहीं दिया।
नये राज्य बनने के बाद से राय में मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण हुई है। इसके बाद भी नये टीवी न्यूज चैनल राय में ऐसे लोगों को जिम्मेदारी सौंप रहे हैं जिससे मीडिया कि छवि आम लोगों के सामने ही नहीं बल्कि चैनल में काम करने वाले लोगों के बीच भी खराब हो रही है। अभी एक खबर चर्चे में है कि देहरादून के एक चैनल ने ऐसे व्यक्ति को छत्तीसगढ़ में चैनल का प्रमुख बनाया है जिसे मीडिया का सही तरीके से व्यवहारिक ज्ञान भी नहीं है। वह अब तक कुछ महीनों में ही कई चैनल का ब्यूरो प्रमुख होने का लाबदा ओढ़ चुका है। अब उसके पास से एक चैनल छीन गया है उसके बाद भी उस चैनल के नाम पर कई काम कर रहा है। वर्तमान में जो चैनल उसके पास है, उसमें भी काम करने के लिए रिर्पोटरों तथा दूसरे कर्मियों की भर्ती चैनल की ओर से न करके अपने प्रोडक्शन हाऊस के नाम से किया । इसमें काम कर रहे रिर्पोटरों तथा दूसरे कर्मियों को दो महीने बाद भी वेतन नहीं मिला है। बताया तो यहां तक जाता है कि इसने और भी कई युवकों को रिर्पोटर बनाने के नाम पर उनसे पैसा वसूला और डकार गया। यही नहीं एक और चैनल जिसका नाम बदलने वाला है। वह चैनल जब छत्तीसगढ़ में डेढ़ साल पूर्व आया था, तो उसने भी राज्य के विभिन्न जिलों में रिर्पोटर तथा स्टिंगर बनाने के नाम पर पैसा उगाही की । इसमें एक राजधानी के पत्रकार शामिल थे, जबकि एक उत्तर प्रदेश का रहने वाला व्यक्ति था, जो बाद में चलते बना। दो चैनल ही नहीं बल्कि ऐसे और भी कुछ चैनल हैं जो मीडिया की साख को खराब कर रहे हैं। इन पर स्थानीय पत्रकार संघों का भी कोई नियत्रंण नहीं रह गया है। मीडिया साख तो प्रभावित हो ही रही है इसके अलावा मीडिया में काम करने के लिये पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले छात्रों के बीच भी गलत संदेश जा रहा है। यह तो एक छोटा सा उदाहरण है। चैनल क्या कर रहें हैं और उनमें काम करने वाले लोगों का कितना शोषण हो रहा है इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बताया तो यहां तक जाता है कि कई ऐसे लोग हैं जो चैनल की आड़ में दूसरे गैरकानूनी काम भी कर रहे हैं और पुलिस तथा प्रशासन भी इनके खिलाफ शिकायत के बाद भी कोई कार्रवाई करने से हिचकिचाती है।
ऐसे चैनलों को चाहिये कि वे सिर्फ विज्ञापन तथा समाचारों की शर्तो को पूरा करने वाले लोगों के हाथों एजेंसी की तरह जिम्मेदारी न सौंपे नहीं तो इससे प्रतिष्ठित चैनलों की छवि भी प्रभावित होगी। प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

रविवार, 1 मार्च 2009

आदिवासियों की संस्कृति पर ही मोहित मत होइये जनाब,इधर भी झांककर देख लीजिए...

छत्तीसगढ़ के उत्तर में स्थित सरगुजा जिला के बारे में आपने पहले सुना होगा, यहां की संस्कृति और घने जंगलों के बारे में। चूंकि मैं सरगुजा के ही धंधापुर गांव का रहने वाला हूं और कम से कम सरगुजा के आदिवासियों की दुर्दशा को बचपन से लेकर अब तक देख रहा हूं। आदिवासी जिला मुख्यालय अम्बिकापुर नहीं देख सके हैं। लगभग आठ माह पूर्व जब कुसमी के सामरी पाट से बैकालू नामक एक ग्रामीण अपने साथियों के साथ रोजगार गांरटी का मजदूरी नहीं मिलने पर अम्बिकापुर पहुंचा था तो वह काफी डरा हुआ था। उसके चेहरे में डर देखकर जब मैने पूछा था तो उसने यही कहा था कि वह इससे पहले शहर कभी नहीं आया था। इनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि बस से अम्बिकापुर पहुंचते। दो दर्जन से अधिक की संख्या में मजदूरी के लिए कलेक्टर का दरवाजा खटखटाने ग्रामीण पैदल ही लगभग 150 किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंचे थे। बैकालू के पैर में तो चप्पल भी नहीं था। यही है आजादी के साठ साल बाद भी आदिवासियों की दुर्दशा। यह तो एक छोटी सी झलक जो मेरी स्मृति में आज भी है। सच तो यह भी है कि यहां इंसान और जानवर एक ही घाट का पानी भी पीते हैं। कडकडाती ठंड़ हो या भीषण गर्मी तन लपेटने के लिए भी ठीक से चार मीटर कपड़ा नसीब नहीं होता। बच्चे तो भूखे- नंगे ही देखे जा सकते है। आदिवासियों की बदहाली इससे भी और क्या खतरनाक हो सकता है कि सामरी तथा जोका पाट में रहने वाले पूरे दिन भर जब किसी के घर पसीना बहाते है और रात में दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं होता। आखिर सरकार के विकास को क्या कहा जाये? इन आदिवासियों के विकास के लिए सरकार के मंत्री और अधिकारी तमाम बाते करते है पर सच्चाई को छुपाया भी नहीं जा सकता। कई बार ऐसी सच्चाई को बताने पर यह कहा जाता है कि नकारात्मक सोच नहीं रखना चाहिए, शायद इसे पढने के बाद भी कुछ लोग यही बात करें तो उनसे मैं क्षमा प्रार्थी हूं। आदिवासियों की हालत की बात हो ही रही है तो यह भी बताना लाजमी होगा कि आदिवासियों के विकास की बात करने वाले कई आदिवासी नेता भी इसी धरती पर पैदा हुए, उनमें भाजपा से सांसद रहे लरंगसाय को अलग नहीं रखा जा सकता। वर्तमान में जिले के बड़े आदिवासी नेता में पंचायत मंत्री रामविचार नेताम हैं जो गृहमंत्री भी रह चुके हैं। वर्तमान के सभी बड़े आदिवासी नेता जमीनी हकीकत को अच्छे से जानते हैं क्योंकि कभी उनकी हालत भी ऐसी ही थी लेकिन अब एसी गाड़ियों और अकू त धन के कारण सब भूल गये हैं। ये नेता आदिवासियों की संस्कृति शराब को भी दूर नहीं करना चाहते। वनमंत्री रह चुके गणेश राम भगत तो इसका कई सभा में खुलकर समर्थन करते रहे हैं। मेरे नजर में शराब आदिवासियों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है और नेता भले ही आदिवासियों का कितना बड़ा भी मसिहा बन लें, सच तो यह है कि अगर शराब के खिलाफ में बात करेंगे तो शराब से वोट कैसे जीत पायेंगे। आदिवासियों का दर्द कम करने का शायद दिल से अब तक किसी ने भी प्रयास नहीं किया। जितनी भी योजना बनाई गई या बनाई जा रही है, वोट बैंक और भ्रष्टाचार का सोच , नेता- मंत्रियों तथा सरकारी नुमाइदों के जेहन में आ जाता है। हां मैं बात से नहीं भटक रहा हूं, आदिवासियों को ऊर्जा देने की जरूरत है और इसमें काफी देर हो रही है। अगर हालत यही रहा तो सिर्फ मुंह जुबानी विकास दिन दूनी रात चौगुनी विकास करता रहेगा और आदिवासी अपनी हाल में तडपता रहेगा, वैसे भी ये तड़प तो अब इनकी जिन्दगी का एक हिस्सा बन गया है। प्रस्तुतकर्ता - दिलीप जायसवाल