मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

राष्ट्रपति की चिंता और उधर सांसदों की जम्हाई

यूं तो हमारे देश के लोकतंत्र का मंदिर शब्द से नवाजा जाने वाला संसद पर इतने दाग लग चुके हैं कि उसे वर्तमान हालात में धोना आसान दिखाई नहीं देता। इसके बाद भी इस मंदिर में बैठने वाले जो भी फैसला लेते हैं उसे देश की जनता कभी लाठी खाकर तो कभी आंसू के गोले के रूप में बर्दाश्त कर लेती है, लेकिन कल जब राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल बजट अभिभाषण पढ़ रही थीं और नक्सलवाद पर चिंता जता रहीं थी, तो संसद में बैठे कुछ सांसद जम्हाई ले रहे थे, तो कुछ सिर पकड़कर ऐसे बैठे थे मानो इन समस्याओं से लड़ने के लिए इनके पास न तो कोई आत्मविश्वास है और न ही इच्छाशक्ति। एक सांसद की आंखें तो इस तरह बार-बार बंद हो रही थी, मानो वे संसद में आराम फरमाने के लिए पहुंचे हैं। वैसे भी इन सांसदों के ऊपर आम जनता का जितना पैसा खर्च होता है, उसका हिसाब अगर इनसे जनता के सेवा करने को लेकर मांगा जाये तो शायद इनके पास कोई जवाब नहीं होगा।

राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जब खाद सुरक्षा को दुरूस्त करने के लिए कृषि उत्पादकता को बढ़ाने और खुले बाजार की नीति में सुधार करने की बात कर रही थीं, तो इस दौरान कृषि मंत्री शरद पवार अपनी कुर्सी में इस तरह अंगड़ाई ले रहे थे मानों देश के किसानों की लाठी उन्हीं पर पड़ी है। वहीं जब महिला आरक्षक बिल को पारित करने के लिए राष्ट्रपति द्वारा इस उम्मीद के साथ सांसदों को सम्बोधित किया जा रहा था कि वे इस बिल का समर्थन करेगें, लेकिन यहां भी सांसदों में इसके प्रति कोई गंभीरता नहीं दिखाई दी। यह सब देश की जनता ने भी टेलीविजन में देखा। हालांकि उस दौरान टीवी देखने वाले कितनी गंभीरता से यह सब देख रहे थे, वह अलग बात है। वैसे भी सांसदों के इन रूपों को टेलीविजन के कैमरे भी ज्यादा फोकस नहीं कर रहे थे। जब भी ऐसा दृश्य कैमरे की लैंस में पड़ता तो उस शार्ट को कट कर दूसरा दृश्य दिखाया जा रहा था।

इन सब पर विचार करना इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि जहां एक तरफ देश में आंतरिक सुरक्षा और घुसपैठ की खतरनाक स्थिति पर जब राष्ट्रपति जब चिंता जाहिर कर रही हों और उनके चेहरे में इन समस्याओं को लेकर उठ रहे सवाल साफ दिख रहे हों, वैसे में हमारे सांसद जब बेफिक्र हो तो समझा जा सकता है कि इस देश की बागदौड़ हम कैसे हाथों में सौंप देते हैं। सिर्फ हर साल विकास दर का लक्ष्य और प्रतिशत घटाने-बढ़ाने के खेल को देश की जनता समझ चुकी है और वह यह भी जानती है कि वह जिन्हें संसद और विधानसभाओं में भेजती है, वे उसकी मंशा पर कितने खरे उतरेंगे, लेकिन इस देश की जनता के सामने अब वर्तमान राजनीति में सही विकल्पों की कमी साफ-तौर पर दिख रही है। यह हालत झारखण्ड में हुए विधानसभा चुनाव में भी साफतौर पर दिखाई दिया था जब झारखण्ड की जनता ने शिबू सोरेन को अपने राज्य का मुखिया बना लिया।

हम यहां सांसद और विधायकों के सोच और विचार पर चिंता नहीं कर रहे हैं बल्कि हम उनकी भी चिंता कर रहे हैं जो राजनीति में आने से अब कन्नी काटते हैं और जो आना भी चाहते है वे राजनीति को एक बिजनेस की समझ के साथ इस ओर चलते हैं। यहां अब मनेजमेंट और एमबीए की बात होती है, वह इसलिए की किसी भी पार्टी के नेताओं को कैसे मैनेज कर रखा जाये, ताकि सब का व्यापार चल सके क्योंकि अब महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस का जमाना इस राजनीति में नहीं दिखाई देता क्योंकि आज का युवा राजनीति में पूर्ण सम्पन्नता पाने के लिए जाना चाहता है। ऐसा हो भी क्योंकि नहीं जब राजनीति ही नहीं बल्कि इस समाज का हर पेशा और कार्य इसी उम्मीद से आगे बढ़ रहा है।

हालत यही रहा और इस देश का सफर ऐसा ही चलता रहा तो ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है, सारी की सारी हकीकत सामने आयेगी और खास कर अमीर और गरीब के बीच बन रही खाई में एक दिन सभी को गिरना ही पडे़गा।
-दिलीप जायसवाल

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

बिना हारे अब कदम बढ़ाइए





जाता है कि जब किसी की नियत में खोट हो तो उससे सही काम करने की उम्मीद करना खुद को धोखा देने के समान होता है। ऐसी स्थिति आज भारतीय लोकतंत्र के नौकरशाही तबके में भी घर कर चुका है। नौकरशाहों की नियत आम जनता और देश के प्रति कैसी है, यह समय-समय पर दिखता रहा है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के साथ नियत के बेईमान नौकरशाहों ने कुछ ऐसा ही किया है। भले ही इस योजना के क्रियान्वयन की तारीफ में तमगे क्यों न मिलें।

छत्तीसगढ़ के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां जमीनी स्तर पर काम करने वाले सरकारी नुमाइंदे अपने़े अफसरों के कारण भ्रष्टाचार करने पर मजबूर हो जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले राज्य के उत्तर में स्थित सरगुजा के एक मित्र से कई सालों बाद मुलाकत हुई। वह बताया कि इस समय राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के तहत ग्राम पंचायत में रोजगार सहायक है। वह पंचायत में ईमानदारी के साथ काम करना चाहता है, लेकिन यह आसान नहीं है। वह बताते हुए कहने लगा- जब तक इंजीनियर को कमीशन नहीं मिलेगा, वह काम का मूल्यांकन नहीं करेगा। बाबू फाईल आगे नहीं बढ़ाएगे और अफसर फाईल में साईन नहीं करेगा, ऐसी स्थिति में मजदूरी नहीं मिलने पर कोपभाजन का शिकार उन्हें बनना पड़ता है।

ऐसी स्थिति में मजबूरी यह होती है कि वे फर्जी मस्टर रोल तैयार कर, जो मजदूर सप्ताह भर काम किया है उसे दो सप्ताह काम करना बताएं और जब पोस्ट आफिस से मजदूरों को मजदूरी मिलता रहे, तब पोस्ट मास्टर को भी भ्रष्टाचार का रस बताकर मजदूर से दो सप्ताह की मजदूरी के लिए हस्ताक्षर कराएं। इसके बाद उसे एक सप्ताह का पैसा देकर घर भेज दें।


यह सब न कर अगर जिला या राज्य स्तर के अधिकारियों से इसकी शिकायत की जाए तो कार्यवाही कब होगी और क्या होगा कोई नहीं जानता। कई बार तो ऐसा होता है जब शिकायत करने वाला कर्मचारी ही अपनी नौकरी गंवा बैठता है। सरकार ने रोजगार गारंटी कानून को यह सोचकर बनाया कि गांवों से बेरोजगारी कम होगी और गांव का विकास होगा। इसे भ्रष्टाचार से बचाने के लिए भी सख्त नियम बनाए गए। मजदूरों को बैंक या पोस्ट आफिस से मजदूरी भुगतान करने की व्यवस्था की गई, लेकिन नियत के हराम खोरों के सामने यह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई।

काम के बदले अनाज योजना का उल्लेख करना भी लाजमी होगा, जिसे सरकार ने खाद्यान सुरक्षा के मद्देनजर शुरू किया था, इस योजना का क्या हश्र हुआ इसका मैं खुद प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं और इससे क्रियान्वयन में पंचायत प्रतिनिधियों को क्या-क्या करना पड़ा वह भी अपनी आंखों से देखा हूं। जब एक सरपंच ने शिलान्यास के पत्थर पर इसका भी उल्लेख कर दिया कि कमीशन में उसने किस अफसर को कितना रुपया दिया है।


बात उन दिनों की है जब मैं सरगुजा जिला मुख्यालय में संवाददाता के रूप में काम करता था। ऐसा कोई दिन नहीं बीतता था, जिस दिन गांवों से मजदूर मजदूरी नहीं मिलने की शिकायत लेकर कलेक्टर के दफ्तर में तो कभी अखबारों के दफ्तर में नहीं पहुंचते थे। मजदूरों को दिया जाने वाला राशन बाजार में बिकता रहा और मजदूर पसीने की कमाई के लिए चिल्लाते रहे, लेकिन कई गांवों में सालों बीत जाने के बाद भी इस योजना की मजदूरी आज भी मजदूरों को नहीं मिली है। चाहे तो सरकार गांवों में इसका सर्वे करा ले। वहीं कई स्थानों पर तो रातों-रात मशीनों से तालाब तैयार हो गए और कागजों में मजदूरों को भुगतान भी हो गया। कई जगहों पर तो बड़े-बड़े डेम भी बन गए।

ये तो उदाहरण मात्र हैं। दुर्भाग्य की बात है कि दोषी अफसरों के खिलाफ कार्यवाही भी नहीं होती। वल्कि ऐसी राजनीति चल रही है कि ऐसे अफसर और दूसरे लोग पुरुस्कृत होते हैं।


अब जब नवाअंजोर योजना बंद हेाने वाली है इस योजना के तहत गांवों में गरीबों की जिंदगी में कितना अंजोर आया, यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। खासकर इस योजना के तहत महिलाओं को स्व-सहायता समूहों के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में काम करना था, ताकि वे आत्मनिर्भर हो सकें। राज्य के सोलह विकासखंडों में नवाअंजोर योजना का संचालन किया गया और करोड़ों रुपए खर्च किया गया, लेकिन सच्चाई तो यह है कि सैकड़ों स्व-सहायता समूह कागजों में ही चले और पैसा अफसरों की जेब में पहुंचा। इसका उदाहरण देखना हो तो सरगुजा के ही वाड्रफनगर क्षेत्र के गांवों में जाकर देखा जा सकता है, जहां दशकों पहले भूख से मौत की खबर पर प्रधानमंत्री तक पहुंच गए थे, आज स्थिति तो ऐसी नहीं, लेकिन कोई खास भी नहीं है।

ऐसी स्थिति दूसरे दिन ही सुधर जाए, लेकिन जब तक मंत्री विधायक नहीं सुधरेंगे तब तक यह सोचना कि गरीब मजदूरों का हक उन्हें पूरी तरह मिलेगा और उनका विकास होगा, यह एक झूठे सपने के समान है। इसे भूलकर आम आदमी को हर पल बिना हारे इस तंत्र से लड़ने की जरूरत है, तो शुरू हो जाइए और कदम बढ़ाइए।


दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

पक्षी प्रेमिओं जरा इधर भी देखो


रायपुर के कोटा में एक बाज को गुलेल से मारने के बाद खाने के लिए ले जाते हुए बच्चे। इनमे स्कूल जाने वाले बच्चे भी हैं।

सरगुजा में खेतो से चूहों को उरांव जनजाति के लोग मारकर खाते हैं। चूहे खेतो के मेढ़ में बिल बनाकर रहते हैं। इसके लिए मेढों को खोदकर, चूहों को निकालते हैं और जमीन पर पटक- पटक कर मारा जाता है। मारने के बाद उन्हे रस्सी से गूथकर ले जाता एक व्यक्ति।

मीडिया पर भड़के हैं नागा बाबा


राजिम महाकुंभ मंे अलग-अलग अखाड़ों से पहुंचे नागाबाबा मीडिया पर इन दिनों खफा हैं। वे मीडिया कर्मियों के किसी भी प्रकार से फोटो लेने या वीडियों बनाने केे खिलाफ हैं। कल कुछ मीडिया कर्मियों द्वारा राजिम में शोभायात्रा के दौरान फोटो लेने पर उनके विरोध का सामना करना पड़ा। नागा बाबाओं का कहना है कि मीडिया में उनके बारे में गलत जानकारी देते हुए उनपर लोगों से भिक्षा के लिए जबरदस्ती करने का आरोप लगाया जा रहा है, वहीं उनकी तस्वीरों का छपने के बाद मजाक उड़ाया जा रहा है।

राजिम महाकुंभ में हिमाचल प्रदेश, अमरकंटक, बनारस सहित दूसरे शहरों से सैकड़ों की संख्या में नागाबाबा पहुंचे हुए हैं। यहां सबसे ज्यादा पंचदश नाम जूना अखाड़ा, बड़ा हनुमान घाट से नाग बाबाओं की टोली पहुंची हुई है। हालांकि इस साल यहां नागा बाबाओं की संख्या कम है। कल जब शोभायात्रा के दौरान कुछ टीवी और अखबारों के कैमरा मैंन उनका तस्वीर ले रहे थे तो उनके विरोध के कारण कैमरामैंनों को इधर-उधर भागना पड़ा वहीं पुलिस भी मीडिया कर्मियों को नागाबाबाओ की तस्वीर और वीडियों तैयार नहीं करने की समझाईस देती रही। मीडिया में आए खबरों के बाद बाबाओ का कहना है कि इससे उनका अपमान हुआ है। ऐसा कभी नहीं हुआ था। सरकार उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेती है तो उनका अपमान न हो इसकी भी जिम्मेदारी ले। मीडिया में ऐसी खबर आने के बाद समाज में उनके प्रति गलत संदेश जाता है।

इलाहाबाद कुंभ में नागाओं को देखकर खुद बन गया नागा

राजिम कुंभ में हिमाचल प्रदेश के खीरगंगा से पहुंचे नागा बाबा अमृतगिरी ने इस संवाददाता से चर्चा करते हुए बताया कि उसने नागा बाबा बनने के लिए बचपन में नहीं सोचा था, लेकिन जब वह इलाहाबाद कुंभ में गया था तब वहां नागाबाबाओं को लोग भगवान के समान पूजते थे और उनके चरणों के नीचे की मिट्टी को उठाकर अपने पास रखते थे। यह सब देखकर उसने भी नागा बाबा बनने की ठानी और वह इसके लिए खीरगंगा चला गया।

अमृतगिरी नागा साधुओं के बारे मे बताते हुए कहते हैं कि खीरगंगा में भगवान कार्तिक स्वामी ने तपश्या किया था यहां पार्वती नामक नदी भी बहती है। उन्हांने बताया कि वे छह माह बारिश के समय पहाड के उपर बर्फ पर रहते हैं और साल के छह माह वे नीचे भिक्षा मांगकर जीते हैं। पूरे देशभर में सात सन्यासी अखाड़े और चार बैरागी अखाड़े हैं इनमें सात शिवदल और चार अखाड़े रामदल के होते हैं। इनमें भी नागा और उदासी दो अखाड़े होते हैं। नागा बाबा बनने के लिए सबसे पहले गुरु का शिष्य बनना पड़ता है। शिष्य बारह सालों तक अपने गुरु की सेवा करता है उसके बाद उसे नागा बाबा होने की मान्यता मिलती है। इस बीच कई संस्कार संपन्न कराए जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश के नागा बाबाओं का कहना है कि नेपाल में उन्हें दो बार जाने का मौका मिलता है। एक तो महाशिवरात्रि के समय और दूसरा भगवान राम के जन्मोत्सव के दौरान। यहां इनके पूजा अर्चना में आनेवाली लागत और रहने खाने के अलावा सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था की जाती है। यह व्यवस्था वहां की कार्यक्रम आयोजित करने वाली कमेटी करती है। जिसे नेपाली में गुटी कहा जाता है। दिलीप जायसवाल

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

...तो भारत और तालिबान में क्या अंतर

समाज में एक तरफ सभी रिश्तों में कटूता का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है। इससे प्रेम जैसा पवित्र रिश्ता भी अछूता नहीं रह गया है। वहीं किसी भी सभ्यता या संस्कृति का पर्व प्रेम करना सिखाये और उस पर समाज तथा धर्म के ठेकेदार विरोध कराने सड़क पर उतरे तो यह बताने के लिए काफी है कि उनकी मानसिकता समाज में प्रेम के प्रति कैसा है।

वेलेनटाईन-डे को लेकर शिवसेना तथा धर्मसेना ने विरोध दर्ज कराने का ऐलान कर दिया है और न जाने कितने संगठन इस मानसिकता के साथ विरोध में 14 फरवरी को दिखाई देंगे, लेकिन इन्हें विरोध से पहले यह समझ लेना चाहिए कि प्यार में गंदगी क्या है। अगर इन्हंे कोई अश्लीलता या गंदगी के मायने समझ में आते हैं तो विरोध से पहले समाज को बताना चाहिए। यहां सवाल उठता है कि क्या इस दिन कोई लड़का या लड़की के एक साथ घुमने पर समाज में अश्लीलता आती है। पार्क में बैठकर एक प्रेमी जोड़ा क्या बातें नहीं कर सकता। अगर ऐसे संगठन इन बातों को ही अश्लील मानते है तो भारत और तालिबान में क्या अंतर रह जायेगा।

पिछले वर्ष वेलेनटाईन-डे के दिन ही इंदौर में एक भाई-बहन को इन संगठनों के कार्यकर्ताओं के द्वारा मारापीटा गया और न जाने ऐसी घटनाएं कितने शहरों में हुई। इस बार भी इन संगठनों की भेंट जाने कितने भाई-बहन और प्रेमी जोड़े चढेंगे। वहीं सड़कों और पार्कों में प्यार करने वालों के खिलाफ कितना दहशत होगा ? इस पर सरकार को गंभीर बनने की जरूरत है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि समाज में ऐसे लोगों के खिलाफ कोई जगह नहीं है जो अराजक स्थिति तैयार करते हैं।

यहां पर हम एक सवाल वेलेनटाईन-डे का विरोध करने वालों से पूछना चाहेंगे कि क्या वे प्यार नहीं करते। माना कि वे सड़कों पर ऐसा व्यवहार इस दिन नहीं करते और इसकी जगह डंडा-झंड़ा लेकर विरोध करते है, लेकिन दूसरे दिनों में इस दिन विरोध करने वाले असामाजिक तरीके से कितने काम करते हैं, क्या इससे समाज की सद्भावना पर ठेस नहीं पहुंचती।

वैसे भी हमारे देश में प्यार करने वालों को कभी घर-परिवार तो कभी समाज से तंग आकर जान देने पड़ती है, तो कभी गला रेत कर हत्या कर दी जाती है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में तो ऐसी घटनाएं हमेशा होती रहती है। न जाने साल भर में कितने प्रेमी युगल हमेशा के लिए दुनिया से अलविदा हो जायेगा। वहीं कभी एक-दूसरे का ही दुश्मन बन जाते हैं। कभी कोई चाकू घोप कर हत्या कर देता है तो कभी उसी चेहरे पर तेजाब डाल देता है जिससे वह बेपनाह मोहब्बत करता होता है। इन सभी विकृतियों के बाद भी हमारे देश में प्यार हर किसी के दिल में अपनी अलग जगह रखता है और प्रेम करने वाले जोड़े तो हमेशा प्र्रेम करते ही रहेंगे। -दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

झुग्गी वालों के बिना महलों में रौनक नहीं

देश में गरीबों की संख्या घटाने और बढ़ाने का खेल लम्बे समय से चल रहा है। वहीं गांव से पलायन कर रोटी के लिए हर तरह का अत्याचार और पीड़ा सहने वाले शहरों के झुग्गी-झोपड़ी के रहवासियों के विकास के नाम पर उन्हें वहां से हटाने की साजिश पूरे देश में चल रही है। कभी भी झोपड़ियां उजाड़ दी जाती है। चाहे वह बारिश का मौसम हो या कड़कड़ाती ठण्ड का। सरकारी नुमांईदें ऐसा इसलिए भी कर पाते हैं क्योंकि ये लोग अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए सक्षम नहीं है। जब दूसरे लोगों का अतिक्रमण हटाने की बात आती है तो यही सरकारी अमला इस पर हाथ बढ़ाने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाती।
शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। दिल्ली की कुल जनसंख्या का 55 फीसदी लोग झुग्गी बस्तियों में वहां रहते है। ऐसे में देश की तस्वीर को आसानी से देखा और समझा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में झुग्गी बस्तियों की कोई कमी नहीं है, जहां गांवों से पलायन कर लोग लगातार पहुंच रहे है। अब तो यहां झुग्गी में भी इनके लिए जगह नहीं है। जमीन इतनी मंहगी है कि राजधानी या उसके आस-पास कोई गरीब या सामान्य परिवार जमीन ही नहीं खरीद सकता। घर बनाने की बात तो सपना देखने के सामान है। ऐसी परिस्थितियों में सुबह-शाम जी-तोड़ मेहनत करने वाला यह वर्ग रेल्वे की पटरियों के आस-पास झोपड़ियों में रह रहा है। जहां उसे नरकीय जिंदगी नसीब हो रही है। कभी गंभीर बीमारियों के कारण मौत हो जाती है, तो कभी कुपोषण का शिकार होकर यहां इंसान दम तोड़ देता है। इन सब से बचता है तो टेªन की पटरियों में रौंदा जाता है। झोपड़ी तो कब उजड़ जाये उसकी तो कोई गांरटी भी नहीं है।
समाज का यह तबका अगर शहर में न रहे तो एक गंभीर स्थिति उत्पन्न होगी और वह रईस समझे जाने वाले वर्ग पर भारी होगा। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों से ही महलों में रहने वालों की जिन्दगी शुरू होती है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि बर्तन धोने, कपड़े धोने, पोछा लगाने से लेकर और भी घरेलु काम करने बाई जिस दिन काम करने नहीं आती है तो कैसी स्थिति बनती है। ये रईस समझे जाने वाले लोगों को इनके बिना सिनेमा घरों और गार्डनों में चैन का एक पल भी गुजारने के लिए वक्त नहीं मिलेगा। उसके बाद भी झुग्गियों में बसने वाले इस वर्ग के बारे में ईमानदारी से कोई सोच काम नहीं कर रही है।
दुर्भाग्य की बात है कि पहली पंचवर्षीय योजना में देश के लिए झुग्गियों में रहने वाले लोगों को एक धब्बा कहा गया था। वहीं अब तक समाज के इस तबके के लिए कागजों में योजनाएं बनती और बिगड़ती रही है। पिछले वर्ष केंद्रीय आवास और गरीबी उन्मुलन मंत्री कुमारी शैलजा ने कहा था कि पांच वर्षों के भीतर शहरों को झुग्गी झोपड़ी से मुक्त किया जायेगा। इसके लिए राजीव गांधी आवास योजना के तहत घर बनाये जायेंगे। सच्चाई तो यह है कि लाख योजनाओं के बाद भी इस तबके का विकास समाज का प्रबुद्ध और सम्पन्न वर्ग नहीं चाहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो कम से कम इन गरीबों को आबंटित होने वाली प्लाटों को अधिकारी अपने नाम नहीं कराते। ऐसी स्थिति देश की राजधानी दिल्ली में देखी जा चुकी है। समाज का रईस वर्ग इसलिए भी इनका विकास नहीं चाहता कि अगर झुग्गी बस्तियों में रहने वालों का विकास हुआ तो उनके घर काम करने कौन आयेगा और जब वे विकास के पथ पर होंगे तो उनका शोषण करना भी आसान नहीं होगा। वहीं सरकार तो गरीबों को अभी भी देश के लिए एक दाग ही समझती है जो समय-समय पर उसके व्यवहार से दिखाई देती है।
सरकार की रणनीति में देश से गरीबी खत्म करने की नहीं बल्कि गरीबों को ही खत्म करने की साजिश दिखाई देती है। दिल्ली में होने वाले राष्ट्र मण्डल के खेलों के पूर्व कुछ ऐसी ही स्थिति दिखाई दी है। दिल्ली विकास प्राधिकरण के कार्यकारी प्रमुख के पद पर तीस साल काम कर चुके सूर्य प्रकाश का कहना है कि झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में अपने अनेक दौरों के दौरान मैं हजारों लोगों से मिला, जो चाहते थे कि उन्हें बेहतर दशाओं में जीने का मौका मिले। भिखारीनुमा पहनावा और हाव-भाव के माध्यम से वे प्रदर्शन करते थे, कुछ गिड़गिड़ाते थे, कुछ धिक्कारते थे। लेकिन मेरी परेशानी का कारण तो वे लोग थे, जो उनके पास से गुजरते हुए नजरें फेर लेते थे।
बात साफ है नौकरशाही और देश का वर्तमान तंत्र गरीबी और तंगहाल जिन्दगी जीने वालों को सीधे शहरों से गायब ही कर देना चाहता है। अगर ईमानदारी से आंखें खोल कर इस वर्ग के विकास के लिए काम हुआ होता या अभी भी हो तो भारत दुनिया का नम्बर-1 राष्ट्र बन सकता है। इन झुग्गी बस्तियों में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। यहां तो मिस वल्र्ड और मिस वल्र्ड बनने की काबिल लड़कियां भी रहती है। आईएएस और आईपीएस बनने की खबरें तो हर साल कहीं न कहीं पढ़ने-सुनने को मिलती ही रहती है। ऐसे में तो जरूरत इस बात की है कि गांव में रोजगार के साधन विकसित किये जाये, ताकि शहरों में ऐसी स्थिति न बने और जहां झुग्गी बस्तियां है वहां से उन्हें ईमानदारी के साथ विस्थापन की प्रक्रिया पूरा कर हटाया जाये। झुग्गियों को हटाया जाये न कि वहां रहने वाले लोगों को। उन्हें वहां की नरकीय जिन्दगी से बाहर एक ऐसा माहौल दिया जाये ताकि वे सर उठा कर जिन्दगी जी सके। ऐसी सोच नहीं तो इसके लिए अभी भी सलम-डाग मिलेनियम फिल्म को जरूर देखना चाहिए, जिसमें भारत के प्रबुद्ध वर्ग को झुग्गी बस्तियों के लोगों की गरीबी और दुर्दशा का अहसास कराया था।
दिलीप जायसवाल

शनिवार, 23 जनवरी 2010

...तो लोकतंत्र का खूटां कहलाने का कोई हक नहीं

मीड़िया पर दायित्वों का सही निर्वहन नहीं करने पर हर रोज उंगलियां उठ रही हैं। आलोचना करने वालों में पत्रकारों के अलावा समाज का वह वर्ग भी जो मीड़िया से कभी अपने काले करततूतों के उजागर होने के भय से दहशत में रहता था। ऐसी स्थिति के लिए मीड़िया हर रोज कहीं न कहीं जिम्मेदार दिखता है।

15 जनवरी को देश के टेलीविजनों में जो स्थिति दिखी उसने एक बार फिर साबित कर दिया कि चैनलो की टीआरपी बढ़नी चाहिए, चाहे इसके लिए कुछ भी क्यो न दिखाना पडे़। यूं तो सूर्य ग्रहण पूरे दिन नहीं था लेकिन चैनलों ने सूर्य ग्रहण की खबर एक दिन पहले से जो दिखाना शुरु किया और ग्रहण खत्म होने बाद शाम तक ही नहीं बल्कि दूसरे दिन तक उसी की खबर दिखाई जाती रही। मानो ग्रहण ने चैनल वालो को जकड़कर रख लिया हो। एक चैनल ने तो पहले दिन स्टूड़ियो में कुछ वैज्ञानिको और ज्योतिषियों को बुलाकर ग्रहण पर गहमा गहमी की स्थिति बनाकर दर्शको को बांधे रखने की कोशिश की। दूसरे दिन इसी को ग्रहण पर सबसे लम्बी बहस बताकर दिखाया गया।
जब ये 15 जनवरी को ग्रहण की खबर दिखा रहे थे उसी दिन देश में सेना दिवस भी मनाया जा रहा था लेकिन उसकी खबर की बात तो दूर चैनलो में उसका स्क्राल तक नहीं चला। वो तो भला हो दुरदर्शन का जिसने इसकी खबर दिखा दी नहीं तो देश के लोगोें को यह पता भी नहीं चल पाता कि सेना दिवस किस तरह मनाया गया। यह पहली बार नहीं है जब ऐसी स्थिति बनी हो, इससे पहले भी चैनलों का गैर जिम्मेदाराना रवैया दिखाई देता रहा है।

कुछ दिन पहले मीडिया का एक और चेहरा दिखाई दिया। यहां कोई मीडिया कर्मियों को दायित्व से विमुख करने वाले उनके पूंजीपति मालिक नहीं थे, बल्कि वे बिना किसी दबाव के अपनी मानवता का परिचय दे सकते थे। लेकिन मानवता की मानसिकता के स्थान पर समाचार और टीआरपी की मानसिकता मौजूद थी। तमिलनाडु में हुए उस घटना को कैसे भुलाया जा सकता है, जहां अपराधियों ने एक पुलिस अधिकारी का पैर काटकर सड़क पर फेंक दिया था। मीडिया के कैमरामैन तथा पत्रकार अलग-अलग एंगल से उस घायल अधिकारी का फुटेज बना रहे थे। कुछ देर बाद पुलिस अधिकारी की मौत हो जाने पर मीडिया वहां मौजूद मंत्रियों को दोषी ठहराने लगी। मीडिया द्वारा यह कहा जाने लगा कि मंत्री अगर चाहते तो उसकी जान बच सकती थी, वे उसे अस्पताल भेजवा सकते थे।

चलो मान गये कि मंत्रियों ने जो किया उन्हें उसकी सजा मिलनी चाहिए क्योकि किसी मंत्री के सामने कोई कराहते हुए मर जाये। सवाल उठता है कि क्या वे मीडियाकर्मी मंत्रियों की लापरवाही को देखते हुए खुद उस पुलिस अफसर को अस्पताल नहीं पहुंचा सकते थे। मीडियाकर्मियों की क्या यही ड्यूटी है कि वे किसी मरते हुए का वीडियो बनाये और दूसरों पर मानवता कि बात करते हुए आरोप मढे। मीडियाकर्मी यहां पर उस खबर को दिखा कर जितना हीरो बने उतना हीरो उस अफसर की जान बचा कर भी बन सकते थे।

अभी भी वक्त है मीडिया अपनी जिम्मेदारियों को समझें, नही तो हालत ऐसी बन गई है कि मीडिया की बातों पर लोग विश्वास करना छोड़ रहे है और अगर मीडिया जगत का काला चिट्ठा आम लोगों के बीच सरलता से और बड़े पैमाने पर आने लगा तो मीडिया के प्रति लोगों का बचा हुआ विश्वास भी नहीं रह जायेगा।

कुछ दिन पहले बनी बालीवुड की फिल्म पा में मीडिया की एक भयावह तस्वीर दिखती है जो सच्चाई का एक छोटा सा नमुना है। इस फिल्म में नये चैनलों के आगमन के बाद दूरदर्शन के प्रति बनी मानसिकता पर सकारात्मक माहौल पैदा किया गया है।

मीडिया अपने काम करने के प्रवृत्ति में सुधार नहीं कर सकता तो कम से कम वर्तमान हालत में लोकतंत्र के चैथे स्तंभ का तमगा को अलग रखते हुए खुलकर बनिये की दुकान की तरह अपनी संस्थाओं का संचालन करना चाहिए ताकि कम से कम लोकतंत्र की गरिमा की रक्षा हो सके। वैसे भी नेता मंत्रियों और रिश्वतखोरी करने वाले न्यायधीशों ने इस लोकतंत्र को निगल कर अपनी व्यवस्था कायम करने की पूरी कोशिश की है और उसमें भी तमाम प्रयासों के बाद कोई सुधार होते नहीं दिख रहा है।
-दिलीप जायसवाल, रायपुर

सोमवार, 18 जनवरी 2010

जंगलों से बाहर भी बदहाल राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र

राष्ट्रपति के दत्तक पु़त्र पहाड़ी कोरवाओ की संख्या छत्तीसगढ. में दस हजार से ज्यादा नहीं है। वहीं पहाड़ी कोरवाओं के विकास के लिए अब तक करोडों रुपये खर्च किया जा चुका है। इसके बाद भी पहाड़ी कोरवा विकास की मुख्य धारा से नहीं जुड़ सके हैं। वे आज भी जंगलो में कंद मूल खाकर झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर हैं। वहीं जो पहाड़ी कोरवा परिवारो के साथ जंगलो और पहाड़ो से उतरकर गांवो में बस गए हैं, उनके विकास के लिए भी ईमानदारी से कोशिश नहीं की गई। जबकि अक्सर यह कहा जाता है कि पहाड़ी कोरवा पहाड़ों से उतरना ही नहीं चाहते।

पिछले दिनो सरगुजा के शंकरगढ़ इलाके में एक पहाड़ी कोरवा दंपति की झोपड़ी में जलकर मौत हो गई। वे रात में ठंड़ से बचने के लिए अलाव जलाकर सो गए थे। पहाड़ी कोरवा ठंड़ के दिनों में एक लकड़ी के बडे़ लटठे को जलाकर सो जाते हैं और सेकाने के लिए पूरी रात करवट बदलते रहते हैं और रात गुजर जाती है। इनके विकास की योजनाओं को संचालित करने के लिए विशेष रुप से पहाड़ी कोरवा विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है। इसके माध्यम से हर साल पहाइ़ी कोरवाओं के विकास के लिए लाखों रुपए खर्च किया जा रहा है। लेकिन नौकरशाही रवैये और भ्रष्ट्राचार के कारण विकास की किरणों से कोशों दूर है।

इस पिछड़ी जनजाति की विकास के नाम पर इन्हें साईकिलें बांटी गई, खेती के लिए उन्नत किश्म के खाद बीज और पशु पालन तथा मछली पालन से उन्हें जोड़ने के तमाम प्रयास हुए, प्रयास सरकारी अदूरदर्शिता के कारण असफल साबित हुए है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है जब पहाड़ में रहने वाले व्यक्ति को सायकल दिया जायेगा, तो वह क्या करेगा। आज भी खेती के लिए इन्हें दिया जाने वाला खाद बीज, फावड़ा, सब्बल और खेती के दूसरे हथियार भ्रष्टाचार के भेंट चड़ रहे हैं। इनके विकास के पैसे से सरकारी नुमाईंदें लाल हो रहे है।

राज्य के सरगुजा, जशपुर और कोरबा में पाये जाने वाले पहाड़ी कोरवाओं की एक बड़ी संख्या पहाड़ों से गांव की ओर रूख किया और वे गांव के आस-पास रहने लगे। सरगुजा के नान दमाली की पहाड़ी में दर्जनों पहाड़ी कोरवा परिवार रहते हैं। इनके लिए बुनियादी सुविधाएं तो दूर की बात पीने के लिए एक अदद हैण्डपम्प या कोई दूसरा साधन विकसित नहीं किया जा सका है। ये नदी पोखर का पानी पीने के लिए मजबूर है। पहाड़ी कोरवाओं को विलुप्त होते देख सरकार ने नशबंदी जैसे अभियान से इन जनजाति को अलग रखा है। यही कारण है कि इनके बच्चों की संख्या दर्जन भर तक होती है, लेकिन गरीबी के कारण वे उनका सही तरीके से देखभाल नहीं कर पाते। ऐसे में कई बार पहाड़ी कोरवा नशबंदी केंद्रों में पहुंचते हैं तो डाक्टर नशबंदी करने से मना कर देते हैं।

देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जब पहली बार सरगुजा के आदिवासियों से मिले उनमें पहाड़ी कोरवा भी थे। एक पहाड़ी कोरवा से राजेंद्र प्रसाद ने जब पूछा कि रोटी खा लिए हो तो उसने रोटी शब्द से अनभिज्ञता जाहिर की थी। यह देखकर राजेंद्र प्रसाद भी इस जनजाति की दयनीय हालत को देखकर सोचने के लिए मजबूर हो गये थे। उन्होंने इस जनजाति के इस पिछडे़पन के कारण उन्हें राष्ट्रपति गोदपुत्र के रूप में घोषित किया था।

पहाड़ी कोरवा ठिगने कद वाले होते है। ये काले रंग के होते है। इन्हें निग्रांे और द्रविड़ के कोलारियस प्रजाति का माना जाता है। डाल्टन ने कोरवाओं को प्राचीन आदिमानव की कोलेरियन प्रजाति के समूह का एक वर्ग माना है। पहाड़ों में रहने वाली यह जनजाति समय के साथ-साथ मैदानी क्षेत्रों में भी आकर बसने लगा। जिन्हें मैदानी या देहाती कोरवा कहा जाता है। ये साल के डंगलों और उसकी पत्तियों से झोपड़ी बनाते हैं। ये बांस का झोपड़ी बनाने में उपयोग नहीं करते है। पहाड़ी कोरवा पछिमा देवता की पूजा करते हैं, इनके परिवार में पति-पत्नी और अविवाहित बच्चे होते हैं। शादी के बाद बच्चे अलग रहने लगते है। पहाड़ी कोरवाओं का दस गौत्र होता है, इनमें इसिट, कुदूम, मुठियार, गिनुमन, तेलिहा, तेनुरिहा, गिढुवार, इदमी, हसदा और पमाट है। इनमें संगौत्र विवाह की मनाही है। वर पक्ष वधु की तलाश करता है। वर पक्ष वधु पक्ष के घर जाता है और रात भर वहीं रूकता है, इस दौरान अगर सियार की आवाज सुनाई देती है तो शादी का रिश्ता तय नहीं हो पाता है। सियार की आवाज को यह जनजाति अशुभ मानती है। ऐसी स्थिति नहीं आने पर लड़की पक्ष लड़के पक्ष को कुछ रूपये देकर ससम्मान वापस भेजता है। उसके बाद वर पक्ष कुछ दिनों में चावल और चावल से बना शराब (हड़िया) लेकर पहुंचता है, जिसे पीकर खुशियां मनाई जाती है और शादी का दिन तय किया जाता है। शादी सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को छोड़कर दूसरे दिन सम्पन्न नहीं होता है। शादी से पहले वर पक्ष डेढ़ क्विंटल धान (तीन खण्डी पांच तामी धान) तथा माय कापड़ देता है। माय कापड़ बुनकर द्वारा बुना गया कपड़ा होता है जो वधु के मां के लिए होता है। शादी के लिए ये साल के तनों से मंडप तैयार करता है। शादी पांच दिनों तक चलती रहती है।

शादी दो प्रकार से की जाती है। ठांड मांदी विवाह में तत्काल विवाह कराया जाता है जिस दिन बारात आती है उसी दिन विवाह हो जाता है, जबकि बैठमांदी विवाह में बारात रातभर वधु पक्ष के घर आकर रूकती है और दूसरे दिन शादी होती है। पहाड़ी कोरवा घर में लड़की पैदा होने पर ज्यादा खुशियां मनाते हैं, वहीं मासिक धर्म के दिनों में महिलाओं को खाना बनाने पर मनाही होती है। हालांकि स्त्री परिवार की प्रमुख इकाई होती है।

पहाड़ी कोरवाओं में पितृ सत्तातमक परिवार होता है। ये लंगोट धारण करते है और महिलाएं एक ही कपड़े को लपेट कर पहनती है। पहाड़ी कोरवा कंद मुल के अलावा भेलवा और तेंदू फल तथा साल बीज को उबाल कर खाते हैं। ये जब जंगल में शिकार के लिए निकलते हैं तो तीर, धनुष तथा कुल्हाड़ी प्रमुख हथियार होता है। ये पारम्परिक तरीके से कोदो, कुटकी के अलावा और धान की भी खेती करने लगे है। हालांकि आज भी जीविकोत्पार्जन और अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्रतोत जंगल से लकड़ी काटकर बेचना ही है।

पहाड़ी कोरवा मृतक के सिर को उत्तर की तरफ रखकर उसका अंतिम संस्कार करते है, जबकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु पर उनकी लाश पेड़ के नीचे जमीन पर गाड़ देते है। मान्यता है कि इससे बच्चे की आत्मा उनके घर में नये शिशु के रूप में आता है। वहीं जब परिवार का कोई मुखिया मरता है तो वे उस झोपड़ी को तोड़कर नई झोपड़ी दूसरे स्थान पर बना लेते है।

पहाड़ी कोरवाओं के परम्पराओं के बीच वर्तमान हालत को देखकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू की एक पंक्ति याद आती है। उन्होंने कहा था - जनजातियों का विकास उनके स्वयं के परिधि में किया जाना चाहिए तथा उन पर कुछ भी अध्यारोपित नहीं करना चाहिए। पहाड़ी कोरवाओं के विकास के लिए वाकई में आजाद भारत के पचास साल बाद भी ईमानदारी से कोशिश नहीं की जा रही है और न ही जवाहर लाल नेहरू की इन पंक्तियों को याद रखा जा रहा है।-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

नौकरशाही में तैयार हो रहा नक्सल भूमि

शाम ढलते ही सन्नाटा, चरवाहे भी गाय बैल लेकर जल्दी घर आ जाते थे और घरों के दरवाजे बंद हो जाते थे। रात में किसी का भी पदचाप सुनकर रोगंटे खडे हो जाते थे। कभी भी कहीं भी किसी की हत्या कर दी जाती थी। घर जला दिए जाते थे, मारा पीटा जाता था और लोग सब कुछ खामोस होकर देखते रह जाते थे। रिर्पोट पर पुलिस भी दहशत से वर्दी उतार कर दूसरे दिन पहुंच पाती थी।

तीन चार सालों से परिस्थितियां बदली है। हां मैं बात कर रहा हूं, छत्तीसगढ. के उत्तर में स्थित सरगुजा क्षेत्र की। नया राज्य बनने के साथ ही झारखंड से यहां नक्सली संगठन एम सी सी का आगमन हुआ। नक्सली संगठन के अधिकतर नेता झारखंड के थे। सरगुजा के युवाओं को वे गुमराह कर अपने साथ करने लगे। बाद में एमसीसी का विलय पीपुल्स वार ग्रुप में हो गया। इससे नक्सलियों की ताकत और बढी। सरगुजा में नक्सलियो की खूनी खेल को अपनी आखों से देखा हूं। अब मुझे जब भी वो दिन याद आते हैं तो कुछ पल के लिए खामोश हो जाता हूं। उस वक्त गांव में एक रात भी चैन के साथ गुजरती थी तो ऐसा लगता था मानो कई रात गुजर गए। उस समय स्कूल में पढा करता था।

नक्सलियों का खौफ इस कदर था कि लोग नक्सलियों का नाम लेने से घबराते थे। मुझे याद है शंकरगढ क्षेत्र में एक पटवारी की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी, तब तात्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी घटना के दूसरे दिन वहां पहुंचे थे। मुख्यमंत्री का भाषण सुनने वालो की भीड में खडा था, लोगों को उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री उस घटना पर कुछ बोलेगे, लेकिन मुख्यमंत्री की जुबान से एक शब्द भी नही निकला। दहशत जदा लोग फिर अपने घरों में आकर दुबक गए।

एक और घटना याद है जब गांव में पन्द्रह अगस्त के दिन तिरंगा की जगह पूरे दिन काला झंड़ा फहरता रह गया। यह काला झंडा नक्सलियों ने फहराया था। स्कूल के एक लड़के ने उस काले झंडे़ को उखाड़ कर फेकने की कोशिश की तो दहशत से शिक्षक और दूसरे लोगों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। बाद में शिक्षक ने बच्चों को मिठाई बांटकर घर के लिए भेज दिया। लेकिन दूसरे दिन उसी लड़के ने उस काले झंडे को उखाड़कर फेका। उसके बाद दहशत के कारण लड़के के मां बाप उसे लेकर दो तीन दिन के लिए गांव छोड़कर दूसरे गांव चले गए।

नक्सलियों का दहशत इतना था कि कोई व्यक्ति घर से बाहर जाता था और शाम तक लौट कर नहीं आ पाता था या लौटने में देर होती थी तो परिवार की सदस्यों की धड़कने अनहोनी की आशंका में रोने लगते थे।
मैने वह हालत भी देखा है, जब नक्सली शाम को किसी के घर भी घुस जाते थे और मुहल्ले में दर्जन से अधिक की संख्या में बंटकर दहशत के बल पर खाना बनवाते थे। ऐसी स्थिति में कई बार परिवार के लोगों को भूखे सोना पड़ता था। दूसरे दिन जब इसकी जानकारी पुलिस को लगती थी, पुलिस गंाव पहुंचती थी और उन परिवार के सदस्यो को उठाकर पुछताछ के नाम पर थाने ले जाती थी। जहां उन्हें कई-कई दिनों तक बैठाकर रखा जाता था। जब वे घर लौटते थे, तो कई बार नक्सली मुखबीर होने का आरोप लगाकर हत्या कर देते थे।

अत्याचार करते हुए नक्सलियों को यहां अगर पांव पसारने में सफलता मिली तो मुख्य कारण था जमीन विवाद। जन अदालत लगाकर नक्सलियों ने विवादो का निपटारा कर कईयो को उनकी जमीन वापस कराया वहीं इन विवादो को निपटाने के नाम पर नक्सलियों ने दर्जनों लोगों की हत्या की। हलांकि धीरे धीरे ग्रामीण नक्सलियों की नियत को समझने लगे थे, अब नक्सलियों के प्रति ग्रामीण विरोध का रुप अख्तियार कर रहे थे कि ठीक इसी समय सरकार ने नक्सलियो से लोहा लेने के लिए आईपीएस एस आर पी कल्लूरी को पुलिस अधीक्षक के पद पर बलरामपुर में पदस्थ किया। इसके साथ ही नक्सलियों के खिलाफ कार्यवाही हुई। दर्जनो मुठभेड़ हुए और दर्जनो बडे़ ओहदेदार नक्सली मारे गए। जब मुठभेड़ों में जवान शहीद होते थे और उनकी लाशें जिला मुख्यालय गाड़ियों में भरकर लाया जाता था तो शहर के लोगों के लोगों की भीड़ ऐसी उमड़ती थी कि लोगों को रोकना पड़ता था। जब षहीद जवानों के शव ताबूतों में बंदकर उनके गांवों के लिए भेजा जाता था तो उनके साथियों के आंसूओं को देखकर ही लोगों की आंखें नम हो जाया करती थी।

मुठभेड़ों में कई नक्सलियों की गिरफतारियां भी हुई। इससे नक्सलियों के खिलाफ मुंह खोलने के लिए लोगों को ताकत मिली और पहली बार प्रतापपुर क्षेत्र के जजवाल सहित आस-पास के ग्रामीणों ने नक्सलियों के खिलाफ रैली निकाली। इसी दौरान सरकार ने नक्सलियों के आत्मपसमर्पण के लिए पुनर्वास नीति का ऐलान किया। इसके तहत कुछ स्थानीय ऐसे युवक जो नक्सलियों के साथ हो लिए थे, उन्होंने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण किया। यह अलग बात है कि उन्हें पुनर्वास नीति के तहत क्या मिला। हालांकि इन कार्यवाहियों को लेकर पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ों का भी आरोप लगे। वहीं इन कार्यवाहियों के बाद सरगुजा क्षेत्र में नक्सलियों की कमर टूटनी शुरु हुई। आज यहां के लोग पहले की अपेक्षा भय मुक्त होकर जिदंगी जी रहे हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि जिन कारणों से सरगुजा मे नक्सलियों के पांव गहरे हुए थे, वे कारण नौकरशाही के कारण आज भी विद्वमान है। अब नक्सलियों के नहीं होने के बाद भी जमीन विवादो को लेकर हर साल यहां दर्जनों हत्या की वारदात होती रहती हैै। वहीं पंचायतो में खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। कहने से कोई हिचक नहीं कि जब यहां नक्सलियों का खौफ था तब कोई भी सरपंच कम से कम किसी विधवा का पेशन डकारने की दुस्साहस तो नहीं ही कर पाता था आज सरकारी नुमांइदों की इतनी दहशत नहीं कि कोई सरपंच या सचिव किसी विधवा की मौत के बाद उसे मिलने वाली पेशन की राशि खाने से पहले थोड़ा भी सोचे। इस ओर सरकार को गंभीर होने की जरुरत है, जो दिखाई नहीं दे रही है। ऐसे में नक्सली आतंक से मुक्त गांवों में विकास और सरकारी नुमाइंदों के प्रति आम लोगों में लंबे समय तक भरोसा बना रहे वह सहज दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में यहां फिर से यही सब नक्सलियों के लिए पैर जमाने खाद बीज बने तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।
दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

मांदर की थाप और कुहू-कुहू

मांदर की थाप गांव के दूसरे छोर में गुंज रही थी। शैला नृत्य कर रहे लोगों ने मुझे देखा तो वे और भी मस्त होकर नाचने लगे, मांदर की थाप की आवाज बढ गई। वे मुझे भी नाचने के लिए कहने लगे। उनका जोश और उत्साह देख खुद को नहीं रोक पाया। गलियों में उनके साथ आधा घण्टे तक झूमने के बाद वे मुझे महुआ शराब पिलाकर स्वागत करना चाहते थे, जब मैंने मना किया तो वे गुड खिलाकर पानी पिलाये।

गांव और यहां रहने वाले लोगों से मुझे जो अपनापन मिलता है, जो प्यार मिलता है वह और कहीं नहीं। मैंने मिडिल स्तर से आगे की प$ढाई शहर में जाकर की, लेकिन गांव के प्रति मेरा लगाव आज भी कम नहीं है। दस साल हो गए, गांव कभी-कभार ही जा पाता हूं। मोबाइल फोन की सुविधा होने के कारण गांव के लोगों से बातचीत होती रहती है। कुछ दिन पहले एक दोस्त ने फोन किया और कहा - शैला नृत्य शुरू होने वाला है, आएगा क्या।

मंैने हामी भर दी। मुझे दो दिन बाद गांव के लिए निकलना था। शैला नृत्य और गांव का परिवेश मेरे दिलो दिमाग में दौडऩे लगा। जब रायपुर से टे्रन बैठा, रात भर मन में जल्दी गांव पहुंचने की बेचैनी छाई रही। मेरी नींद खुली तो उस वक्त टे्रन को अंबिकापुर स्टेशन पहुंचने में दो घंटे का समय शेष था। हाड़ कपाने वाली भीषण ठंड के कारण कुछ और गर्म कपड़ों से लदा ,चाय की चुस्की लेते-लेते अम्बिकापुर स्टेशन पहुंचा। ठंड के साथ चारो तरफ कोहरा छाया हुआ था और खेत बर्फ की पतली चादरों से सफेद दिख रहे थे। धीरे-धीरे सूरज भी निकल रहा था। सूरज की लालिमा दिखने के साथ ही आटो से अंबिकापुर शहर छोड़कर और फिर बस में बैठकर गांव के लिए निकला।

बस में बजता गीत - मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती और बस से बाहर देखने पर पर रवि की लहलहाती फसलें, खेतों में काम करते किसान, खलिहानों में धान की म$डाई करने में लगी महिलाएं। यह सब देखकर सुखद अनुभूति हो रही थी कि अपनी मंजिल तक पहुंच गया, लेकिन गांव अभी भी यहां से १२ किलोमीटर दूर ही था। मोटरसायकल में मुझे लेने के लिए दोस्त वहां पहले से ही मौजूद थे। उनके साथ गांव के लिए निकला। सड़क के दोनों ओर जंगल और कुछ दूर तक टायरिंग की हुई सड़क। जंगल से निकलने में अभी एक-डेढ़ किमी का रास्ता बचा हुआ था कि यहां तक शैला के मांदर की थाप सुनाई दे रही थी। कुछ ही देर में गांव पहुंच चुका था, गांव में पहुंचने की खबर दोस्तों से शैलानृत्य के सदस्यों को मिली। वे हमारे घर की ओर पहुंचे, जैसे ही घर के बाहर निकला वे मुझे अपने साथ कर लिये।

वैसे तो शैला नृत्य पहले से देखता आ रहा था, लेकिन इस बात को लेकर अक्सर चिंतित रहता था कि इसके कलाकारों की संख्या कम होती जा रही है। आज ऐसा नहीं था। १५ से २० साल के लडके भी पारंपरिक परिधानों में आकर्षक रूप से शैला नृत्य में लगे थे और अब जब यह सब कुछ लिख रहा हूं, गांव में चल रहा शैला नृत्य और उसके मांदर की थाप के साथ-साथ कुहू-कुहू की आवाज मेरे कानों तक पहुंच रही है। ऐसी आवाज नृत्य दल का सदस्य निकालता है। कुहू-कुहू आवाज निकाल कर शैला खेलने वाले एहसास दिलाते है कि बसंत का मौसम आने वाला है। बसंत के मौसम में कोयल कुछ इसी तरह से आवाज करती है।

धान-चावल शैला खेलने वालों को दिया जाता है। उसका अर्थ संपन्नता से लगाया जाता है। यह नृत्य ग्रामीण खेती-किसानी का काम खत्म होने के बाद करते है। शैला और सुगा नृत्य सरगुजा के विशेष पारंपरिक नृत्य हैं। शैला पुरुष खेलते है जबकि महिलाएं सुगा। हालांकि संरक्षण के अभाव में धीरे-धीरे इन पारंपरिक नृत्यों का अस्तित्व खतरे में है। शैला नृत्य के कलाकार अभाव की जिंदगी जी रहे हैं।

शैला नृत्य दल में एक कलाकार चेहरे पर लक$डी का मुखौटा लगाकर बच्चों का मनोरंजन करता है। शैला नृत्य करने वाले सदस्यों के हाथ में एक-एक डंडा होता है, जो कई रंगों से रंगा होता है। डंडे में रंग-बिरंगे कपड़े बंधे होते है। डंडे ऐसे पेड़ों की लकडिय़ों से बनाये जाते हैं जिसके टकराने पर अच्छी आवाज आती हो। डंडों को कलाकार ग्राम देवता के समक्ष पूजा करने के बाद पकडते हैं और जब शैला नृत्य सप्ताह, १५ दिन में खत्म हो जाता है तो फिर से ग्राम देवता की पूजा कर साल भर के लिए उसके सामने डंडो को अर्पित कर देते हैं।

कलाकारों की सजावटी, वेशभूषा में गले पर सिक्कों की गुथी हुई विशेष माला होती है। पीले रंग की पगड़ी और चेहरे में खुशियों का प्रतिबिम्ब कलाकारों के जुनून को दर्शा रहा था। यह भी एहसास हो रहा था कि उन्हें अपनी संस्कृति और माटी से कितना प्यार है। सरगुजा के इस लोकनृत्य में काफी बदलाव आया हैं। पहले हर कलाकार के कमर में मयूर के पंखों से आकर्षक सजावट होती थी, पैरों में घूघंरू होते थे, अब यह सब नहीं। इस बार जो खास दिखा वह था, सभी के पैरों में जूते।

वहीं अगर कुछ नहीं बदला तो वह है अनुशासन। नृत्य के दौरान थोड़ी सी चूक होने पर फिर से नृत्य का क्रम शुरु किया जाता है। कम से कम गलती हो इसके लिए वे समूह बनाकर महीने-डेढ़ महीने लगातार अभ्यास करते है। समूह के मुखिया धर्मपाल ने बताया कि दो साल बाद गांव में शैला नृत्य हो रहा है। युवा और किशोरों की रूचि कम होते देख उन्हें अभ्यास के दौरान शामिल किया गया। इसका अच्छा परिणाम देखने को मिल रहा है। नये कलाकार उत्साह के साथ लगातार भाग ले रहे हैं।

शैला नृत्य करने वाले आसपास के गांवों में जाते हैं और इनका सम्मान और रहने-खाने की व्यवस्था गांव के लोग तो करते हैं, उस समय इन्हें ऐसा अपनापन मिलता हैं उसे शब्दों में बयां करना आसान नहीं है। जैसा कि अनुभव किया। वाकई में साफ तौर पर यह महसूस हो रहा था कि गांव में जो एकता, भाईचारा और प्रेम है वह शहरो में नहीं, चाहे भले ही लाखों-करोडों खर्च कर त्यौहार मनाये जायें, आतिशबाजी की जाये, या महंगी थालियों में रंग-बिरंगे व्यंजन परोसे जाएं।
दिलीप जायसवाल