शनिवार, 23 जनवरी 2010

...तो लोकतंत्र का खूटां कहलाने का कोई हक नहीं

मीड़िया पर दायित्वों का सही निर्वहन नहीं करने पर हर रोज उंगलियां उठ रही हैं। आलोचना करने वालों में पत्रकारों के अलावा समाज का वह वर्ग भी जो मीड़िया से कभी अपने काले करततूतों के उजागर होने के भय से दहशत में रहता था। ऐसी स्थिति के लिए मीड़िया हर रोज कहीं न कहीं जिम्मेदार दिखता है।

15 जनवरी को देश के टेलीविजनों में जो स्थिति दिखी उसने एक बार फिर साबित कर दिया कि चैनलो की टीआरपी बढ़नी चाहिए, चाहे इसके लिए कुछ भी क्यो न दिखाना पडे़। यूं तो सूर्य ग्रहण पूरे दिन नहीं था लेकिन चैनलों ने सूर्य ग्रहण की खबर एक दिन पहले से जो दिखाना शुरु किया और ग्रहण खत्म होने बाद शाम तक ही नहीं बल्कि दूसरे दिन तक उसी की खबर दिखाई जाती रही। मानो ग्रहण ने चैनल वालो को जकड़कर रख लिया हो। एक चैनल ने तो पहले दिन स्टूड़ियो में कुछ वैज्ञानिको और ज्योतिषियों को बुलाकर ग्रहण पर गहमा गहमी की स्थिति बनाकर दर्शको को बांधे रखने की कोशिश की। दूसरे दिन इसी को ग्रहण पर सबसे लम्बी बहस बताकर दिखाया गया।
जब ये 15 जनवरी को ग्रहण की खबर दिखा रहे थे उसी दिन देश में सेना दिवस भी मनाया जा रहा था लेकिन उसकी खबर की बात तो दूर चैनलो में उसका स्क्राल तक नहीं चला। वो तो भला हो दुरदर्शन का जिसने इसकी खबर दिखा दी नहीं तो देश के लोगोें को यह पता भी नहीं चल पाता कि सेना दिवस किस तरह मनाया गया। यह पहली बार नहीं है जब ऐसी स्थिति बनी हो, इससे पहले भी चैनलों का गैर जिम्मेदाराना रवैया दिखाई देता रहा है।

कुछ दिन पहले मीडिया का एक और चेहरा दिखाई दिया। यहां कोई मीडिया कर्मियों को दायित्व से विमुख करने वाले उनके पूंजीपति मालिक नहीं थे, बल्कि वे बिना किसी दबाव के अपनी मानवता का परिचय दे सकते थे। लेकिन मानवता की मानसिकता के स्थान पर समाचार और टीआरपी की मानसिकता मौजूद थी। तमिलनाडु में हुए उस घटना को कैसे भुलाया जा सकता है, जहां अपराधियों ने एक पुलिस अधिकारी का पैर काटकर सड़क पर फेंक दिया था। मीडिया के कैमरामैन तथा पत्रकार अलग-अलग एंगल से उस घायल अधिकारी का फुटेज बना रहे थे। कुछ देर बाद पुलिस अधिकारी की मौत हो जाने पर मीडिया वहां मौजूद मंत्रियों को दोषी ठहराने लगी। मीडिया द्वारा यह कहा जाने लगा कि मंत्री अगर चाहते तो उसकी जान बच सकती थी, वे उसे अस्पताल भेजवा सकते थे।

चलो मान गये कि मंत्रियों ने जो किया उन्हें उसकी सजा मिलनी चाहिए क्योकि किसी मंत्री के सामने कोई कराहते हुए मर जाये। सवाल उठता है कि क्या वे मीडियाकर्मी मंत्रियों की लापरवाही को देखते हुए खुद उस पुलिस अफसर को अस्पताल नहीं पहुंचा सकते थे। मीडियाकर्मियों की क्या यही ड्यूटी है कि वे किसी मरते हुए का वीडियो बनाये और दूसरों पर मानवता कि बात करते हुए आरोप मढे। मीडियाकर्मी यहां पर उस खबर को दिखा कर जितना हीरो बने उतना हीरो उस अफसर की जान बचा कर भी बन सकते थे।

अभी भी वक्त है मीडिया अपनी जिम्मेदारियों को समझें, नही तो हालत ऐसी बन गई है कि मीडिया की बातों पर लोग विश्वास करना छोड़ रहे है और अगर मीडिया जगत का काला चिट्ठा आम लोगों के बीच सरलता से और बड़े पैमाने पर आने लगा तो मीडिया के प्रति लोगों का बचा हुआ विश्वास भी नहीं रह जायेगा।

कुछ दिन पहले बनी बालीवुड की फिल्म पा में मीडिया की एक भयावह तस्वीर दिखती है जो सच्चाई का एक छोटा सा नमुना है। इस फिल्म में नये चैनलों के आगमन के बाद दूरदर्शन के प्रति बनी मानसिकता पर सकारात्मक माहौल पैदा किया गया है।

मीडिया अपने काम करने के प्रवृत्ति में सुधार नहीं कर सकता तो कम से कम वर्तमान हालत में लोकतंत्र के चैथे स्तंभ का तमगा को अलग रखते हुए खुलकर बनिये की दुकान की तरह अपनी संस्थाओं का संचालन करना चाहिए ताकि कम से कम लोकतंत्र की गरिमा की रक्षा हो सके। वैसे भी नेता मंत्रियों और रिश्वतखोरी करने वाले न्यायधीशों ने इस लोकतंत्र को निगल कर अपनी व्यवस्था कायम करने की पूरी कोशिश की है और उसमें भी तमाम प्रयासों के बाद कोई सुधार होते नहीं दिख रहा है।
-दिलीप जायसवाल, रायपुर

सोमवार, 18 जनवरी 2010

जंगलों से बाहर भी बदहाल राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र

राष्ट्रपति के दत्तक पु़त्र पहाड़ी कोरवाओ की संख्या छत्तीसगढ. में दस हजार से ज्यादा नहीं है। वहीं पहाड़ी कोरवाओं के विकास के लिए अब तक करोडों रुपये खर्च किया जा चुका है। इसके बाद भी पहाड़ी कोरवा विकास की मुख्य धारा से नहीं जुड़ सके हैं। वे आज भी जंगलो में कंद मूल खाकर झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर हैं। वहीं जो पहाड़ी कोरवा परिवारो के साथ जंगलो और पहाड़ो से उतरकर गांवो में बस गए हैं, उनके विकास के लिए भी ईमानदारी से कोशिश नहीं की गई। जबकि अक्सर यह कहा जाता है कि पहाड़ी कोरवा पहाड़ों से उतरना ही नहीं चाहते।

पिछले दिनो सरगुजा के शंकरगढ़ इलाके में एक पहाड़ी कोरवा दंपति की झोपड़ी में जलकर मौत हो गई। वे रात में ठंड़ से बचने के लिए अलाव जलाकर सो गए थे। पहाड़ी कोरवा ठंड़ के दिनों में एक लकड़ी के बडे़ लटठे को जलाकर सो जाते हैं और सेकाने के लिए पूरी रात करवट बदलते रहते हैं और रात गुजर जाती है। इनके विकास की योजनाओं को संचालित करने के लिए विशेष रुप से पहाड़ी कोरवा विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है। इसके माध्यम से हर साल पहाइ़ी कोरवाओं के विकास के लिए लाखों रुपए खर्च किया जा रहा है। लेकिन नौकरशाही रवैये और भ्रष्ट्राचार के कारण विकास की किरणों से कोशों दूर है।

इस पिछड़ी जनजाति की विकास के नाम पर इन्हें साईकिलें बांटी गई, खेती के लिए उन्नत किश्म के खाद बीज और पशु पालन तथा मछली पालन से उन्हें जोड़ने के तमाम प्रयास हुए, प्रयास सरकारी अदूरदर्शिता के कारण असफल साबित हुए है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है जब पहाड़ में रहने वाले व्यक्ति को सायकल दिया जायेगा, तो वह क्या करेगा। आज भी खेती के लिए इन्हें दिया जाने वाला खाद बीज, फावड़ा, सब्बल और खेती के दूसरे हथियार भ्रष्टाचार के भेंट चड़ रहे हैं। इनके विकास के पैसे से सरकारी नुमाईंदें लाल हो रहे है।

राज्य के सरगुजा, जशपुर और कोरबा में पाये जाने वाले पहाड़ी कोरवाओं की एक बड़ी संख्या पहाड़ों से गांव की ओर रूख किया और वे गांव के आस-पास रहने लगे। सरगुजा के नान दमाली की पहाड़ी में दर्जनों पहाड़ी कोरवा परिवार रहते हैं। इनके लिए बुनियादी सुविधाएं तो दूर की बात पीने के लिए एक अदद हैण्डपम्प या कोई दूसरा साधन विकसित नहीं किया जा सका है। ये नदी पोखर का पानी पीने के लिए मजबूर है। पहाड़ी कोरवाओं को विलुप्त होते देख सरकार ने नशबंदी जैसे अभियान से इन जनजाति को अलग रखा है। यही कारण है कि इनके बच्चों की संख्या दर्जन भर तक होती है, लेकिन गरीबी के कारण वे उनका सही तरीके से देखभाल नहीं कर पाते। ऐसे में कई बार पहाड़ी कोरवा नशबंदी केंद्रों में पहुंचते हैं तो डाक्टर नशबंदी करने से मना कर देते हैं।

देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जब पहली बार सरगुजा के आदिवासियों से मिले उनमें पहाड़ी कोरवा भी थे। एक पहाड़ी कोरवा से राजेंद्र प्रसाद ने जब पूछा कि रोटी खा लिए हो तो उसने रोटी शब्द से अनभिज्ञता जाहिर की थी। यह देखकर राजेंद्र प्रसाद भी इस जनजाति की दयनीय हालत को देखकर सोचने के लिए मजबूर हो गये थे। उन्होंने इस जनजाति के इस पिछडे़पन के कारण उन्हें राष्ट्रपति गोदपुत्र के रूप में घोषित किया था।

पहाड़ी कोरवा ठिगने कद वाले होते है। ये काले रंग के होते है। इन्हें निग्रांे और द्रविड़ के कोलारियस प्रजाति का माना जाता है। डाल्टन ने कोरवाओं को प्राचीन आदिमानव की कोलेरियन प्रजाति के समूह का एक वर्ग माना है। पहाड़ों में रहने वाली यह जनजाति समय के साथ-साथ मैदानी क्षेत्रों में भी आकर बसने लगा। जिन्हें मैदानी या देहाती कोरवा कहा जाता है। ये साल के डंगलों और उसकी पत्तियों से झोपड़ी बनाते हैं। ये बांस का झोपड़ी बनाने में उपयोग नहीं करते है। पहाड़ी कोरवा पछिमा देवता की पूजा करते हैं, इनके परिवार में पति-पत्नी और अविवाहित बच्चे होते हैं। शादी के बाद बच्चे अलग रहने लगते है। पहाड़ी कोरवाओं का दस गौत्र होता है, इनमें इसिट, कुदूम, मुठियार, गिनुमन, तेलिहा, तेनुरिहा, गिढुवार, इदमी, हसदा और पमाट है। इनमें संगौत्र विवाह की मनाही है। वर पक्ष वधु की तलाश करता है। वर पक्ष वधु पक्ष के घर जाता है और रात भर वहीं रूकता है, इस दौरान अगर सियार की आवाज सुनाई देती है तो शादी का रिश्ता तय नहीं हो पाता है। सियार की आवाज को यह जनजाति अशुभ मानती है। ऐसी स्थिति नहीं आने पर लड़की पक्ष लड़के पक्ष को कुछ रूपये देकर ससम्मान वापस भेजता है। उसके बाद वर पक्ष कुछ दिनों में चावल और चावल से बना शराब (हड़िया) लेकर पहुंचता है, जिसे पीकर खुशियां मनाई जाती है और शादी का दिन तय किया जाता है। शादी सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को छोड़कर दूसरे दिन सम्पन्न नहीं होता है। शादी से पहले वर पक्ष डेढ़ क्विंटल धान (तीन खण्डी पांच तामी धान) तथा माय कापड़ देता है। माय कापड़ बुनकर द्वारा बुना गया कपड़ा होता है जो वधु के मां के लिए होता है। शादी के लिए ये साल के तनों से मंडप तैयार करता है। शादी पांच दिनों तक चलती रहती है।

शादी दो प्रकार से की जाती है। ठांड मांदी विवाह में तत्काल विवाह कराया जाता है जिस दिन बारात आती है उसी दिन विवाह हो जाता है, जबकि बैठमांदी विवाह में बारात रातभर वधु पक्ष के घर आकर रूकती है और दूसरे दिन शादी होती है। पहाड़ी कोरवा घर में लड़की पैदा होने पर ज्यादा खुशियां मनाते हैं, वहीं मासिक धर्म के दिनों में महिलाओं को खाना बनाने पर मनाही होती है। हालांकि स्त्री परिवार की प्रमुख इकाई होती है।

पहाड़ी कोरवाओं में पितृ सत्तातमक परिवार होता है। ये लंगोट धारण करते है और महिलाएं एक ही कपड़े को लपेट कर पहनती है। पहाड़ी कोरवा कंद मुल के अलावा भेलवा और तेंदू फल तथा साल बीज को उबाल कर खाते हैं। ये जब जंगल में शिकार के लिए निकलते हैं तो तीर, धनुष तथा कुल्हाड़ी प्रमुख हथियार होता है। ये पारम्परिक तरीके से कोदो, कुटकी के अलावा और धान की भी खेती करने लगे है। हालांकि आज भी जीविकोत्पार्जन और अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्रतोत जंगल से लकड़ी काटकर बेचना ही है।

पहाड़ी कोरवा मृतक के सिर को उत्तर की तरफ रखकर उसका अंतिम संस्कार करते है, जबकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु पर उनकी लाश पेड़ के नीचे जमीन पर गाड़ देते है। मान्यता है कि इससे बच्चे की आत्मा उनके घर में नये शिशु के रूप में आता है। वहीं जब परिवार का कोई मुखिया मरता है तो वे उस झोपड़ी को तोड़कर नई झोपड़ी दूसरे स्थान पर बना लेते है।

पहाड़ी कोरवाओं के परम्पराओं के बीच वर्तमान हालत को देखकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू की एक पंक्ति याद आती है। उन्होंने कहा था - जनजातियों का विकास उनके स्वयं के परिधि में किया जाना चाहिए तथा उन पर कुछ भी अध्यारोपित नहीं करना चाहिए। पहाड़ी कोरवाओं के विकास के लिए वाकई में आजाद भारत के पचास साल बाद भी ईमानदारी से कोशिश नहीं की जा रही है और न ही जवाहर लाल नेहरू की इन पंक्तियों को याद रखा जा रहा है।-दिलीप जायसवाल

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

नौकरशाही में तैयार हो रहा नक्सल भूमि

शाम ढलते ही सन्नाटा, चरवाहे भी गाय बैल लेकर जल्दी घर आ जाते थे और घरों के दरवाजे बंद हो जाते थे। रात में किसी का भी पदचाप सुनकर रोगंटे खडे हो जाते थे। कभी भी कहीं भी किसी की हत्या कर दी जाती थी। घर जला दिए जाते थे, मारा पीटा जाता था और लोग सब कुछ खामोस होकर देखते रह जाते थे। रिर्पोट पर पुलिस भी दहशत से वर्दी उतार कर दूसरे दिन पहुंच पाती थी।

तीन चार सालों से परिस्थितियां बदली है। हां मैं बात कर रहा हूं, छत्तीसगढ. के उत्तर में स्थित सरगुजा क्षेत्र की। नया राज्य बनने के साथ ही झारखंड से यहां नक्सली संगठन एम सी सी का आगमन हुआ। नक्सली संगठन के अधिकतर नेता झारखंड के थे। सरगुजा के युवाओं को वे गुमराह कर अपने साथ करने लगे। बाद में एमसीसी का विलय पीपुल्स वार ग्रुप में हो गया। इससे नक्सलियों की ताकत और बढी। सरगुजा में नक्सलियो की खूनी खेल को अपनी आखों से देखा हूं। अब मुझे जब भी वो दिन याद आते हैं तो कुछ पल के लिए खामोश हो जाता हूं। उस वक्त गांव में एक रात भी चैन के साथ गुजरती थी तो ऐसा लगता था मानो कई रात गुजर गए। उस समय स्कूल में पढा करता था।

नक्सलियों का खौफ इस कदर था कि लोग नक्सलियों का नाम लेने से घबराते थे। मुझे याद है शंकरगढ क्षेत्र में एक पटवारी की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी, तब तात्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी घटना के दूसरे दिन वहां पहुंचे थे। मुख्यमंत्री का भाषण सुनने वालो की भीड में खडा था, लोगों को उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री उस घटना पर कुछ बोलेगे, लेकिन मुख्यमंत्री की जुबान से एक शब्द भी नही निकला। दहशत जदा लोग फिर अपने घरों में आकर दुबक गए।

एक और घटना याद है जब गांव में पन्द्रह अगस्त के दिन तिरंगा की जगह पूरे दिन काला झंड़ा फहरता रह गया। यह काला झंडा नक्सलियों ने फहराया था। स्कूल के एक लड़के ने उस काले झंडे़ को उखाड़ कर फेकने की कोशिश की तो दहशत से शिक्षक और दूसरे लोगों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। बाद में शिक्षक ने बच्चों को मिठाई बांटकर घर के लिए भेज दिया। लेकिन दूसरे दिन उसी लड़के ने उस काले झंडे को उखाड़कर फेका। उसके बाद दहशत के कारण लड़के के मां बाप उसे लेकर दो तीन दिन के लिए गांव छोड़कर दूसरे गांव चले गए।

नक्सलियों का दहशत इतना था कि कोई व्यक्ति घर से बाहर जाता था और शाम तक लौट कर नहीं आ पाता था या लौटने में देर होती थी तो परिवार की सदस्यों की धड़कने अनहोनी की आशंका में रोने लगते थे।
मैने वह हालत भी देखा है, जब नक्सली शाम को किसी के घर भी घुस जाते थे और मुहल्ले में दर्जन से अधिक की संख्या में बंटकर दहशत के बल पर खाना बनवाते थे। ऐसी स्थिति में कई बार परिवार के लोगों को भूखे सोना पड़ता था। दूसरे दिन जब इसकी जानकारी पुलिस को लगती थी, पुलिस गंाव पहुंचती थी और उन परिवार के सदस्यो को उठाकर पुछताछ के नाम पर थाने ले जाती थी। जहां उन्हें कई-कई दिनों तक बैठाकर रखा जाता था। जब वे घर लौटते थे, तो कई बार नक्सली मुखबीर होने का आरोप लगाकर हत्या कर देते थे।

अत्याचार करते हुए नक्सलियों को यहां अगर पांव पसारने में सफलता मिली तो मुख्य कारण था जमीन विवाद। जन अदालत लगाकर नक्सलियों ने विवादो का निपटारा कर कईयो को उनकी जमीन वापस कराया वहीं इन विवादो को निपटाने के नाम पर नक्सलियों ने दर्जनों लोगों की हत्या की। हलांकि धीरे धीरे ग्रामीण नक्सलियों की नियत को समझने लगे थे, अब नक्सलियों के प्रति ग्रामीण विरोध का रुप अख्तियार कर रहे थे कि ठीक इसी समय सरकार ने नक्सलियो से लोहा लेने के लिए आईपीएस एस आर पी कल्लूरी को पुलिस अधीक्षक के पद पर बलरामपुर में पदस्थ किया। इसके साथ ही नक्सलियों के खिलाफ कार्यवाही हुई। दर्जनो मुठभेड़ हुए और दर्जनो बडे़ ओहदेदार नक्सली मारे गए। जब मुठभेड़ों में जवान शहीद होते थे और उनकी लाशें जिला मुख्यालय गाड़ियों में भरकर लाया जाता था तो शहर के लोगों के लोगों की भीड़ ऐसी उमड़ती थी कि लोगों को रोकना पड़ता था। जब षहीद जवानों के शव ताबूतों में बंदकर उनके गांवों के लिए भेजा जाता था तो उनके साथियों के आंसूओं को देखकर ही लोगों की आंखें नम हो जाया करती थी।

मुठभेड़ों में कई नक्सलियों की गिरफतारियां भी हुई। इससे नक्सलियों के खिलाफ मुंह खोलने के लिए लोगों को ताकत मिली और पहली बार प्रतापपुर क्षेत्र के जजवाल सहित आस-पास के ग्रामीणों ने नक्सलियों के खिलाफ रैली निकाली। इसी दौरान सरकार ने नक्सलियों के आत्मपसमर्पण के लिए पुनर्वास नीति का ऐलान किया। इसके तहत कुछ स्थानीय ऐसे युवक जो नक्सलियों के साथ हो लिए थे, उन्होंने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण किया। यह अलग बात है कि उन्हें पुनर्वास नीति के तहत क्या मिला। हालांकि इन कार्यवाहियों को लेकर पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ों का भी आरोप लगे। वहीं इन कार्यवाहियों के बाद सरगुजा क्षेत्र में नक्सलियों की कमर टूटनी शुरु हुई। आज यहां के लोग पहले की अपेक्षा भय मुक्त होकर जिदंगी जी रहे हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि जिन कारणों से सरगुजा मे नक्सलियों के पांव गहरे हुए थे, वे कारण नौकरशाही के कारण आज भी विद्वमान है। अब नक्सलियों के नहीं होने के बाद भी जमीन विवादो को लेकर हर साल यहां दर्जनों हत्या की वारदात होती रहती हैै। वहीं पंचायतो में खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। कहने से कोई हिचक नहीं कि जब यहां नक्सलियों का खौफ था तब कोई भी सरपंच कम से कम किसी विधवा का पेशन डकारने की दुस्साहस तो नहीं ही कर पाता था आज सरकारी नुमांइदों की इतनी दहशत नहीं कि कोई सरपंच या सचिव किसी विधवा की मौत के बाद उसे मिलने वाली पेशन की राशि खाने से पहले थोड़ा भी सोचे। इस ओर सरकार को गंभीर होने की जरुरत है, जो दिखाई नहीं दे रही है। ऐसे में नक्सली आतंक से मुक्त गांवों में विकास और सरकारी नुमाइंदों के प्रति आम लोगों में लंबे समय तक भरोसा बना रहे वह सहज दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में यहां फिर से यही सब नक्सलियों के लिए पैर जमाने खाद बीज बने तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।
दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

मांदर की थाप और कुहू-कुहू

मांदर की थाप गांव के दूसरे छोर में गुंज रही थी। शैला नृत्य कर रहे लोगों ने मुझे देखा तो वे और भी मस्त होकर नाचने लगे, मांदर की थाप की आवाज बढ गई। वे मुझे भी नाचने के लिए कहने लगे। उनका जोश और उत्साह देख खुद को नहीं रोक पाया। गलियों में उनके साथ आधा घण्टे तक झूमने के बाद वे मुझे महुआ शराब पिलाकर स्वागत करना चाहते थे, जब मैंने मना किया तो वे गुड खिलाकर पानी पिलाये।

गांव और यहां रहने वाले लोगों से मुझे जो अपनापन मिलता है, जो प्यार मिलता है वह और कहीं नहीं। मैंने मिडिल स्तर से आगे की प$ढाई शहर में जाकर की, लेकिन गांव के प्रति मेरा लगाव आज भी कम नहीं है। दस साल हो गए, गांव कभी-कभार ही जा पाता हूं। मोबाइल फोन की सुविधा होने के कारण गांव के लोगों से बातचीत होती रहती है। कुछ दिन पहले एक दोस्त ने फोन किया और कहा - शैला नृत्य शुरू होने वाला है, आएगा क्या।

मंैने हामी भर दी। मुझे दो दिन बाद गांव के लिए निकलना था। शैला नृत्य और गांव का परिवेश मेरे दिलो दिमाग में दौडऩे लगा। जब रायपुर से टे्रन बैठा, रात भर मन में जल्दी गांव पहुंचने की बेचैनी छाई रही। मेरी नींद खुली तो उस वक्त टे्रन को अंबिकापुर स्टेशन पहुंचने में दो घंटे का समय शेष था। हाड़ कपाने वाली भीषण ठंड के कारण कुछ और गर्म कपड़ों से लदा ,चाय की चुस्की लेते-लेते अम्बिकापुर स्टेशन पहुंचा। ठंड के साथ चारो तरफ कोहरा छाया हुआ था और खेत बर्फ की पतली चादरों से सफेद दिख रहे थे। धीरे-धीरे सूरज भी निकल रहा था। सूरज की लालिमा दिखने के साथ ही आटो से अंबिकापुर शहर छोड़कर और फिर बस में बैठकर गांव के लिए निकला।

बस में बजता गीत - मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती और बस से बाहर देखने पर पर रवि की लहलहाती फसलें, खेतों में काम करते किसान, खलिहानों में धान की म$डाई करने में लगी महिलाएं। यह सब देखकर सुखद अनुभूति हो रही थी कि अपनी मंजिल तक पहुंच गया, लेकिन गांव अभी भी यहां से १२ किलोमीटर दूर ही था। मोटरसायकल में मुझे लेने के लिए दोस्त वहां पहले से ही मौजूद थे। उनके साथ गांव के लिए निकला। सड़क के दोनों ओर जंगल और कुछ दूर तक टायरिंग की हुई सड़क। जंगल से निकलने में अभी एक-डेढ़ किमी का रास्ता बचा हुआ था कि यहां तक शैला के मांदर की थाप सुनाई दे रही थी। कुछ ही देर में गांव पहुंच चुका था, गांव में पहुंचने की खबर दोस्तों से शैलानृत्य के सदस्यों को मिली। वे हमारे घर की ओर पहुंचे, जैसे ही घर के बाहर निकला वे मुझे अपने साथ कर लिये।

वैसे तो शैला नृत्य पहले से देखता आ रहा था, लेकिन इस बात को लेकर अक्सर चिंतित रहता था कि इसके कलाकारों की संख्या कम होती जा रही है। आज ऐसा नहीं था। १५ से २० साल के लडके भी पारंपरिक परिधानों में आकर्षक रूप से शैला नृत्य में लगे थे और अब जब यह सब कुछ लिख रहा हूं, गांव में चल रहा शैला नृत्य और उसके मांदर की थाप के साथ-साथ कुहू-कुहू की आवाज मेरे कानों तक पहुंच रही है। ऐसी आवाज नृत्य दल का सदस्य निकालता है। कुहू-कुहू आवाज निकाल कर शैला खेलने वाले एहसास दिलाते है कि बसंत का मौसम आने वाला है। बसंत के मौसम में कोयल कुछ इसी तरह से आवाज करती है।

धान-चावल शैला खेलने वालों को दिया जाता है। उसका अर्थ संपन्नता से लगाया जाता है। यह नृत्य ग्रामीण खेती-किसानी का काम खत्म होने के बाद करते है। शैला और सुगा नृत्य सरगुजा के विशेष पारंपरिक नृत्य हैं। शैला पुरुष खेलते है जबकि महिलाएं सुगा। हालांकि संरक्षण के अभाव में धीरे-धीरे इन पारंपरिक नृत्यों का अस्तित्व खतरे में है। शैला नृत्य के कलाकार अभाव की जिंदगी जी रहे हैं।

शैला नृत्य दल में एक कलाकार चेहरे पर लक$डी का मुखौटा लगाकर बच्चों का मनोरंजन करता है। शैला नृत्य करने वाले सदस्यों के हाथ में एक-एक डंडा होता है, जो कई रंगों से रंगा होता है। डंडे में रंग-बिरंगे कपड़े बंधे होते है। डंडे ऐसे पेड़ों की लकडिय़ों से बनाये जाते हैं जिसके टकराने पर अच्छी आवाज आती हो। डंडों को कलाकार ग्राम देवता के समक्ष पूजा करने के बाद पकडते हैं और जब शैला नृत्य सप्ताह, १५ दिन में खत्म हो जाता है तो फिर से ग्राम देवता की पूजा कर साल भर के लिए उसके सामने डंडो को अर्पित कर देते हैं।

कलाकारों की सजावटी, वेशभूषा में गले पर सिक्कों की गुथी हुई विशेष माला होती है। पीले रंग की पगड़ी और चेहरे में खुशियों का प्रतिबिम्ब कलाकारों के जुनून को दर्शा रहा था। यह भी एहसास हो रहा था कि उन्हें अपनी संस्कृति और माटी से कितना प्यार है। सरगुजा के इस लोकनृत्य में काफी बदलाव आया हैं। पहले हर कलाकार के कमर में मयूर के पंखों से आकर्षक सजावट होती थी, पैरों में घूघंरू होते थे, अब यह सब नहीं। इस बार जो खास दिखा वह था, सभी के पैरों में जूते।

वहीं अगर कुछ नहीं बदला तो वह है अनुशासन। नृत्य के दौरान थोड़ी सी चूक होने पर फिर से नृत्य का क्रम शुरु किया जाता है। कम से कम गलती हो इसके लिए वे समूह बनाकर महीने-डेढ़ महीने लगातार अभ्यास करते है। समूह के मुखिया धर्मपाल ने बताया कि दो साल बाद गांव में शैला नृत्य हो रहा है। युवा और किशोरों की रूचि कम होते देख उन्हें अभ्यास के दौरान शामिल किया गया। इसका अच्छा परिणाम देखने को मिल रहा है। नये कलाकार उत्साह के साथ लगातार भाग ले रहे हैं।

शैला नृत्य करने वाले आसपास के गांवों में जाते हैं और इनका सम्मान और रहने-खाने की व्यवस्था गांव के लोग तो करते हैं, उस समय इन्हें ऐसा अपनापन मिलता हैं उसे शब्दों में बयां करना आसान नहीं है। जैसा कि अनुभव किया। वाकई में साफ तौर पर यह महसूस हो रहा था कि गांव में जो एकता, भाईचारा और प्रेम है वह शहरो में नहीं, चाहे भले ही लाखों-करोडों खर्च कर त्यौहार मनाये जायें, आतिशबाजी की जाये, या महंगी थालियों में रंग-बिरंगे व्यंजन परोसे जाएं।
दिलीप जायसवाल