सोमवार, 24 अगस्त 2009

भूख ने दरवाजा खटखटाया

आज सुबह किसी ने दरवाजा खटखटाया, मेरी नींद खुल गई। दरवाजा जैसे ही खोला कोई दूध या अखबार वाला नहीं था। एक महिला बच्ची को गोद में लेकर उसके खाने के लिए कुछ मांग रही थी। बच्ची भी रो रही थी, यह देखकर शुरू मे लगा कि वह ढकोसला कर रही है लेकिन जब रात का बचा हुआ भोजन खाने के लिए दिया तो बच्ची उसे खाने लगी और धीरें-धीरे उसने रोना भी बंद कर दिया। सानिया नामक यह महिला बताने लगी, बाबू- रात में न उसने कुछ खाया है और न मैने कुछ खायी है। मैनें किसी तरह भूख को बर्दास्त कर ली लेकिन कविता सुबह होते ही रोने लगी। ठेकेदार के यहां काम भी की है, महीने भर से ज्यादा हो गया है लेकिन उसने पैसे नहीं दिये हैंै। कविता कुछ खाने के बाद गोद से उतरने की कोशिश करने लगी, गोद से उतरते ही खेलने लगी। यह देख मुझे बडा अफसोश होने लगा कि जाने कितने लोग भूखे पेट ही सो जाते हैं और कितने लोग थाली में ही खाना छोड देते हैं। कितने घरों में सुबह बासी समझकर फेंक दिया जाता है, कितने लोग मोटापा घटाने कम खाते हैं। यह सोच ही रहा था कि सानिया मुझे खामोस देख बोल पडी। बाबू- हम यहीं पर स्कूल के पीछे वाली बस्ती में रहते हैं कभी जरूर आना। प्रस्तुत कत्र्ता- दिलीप जायसवाल