मंगलवार, 28 जुलाई 2009

बाजार वाद के मकड़ जाल में ग्रामीण पत्रकारिता

गांव, खेत, खलिहान और भी बहुत कुछ। विकास के लिए चलाई जा रही योजनाओं का हाल, ग्रामीणों की संस्कृति और रहन-सहन आदि। ऐसी कई चीजें हैं जो ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से मीडिया तक पहुंच पाती है। लेकिन मीडिया गांव की खबरों को कितना महत्व दे रहा है, यह किसी से छुपा हुआ नहीं हैं। भूत-प्रेत और अंधविश्वास की खबर हो तो भले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा उसे विशेष कार्यक्रमों में पैकेज बना कर दिखाया जाता है। लेकिन दो वक्त की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ों के मोहताज लोगों की आवाज को मीडिया भी धीरे-धीरे अनदेखा करने लगा है। मीडिया बाजारवाद की मोह माया में फंस कर अपना दायित्व भुलता जा रहा हैै। ऐसे में जब हम संचार सुविधाओं को प्रेस के विकास के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं तो यह बात पचने वाली नहीं लगती। सच तो यह है कि इससे प्रेस का नहीं बाजारवाद का विकास हुआ है। सबसे अधिक बाजार अमीर वर्ग करता है। ऐसे में संचार माध्यमों अर्थात मीडिया में गांवों में कुपोषण से मरने वाले टीव्ही स्क्रीन में अपना जगह शायद ही बना पाते हैं, क्योंकि इससे उनकी टीआरपी नहीं बढ़ती और न ही रईस समझे जाने वाले एयर कडिशनर में बैठ कर ऐसी खबरें देखना पसंद करते हैं। वहीं एक ग्रामीण पत्रकार कितने जद्दोजहद के बाद सूचनायें अपने जिला मुख्यालयों तक पहुंचाता है,यह चिंतन करने योग्य है। क्योंकि पत्रकारिता की पढ़ाई करने में लाखों रूपये खर्च करने के बाद बना पत्रकार गांव में जाकर पत्रकारिता करने में रूचि नहीं रखता। वह भी मोटी तनख्वाह और सुख-सुविधाओं की ख्वाहिस करता है। ऐसे में अगर आज गांवों और कस्बाई क्षेत्रों की खबरें संयोग से अखबारों और टीव्ही चैनलों की सुर्खियां बन पाती हैं तो उसमें उसी पत्रकार का अथक मेहनत होता हैं, जिन्हें ठीक से कागज और कलम तक का पैसा नहीं मिलता। अखबार का जितना कमीशन मिलता है, वही उसका कमाई होता है। आज गांवों में कितने अखबार बिक रहे हैं, इसे समझा जा सकता है। टीव्ही के स्टिंगर की बात करें तो कस्बाई इलाके के स्टिंगर की खबर चल गई तो वह उत्साह मनाता है, भले ही उस खबर का दो-चार सौ रूपये उसे कभी भी मिलें। हां लेकिन यह एक बड़ी सच्चाई है कि कई बार जमीन से जुड़े $इन पत्रकारों से ऐसी सूचनाएं मिलती है, जिन्हें सही आधार के साथ स्वरूप देकर खबर बनाई जाती है तो खबर हिट हो जाती है। यहां हिट कहने का तात्पर्य केवल टीआरपी बढ़ाने से नहीं है, बल्कि ऐसी खबर जो सरकार को कुंभकर्णी नींद से जागने को मजबूर कर देता है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के घोर नक्सल प्रभावित वाड्रफनगर में अखबारों के संवाददाता के रूप में काम करने वाले अजय सिंह कहते हैं कि वे पिछल १० सालों से जिला मुख्यालय तक खबरें पहुंचा रहे हैं। अब तो फोन और नेट के माध्यम से भी खबर पहुंच जाता है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। कभी फोन खराब रहता था, तो कभी दूसरी समस्या। हालत आज भी कोई खास नहीं सुधरी है, लेकिन पहले से बेहतर है। उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, वे दूरदराज के गांवों से खबरें अखबारों तक पहुंचाते हैं। कभी मलेरिया और उल्टी-दस्त से होने वाली गरीबों की मौत की खबर, तो कभी सरकारी योजनाओं का हाल। अजय सिंह की बातों से साफ झलकता है कि अगर गांवों की खबरें मीडिया तक न पहुंते तो गांवों की हालत कैसी है, शायद शहर में बैठा आदमी नहीं जान सकता। वैसे भी हमारा देश गांवों का देश है और गांव की हालत जाने बगैर हम यह नहीं जान सकते की देश की स्थिति कैसी है। इन सब के बाद भी एक और गंभीर पहलु है कि आज अखबारों के इतने संस्करण हो गये हैं कि वहां की खबर उस जिले तक ही सिमट कर रह जाती है। कभी-कभार ही राजधानी के संस्करणों के किसी स्थान पर मुश्किल से गांव की खबरें अपना जगह बना पाती हैं। हालांकि यह कहने में भी तनिक संकोच नहीं कि गांव की खबरों को भी राजधानी से निकलने वाले संस्करणों में स्थान मिल रहा है, लेकिन बहुत कम। सवाल आता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है, तो जवाब भी स्पष्ट है कि मीडिया बाजारवाद की चपेट में पूरी तरह से आ चुका है, वह उसी खबर को अपने संस्करण में शामिल करता है जिसे ज्यादा लोग देखना या पढऩा चाहेंगे। ऐसे में राजधानी स्तर पर जहां सरकार के बड़े मंत्री और जनप्रतिनिधि तथा अधिकारी बैठते हैं उन तक खबरों के माध्यम से गांवों की तस्वीर नहीं पहुंच पाती। इसके लिए मीडिया भी अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। जैसा की पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि उपभोक्तावाद हमारा समाज ही इसके लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। मीडिया के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वह देश का यानि गांवों का असली चेहता सीधे तौर पर नीति-निर्धारकों तक पहुंचा सके। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, मीडिया ने ग्रामीण पत्रकारिता को मजबूत बनाने की कोशिश भी की है। परिणाम सामने है कि गांवों में सुदूर क्षेत्रों तक अखबार पहुंचने लगा है, लेकिन इसका उद्देश्य कुछ और ही है, जिसे उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना कह सकते हैं। सकारात्मक दृष्टि से यह भी कहा जा सकता है कि इन बीहड़ क्षेत्रों तक रोज अखबार का पहुंच पाना आसान नहीं है, वहां बासी अखबार पहुंचता है लेकिन लोग उसे बासी नहीं बल्कि ताजा मान कर पढ़ते हैं। यह कारण है कि पहले की तुलना में गांव में जागरूकता भी आई है। मीडिया ने लोगों को अपने हक के प्रति काफी हद तक संघर्ष करने के काबिल बनाया है। लोगों को कम से कम इतना ज्ञान हो गया है कि क्या गलत और क्या सही है। लोग अपने अधिकारों को लेकर अफसरों के दरवाजे खटखटाने लगे हैं और जब उन्हें लगता है कि उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है तो वे मीडिया का सहारा लेते हैं। मीडिया का भी असर नहीं हुआ तो वे अपना दूसरा रूप भी दिखाते हैं जो विरोध प्रदर्शन और चक्काजाम के रूप में दिखता है। ऐसा नहीं है कि पहले अधिकारों को लेकर अत्याचार नहीं होता था। लेकिन अब वे अपना आवाज खुद ही बुलंद करने लगे हैं। फिलहाल यह अंकुरण काल से गुजर रहा है। अभी मीडिया और ग्रामीणों पत्रकारों पर चुनौती भरे इस दौर में दायित्व काफी ज्यादा है। प्रस्तुत कर्ता-दिलीप जायसवाल

मीडिया शिक्षा मूल से भटकाव की ओर

भारत में प्रेस अर्थात मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है,लेकिन आज देश में स्तंभ के लिए जहां से खूंटे तैयार किये जा रहे हैं। वहां की हालत कैसी है यह एक गंभीर मुद्दा है। दूसरे शिक्षा की तरह इसे भी उसी भीड़ में शामिल करके देखा जा रहा है। जो किसी खतरे से कम नहीं है। मीडिया संस्थान मोटी रकम वसूल कर पत्रकार बनाने की बात करते हैं वहीं युवा रोजगार और मीडिया की बाहरी चका चौंध से प्रेरित होकर पत्रकारिता के संस्थानों में दाखिला ले रहे हैं लेकिन मीडिया की समाज के प्रति क्या जिम्मेदारियां है और मीडिया में चल रहे संक्रामण काल में उन्हें किस तरीके से अपने दायित्वों का निर्वाहन करते हुए एक सजग पत्रकार की भूमिका निभानी है। उन्हें इसकी शिक्षा न देकर प्रबंध की शिक्षा दी जा रही है जो गलत भी नहीं है लेकिन जिस तरीके से पत्रकार तैयार किये जा रहे हैं उसमें वहीं पर पत्रकारिता की आत्मा को मार दिया जा रहा है। यह जरूर है कि बड़े मीडिया समूह इनमें से अधिकतर को अपने साथ रख लेते हैं लेकिन उनका क्या हो रहा है जो भारी भरकम फीस देकर इन संस्थानों में टीवी स्क्रीन पर चमकने का ख्वाब लेकर पहुंचते हैं। मीडिया शिक्षा देश में किशोर अवस्था में है और पिछले कुछ सालों से भी इसका प्रचार प्रसार भी हुआ है। मीडिया शिक्षा के लिए देश में दो सरकारी विश्वविद्यालय हैं। छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद रायपुर में स्थापित विश्वविद्यालय की स्थापना जिन उदद्ेश्यों के साथ वर्तमान दौर को देखते हुए की गई थी वह मीडिया के संक्रमण काल में पत्रकार तैयार करने के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है। लेकिन अभी भी इस ओर गंभीरता से बहुत कुछ करने की जरूरत है। देश में मीडिया शिक्षा संस्थानों की हालत कैसी है झांक कर देखने की जरूरत है। कई ऐसे संस्थान है जहां क्षेत्रवाद और जातिवाद की बात सुर्खियों के माध्यम से चर्चे में भी आती रही है। आईआईएमसी,बीएचयू और जामिया मिलिया की बात करें तो यहां मध्यम वर्गीय परिवार का हुनरमंद युवा पत्रकारिता की शिक्षा भारी भरकम फीस के कारण आसानी से ग्रहण नहीं कर पाता । ऐसे में इन संस्थानों तक ऐसे युवक युवतियां ही पहुंच पा रहे है जो आर्थिक दृष्टि से रईस परिवारों से तालुकात रखते हैं। हालत ऐसी बन रही है कि प्रोफेशनल होने का चादर ओढकर पत्रकारिता के लिए निकलने वाले इन नवोदित पत्रकारों से समाज की धरातल कोशो दूर रहती है ऐसे में ये आम आदमी की आवाज तो कम ही बन पाते हैं उससे ज्यादा चाटूकारिता कर आगे बढऩे का ख्वाब देखते हैं और इसमें कुछ सफल भी हो जाते हैं। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि ये कम से कम एक पत्रकार नहीं बन पाते । पत्रकारिता की नीति शास्त्र भी कहता है कि पत्रकारिता एक पेशा भर नहीं है बल्कि उसके बहुत ऊपर की एक अवधारणा है। यह एक मिशन है जो सामाजिक न्याय, मानवता ,समरसता ,स्वतंत्रता,सत्य के लिए कटिबद्ध है। समय की मांग व ठोस वास्तविकता ही है कि पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा हर कीमत पर की जानी चाहिए। दुर्भाग्य की बात है कि कई मीडिया शिक्षा संस्थान सिर्फ डिग्रीधारी पत्रकार बनाने की फैक्ट्री से और ज्यादा कुछ भी नहंीं दिखते । वहीं सरकारी संस्थानों की बात करें तो यहां राजनैतिक पहुंच के कारण कोई भी किसी भी पद का मालिक बन बैठता है। उसकी योग्यता और दक्षता को मापने की जरूरत ही नहीं समझी जाती। यहां बताना लाजमी होगा कि इन संस्थानों से निकलने वाले पत्रकर ऐसे भी हैं जिन्हें हिन्दी में ठीक से एक पैरा तक लिखना नहीं आता और न ही कैमरा को ट्राईपोड में रखना आता है। ऐसे में क्या मतलब हुआ,ऐसे पत्रकारिता के सरकारी संस्थानों का। अगर कोई संस्थान खुद को नया बताकर अपने छात्रों को नीव का पत्थर कहकर उन्हें खुश करने की कोशिश करें तो यह कहां तक सहंी है। जबकि उनकी हालत ऊपर वर्णित शब्दों से मेल खाती हो। ऐसे पत्रकार आखिर उस संस्थान का किस तरह से नीव में मजबूत ईंट बन पायेंगे या फिर पत्रकारिता की ईंट मजबूत करेंगे यह भी समझ से परे हैं।बाजारवाद के इस संक्रमणकाल में मीडिया जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है और जिस अंधेरी गुफा में जा रहा है कम से कम इस गुफा में जाकर मीडिया डिग्रीधारी टार्च दिखाने का काम कर सकें तो यह बेहतर होगा। नहीं तो यह मीडिया शिक्षा भी सिर्फ नौकरी पाने और इसके गेटपास से और ज्यादा कुछ भी नहीं रह जायेगा। वैसे भी गेटपास मिलने के बाद प्लेटफार्म में खुद को चलना होता है वहां चलने नहीं आया या फिर चलकर दूसरों की तरह आगे बढने की कोशिश होती रही तो वह न तो लोकतंत्र के खूंटे को मजबूत कर पायेगा और न ही खुद मजबूत हो पायेगा। इससे पहले गंभीरता से विचार करने की जरूरत है कि मीडिया शिक्षा संक्रमण से बाहर दुरूस्थ व्यवस्था के साथ आगे बढ़े, परिस्थितियों से मुकाबला करे और पत्रकारिता के मूल को जिंदा रखे। तभी मीडिया शैक्षणिक संस्थानों का दायित्व और मीडिया शिक्षा का उददेश्य पूरा हो पायेगा।