शनिवार, 13 दिसंबर 2008

गद्दार नेताओं को सबक सिखायेगी युवा शक्ति, सांसद भूले शहीदों को

देश के सांसदो ने उन शहीद जवानों को सात साल में ही भुला दिया जिन्होंने अपनी जान की कुर्बानी देकर संसद में हमला करने वाले आतंकियों को करारा जवाब दिया था। जवान हर रोज शहीद हो रहे हैं। ऐसे में जम्मू और काश्मीर में शहीद हो रहे जवानों को ये नेता कितना याद रखते होंगे समझा जा सकता है। पिछले माह मुम्बई हमले में हुए शहीदों को देश के सांसद भूल जायें तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। ऐसे में देश के हर नागरिक को चाहिए की वह ऐसे नेताओं को सबक सिखाये और शहीदों को कभी न भूले।
दुनिया में ऐसे कम ही लोग होते है जो अपना जान बचाने वाले को भूल जाते है। इन्ही में हमारे देश के सांसद भी शामिल हो गये है। आज 13 दिसम्बर को संसद में हमले का सात साल पूरा हुआ। हमले में शहीद हुए जवानों को श्रध्दांजलि देने के लिए आठ सौ सांसदों में महज बीस सांसद ही पहुंचे। दुर्भाग्य की बात है कि इनमें देश के गृह मंत्री, विदेश मंत्री भी शामिल है। अगर ये जवान उस दिन आतंकियो से मुकाबला नहीं किये होते तो सांसदो को बंधक बना लिया गया होता और आतंकी अपनी मांग पूरी कराये होते। यह भी कोई बड़ी बात नहीं थी कि सभी सांसदो को मौत के घाट उतार दिया जाता। शायद जैसे-जैसे यह घटना पुरानी होती गई सांसद शहीद जवानों को भुल गये और सिर्फ इस हमले के बाद फांसी की सजा पाने के बाद जेल में बंद अफजल पर राजनीति करना ही याद रह गया है। देश के नेता कितने गद्दार होते जा रहे हैं वह इसी बात से समझा जा सकता है कि संसद के दो कर्मचारी भी शहीद हो गये थे लेकिन उनके परिवार के लोग मदद की दरकार लिये दर-दर की ठोकरे खा रहे है। आज जब श्रध्दांजलि के नाम पर मुठ्ठी भर सांसद मौके पर पहुंचे थे तो वहां भी वे पहुंचे थे। लेकिन वहां उनकी बात मीडिया के अलावा किसी ने नहीं सुनी । पिछले महीने हुए मुम्बई हमले की घटना के बाद भी देश के नेताओं का असली चेहरा हर किसी ने देखा। इसके बाद भी ये अपने को नहीं बदल सके। शायद किसी ने ठीक ही कहा है कि कुत्ते का पुंछ कभी सीधा नहीं होता। हालात देखकर तो लगता है अगर सुभाष चन्द्र बोस जैसे देश भक्त आज अगर होते तो आजाद कहे जाने वाले भारत के इन नेताओं को सबक सिखाने से पीछे नहीं हटते। अभी भी वक्त है ऐसे नेताओं को सबक सिखाया जाये और खुद देश के लिए शहीद होने वाले जबांजो को अपना आदर्श बनाया जाये। देश की युवा शक्ति को आगे आने की जरुरत है और उसे इन नेताओं से भी सतर्क रहने की जरुरत है जो मंचो से भले ही उन्हें एक नई मंजिल की रोशनी दिखाते हैं। लेकिन लोकतंत्र के उत्सवों के दौरान इन युवाओं का किस प्रकार उपयोग होता है। अभी भी वक्त है हम संभल जाये वरना कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं होगा।

रविवार, 30 नवंबर 2008

बालको ने शिमला में घोला जहर, भूखे-नंगे आदिवासी बन रहे पहचान


छत्तीसगढ का शिमला कहे जाने वाले मैनपाट की प्राकृतिक वादियों में लगातार एक ऐसा जहर घुल रहा है जो इस शिमला के अस्तित्व के लिए कभी संकट बन सकता है। बॉक्साईट खादानों में होने वाले विस्फोटों के कारण प्रदूषण की समस्या तो वहीं जहां-तहां अवैध उत्खनन के कारण प्राकृतिक सुंदरता पर ग्रहण लग गया है। यहां के आदिवासियों के पास दो वक्त की रोटी बात तो दूर इस कड़कडाती ठण्ड में तन पर लपेटने के लिए ठीक से कपड़े तक नसीब नहीं हो रहा है।
सरकार द्वारा मैनपाट को पर्यटन के दृष्टि से विकसित करने प्रयास किया जा रहा है। पर्यटकों के रूकने के लिए होटल बनाया जा रहा है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि करोड़ों खर्च करने के बाद भी यहां की प्राकृतिक सौंदर्य को बचाने की कोशिश नहीं की जा रही है। सबसे बड़ी बात है कि यहां 15 साल से बालकों द्वारा बॉक्साईट का उत्खनन किया जा रहा है। बालकों ने उत्खनन के लिए हजारों पेड़ों की बली चढ़ा दी। लेकिन इस कंपनी ने इन 15 सालों में एक भी पेड़ तैयार नहीं किया है। जांच में बालको को दोषी भी पाया गया लेकिन अर्थदण्ड के अलावा प्रशासन ने जिम्मेदार प्रबंधन के अधिकारियों के खिलाफ अपराधिक प्रकरण दर्ज नहीं कराया । बॉक्साईट के खदानों में उत्खनन के लिए नियम कानून को ताक पर रखकर विस्फोट किये जा रहे है और प्रदूषण की समस्या बढ़ गई है लेकिन सरकार गंभीर नहीं है। अब तक बालको के खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति ही हुई है। जानकारी के अनुसार बालको को आईबीएम (इंडियन ब्यूरो माइंस) तथा पर्यावरण विभाग ने मैनपाट की प्राकृतिक संतुलन को ध्यान में रखते हुए बॉक्साईट उत्खनन करने का लाइसेंस दिया था लेकिन इसे नजरअंदाज कर बालको तीन साल से अवैध उत्खनन करती रही। इसकी जांच आईबीएम को करनी थी लेकिन इस पर भी खानापूर्ति कर ली गई। इस मामले में बालको के साथ ही कलेक्टर भी कटघरे पर दिखे थे आईबीएम ने खुद रास्ता साफ कर दिया । बताया तो यह भी जाता है कि इसमें आईबीएम के एक बड़े की मिलीभगत थी। इसके लिए बालको को लाखों का भेंट देना पड़ा। यह मामला मैनपाट की प्राकृतिक वातावरण पर हमले से जुड़ा हुआ था। इसके बाद भी प्राकृतिक संपदा और उसकी सुरक्षा का दंफ भरने वाले संगठन चुप्पी साधे हुए हैं।
बालकों ने जहां मैनपाट की प्राकृतिक संतुलन को तहस-नहस करना शुरु कर दिया है वहीं खदानों में काम करने वाले हजारों मजदूरों को सुअरों के लिए बनाये गये बाड़े जैसे झोपड़ियों में रहना पड़ रहा है। बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे है। खदानों में तीन हजार से अधिक मजदूर काम कर रहे है और बालको प्रबंधन द्वारा मजदूरों की हित में हर साल लाखों रूपये खर्च करने का दावा किया जाता है पर सच्चाई को छुपाया नहीं जा सकता है। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य की बात क्या हो सकती है कि खदानों में कई बार बच्चे भी काम करने के लिए मजबूर दिखाई देते है। बालको प्रबंधन द्वारा हमेशा से छला जा रहा है। मजदूरों का कहना है कि जब भी आंदोलन करते है तो उन्हें आश्वासन मिलता है लेकिन अब उम्मीदें नहीं है। बालको की इस रवैये का फायदा यहां के मजदूर संगठन और नेता उठाते रहे हैं। अब तो यहां तक कहा जाने लगा है कि जब मजदूर नेताओं का जेब खाली हो जाता है तो वे आंदोलन के लिए मजदूरों को उकसाते है और ऐसा आंदोलन हर माह दो माह में चलता ही रहता है। यह बताना लाजमी होगा कि मजदूर इन तथाकथित नेताओं के दलाली का शिकार हो रहे है। जब तक इन मजदूरों को सही नेता नहीं मिलेगा तब तक बालको प्रबंधन इनका शोषण करता ही रहेगा। कई बार ऐसी भी स्थिति बनती है जब मजदूरों के दिल में बालको प्रबंधन के खिलाफ विरोध की वाला भड़कती है तो वह भी दबकर रह जाती है क्योंकि मजदूर यादा दिनों तक विरोध करेंगे तो दो वक्त की रोटी भी नहीं मिल पायेगी। वहीं सरकार को तो बालको से यादा से यादा राजस्व चाहिए उसे मजदूरों की कराह सुनने की फुर्सत ही कहां है? मैनपाट के वातावरण में घुल रहे जहर का घातक परिणाम कभी भी भयावह हो सकता है और इसे यहां के रहने वाले माझी जनजाति को जूझना पड़ेगा। जब यहां बॉक्साईट की खदानें खुली तो आदिवासियों को सुखद अनुभूति हुई थी। लेकिन अब तो उनकी समाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को सुरक्षित बचाये रखना मुश्किल हो गया है।
मैनपाट के बदले हालात का अंदाजा पहली बार में नहीं लगा सकता आज से दस साल पहले जो मैनपाट गया होगा वह अब जाकर वहां की बदहाली को समझ सकता है। छत्तीसगढ़ के इस अभागे शिमला में रायपाल से ही कई नेता मंत्री हमेशा जाते रहे है। शायद उन्हें यहां के भूखे, नंगे आदिवासियों को देखकर खुशी होती है और वे इसी को आदिवासियों की पहचान मानते हैं। नये साल में बड़े-बडे अधिकारी मौज-मस्ती के लिए पहुंचते है। पिछले साल भी अधिकारी मौज-मस्ती के लिए पहुंचे थे जहां बच्चों ने उनके कप-प्लेट धोये थे और जूठा खाया था। अब नया साल आने वाला है ऐसे में ऐसा फिर हो तो कोई बड़ी बात नहीं। वैसे भी अब तो यहां यह रोज की बात हो गई है।
बालको द्वारा यहां से हर रोज सैकड़ों मिट्रिक टन बॉक्साईट का उत्खनन कर परिवहन किया जा रहा है। ओवरलोड की शिकायत आम रही है। इससे यहां की सड़क खस्ताहाल हो चुका है। यहां आने वाले पर्यटकों के लिए यह किसी खतरे से कम भी नहीं है लेकिन बड़ी बात तो यह भी है कि नेता मंत्रियों पर पहुंच रखने के कारण प्रशासन का आदेश भी बेअसर साबित होता है। सरगुजा कलेक्टर ने बालको प्रबंधन को जर्जर सड़क को बनाने कई बार निर्देश दिये लेकिन प्रबंधन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा।
सवाल यह उठता है कि अगर बालको ने ईमानदारी से मैनपाट के विकास के लिए काम किया होता तो मैनपाट के सपूतों को जूठे प्लेट और जूठन नहीं खाना पड़ता। शायद यही कारण है कि जशपुर में पूर्व केन्द्रीय मंत्री दिलीप सिंह जुदेव वहां बॉक्साईट का विशाल भंडार होने के बाद भी उत्खनन का विरोध करते रहे है। जब भी उनसे बॉक्साईट उत्खनन के विरोध का कारण पूछा जाता है तो उनका एक ही विचारणीय जवाब होता है कि आप मैनपाट और रायगढ़ की हालत नहीं देख रहे हैं। हम जशपुर को बदहाल नहीं बनना चाहते। श्री जुदेव का यह भी कहना है कि उद्योगों को बढ़ावा देने की जगह उसी धरती पर कृषि को उद्योग से क्यों नहीं जोड़ा जाता। चाहे जो भी हो मैनपाट का दर्द सुनने वाला कोई भी नहीं है और इस शिमला के आदिवासी प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के बाद भी बदहाली के बीच जीने को मजबूर है। वे अपनी प्रकृति की सुरक्षा करने में बेबस और लाचार दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में जरुरत है एक ऐसे मसीहा की जो फिर से लौटा सके यहां की आबो हवा में पसीना बहाने वालों की जिंदगी में खुशहाली ताकि पर्यटकों की तरह मुस्कुराता रहे मैनपाट।
प्रस्तुतकर्ता- दिलीप जायसवाल

बुधवार, 19 नवंबर 2008

गरीबी की मार, सजा सूअर का कच्चा मांस

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले कुपोषित बच्चे सुअर का कच्चा मांस खाने मजबूर हैं। कुछ बच्चे इतने पतले हैं कि उनकी हड्डियां दिख रही है । तीन-चार साल के उम्र के अधिकांश बच्चों का पेट निकला हुआ है। गर्भवती महिलाओं को सरकारी योजनाओं का लाभ मिलने की बात तो दूर उन्हें योजनाओं के बारें में कुछ भी नहीं मालूम है । लेकिन विधानसभा चुनाव प्रचार करने वाले नेताओं की नजर जानबूझकर यह हालात नहीं देखना चाहती ।
रायपुर में रईसों की कमी नहीं है । इनके बीच एक ऐसा वर्ग भी है जिसके पास न तो रहने के लिए घर है और न ही बच्चों का पेट भरने के लिए अनाज । यह जरूर है कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा तीन रूपये किलों में चांवल दिया जा रहा है। रिंग रोड़ स्थित न्यू राजेन्द्र नगर के बजाज कॉलोनी के बाजू में रहने वाले झुग्गी झोपड़ी निवासी ठाकुर राम पटेल के चार बच्चे हैं और उसकी पत्नी गर्भवती है। विधानसभा चुनाव के एक दिन पहले यानी आज 19 नवम्बर की सुबह से दोपहर तक ठाकुर राम पटेल के बच्चों ने कुछ भी नहीं खाया था । सूअर का मांस उसकी मां काट रही थी और बच्चे उसे खा रहे थे । कच्चा सूअर का मांस खाने की बात किसी को सहसा यकीन नहीं होता लेकिन राजधानी के गरीबों के बीच जाकर हकीकत देखी जा सकती है।
ठाकुर राम पटेल का कहना है कि भाजपा तथा कांग्रेस वाले वोट देने के लिए शराब बांट रहे है । उससे उसका क्या होने वाला है। कम से कम उन्हें अनाज देना चाहिए ताकि वह बच्चों का पेट पाल सके। वह दिन भर कबाड़ का काम करने के बाद भी इतना नहीं कमा पाता कि दोनों वक्त की रोटी बच्चों को खिला सके। उसकी झोपड़ी में कांग्रेस और भाजपा दोनों का चुनावी झण्डा लहरा रहा है। वह कहता है कि दोनों पार्टी के लोग झण्डा लगाकर चले गये हैं, लेकिन किसी ने उनका दर्द समझने की कोशिश नहीं की ।
प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

शनिवार, 1 नवंबर 2008

भगवान ने उसके लिए बंद कर ली है आंख

कहते है कि भगवान के करीब रहने वालों पर कोई आंच नहीं आती। यही कारण है कि लोग मंदिर और मस्जिद जाया करते है। लेकिन अगर कोई अपनी जिंदगी का महत्वपूर्ण पल मंदिर में गुजार दे और जब उसका शरीर जवाब दे तो उसे आसियाना की बात तो दूर दो वक्त की रोटी ही नसीब न हो। इसे क्या कहा जाये?
राजधानी रायपुर स्थित लाखेनगर भोईपारा स्थित भवानी मंदिर में शांति नामक एक महिला अपने पति के साथ तब तक काम की जब तक उसके हांथ-पैर चले और जब उसके पति की मौत हो गई तो उसे मंदिर प्रबंधन ने मंदिर से बाहर निकाल दिया। इस महिला की हालत यह है कि आज उसके हांथ पैर तक नहीं चल रहे और उसे दो वक्त की रोटी के लिए ही नहीं तरसना पड़ रहा है बल्कि सिर छुपाने के लिए कोई जगह भी नहीं है। वह मंदिर से चंद कदम की दूरी पर एक चौराहे में बने घर की ओट पर पिछले तीन सालों से पड़ी हुई है। वह बताती है कि आस-पास के लोग उसे खाने के लिए कुछ ला देते है।
मंदिर प्रबंधन यह बात जरुर स्वीकार करता है कि शांति अपने पति के साथ मंदिर में काम करती थी लेकिन उसे वृध्द होने पर बाहर क्यों निकाला गया। मंदिर प्रबंधन के पदाधिकारियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। शांति की एक बेटी है जिसकी शादी के बाद उसके पति की भी मौत हो गई है। वह भी उसे कभी-कभार ही देखने पहुंचती है।
शांति कहती है कि उसने तो अपनी जिंदगी का अहम दिन मंदिर में मां भवानी की सेवा में ही गुजार दी। उसके बाद भी उसे यह दिन देखने पड़ रहे है। शायद भगवान को यही मंजूर है। वह मंदिर प्रबंधन को दोष नहीं दे रही है। लेकिन आस-पास के लोग यह कहने से भी नहीं चुकते की कम से कम मंदिर प्रबंधन को चाहिए था कि वह शांति की देख-रेख नहीं कर पाने पर वृध्दाआश्रम पहुंचा देता। उसके कमर में गिर जाने के कारण चोट लगी हुई है और वह इस कारण उठ भी नहीं पाती । वह घर की ओट में नाली के किनारे इस तरह पड़ी हुई है जैसे इस दुनिया में उसका कोई न हो। आस-पास के लोगों ने बताया कि शांति ने अंतरजातीय प्रेम विवाह किया था और उसके पति की मौत मंदिर में काम करने के समय ही दमा से पीड़ित होने के कारण हो गई।
प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

चुनाव से पहले नक्सलियों का खतरनाक इरादा

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव नजदीक देख नक्सलियों ने अपने खतरनाक इरादे को बीजापुर जिले के पॊगपल्ली में दिखा दिया है। बस्तर में नक्सली मतदाता फोटो परिचय पत्र बनवाने का भी विरोध कर रहे थे। जिसके कारण लोगों ने दहशत के कारण परिचय पत्र नहीं बनवाया। उधर राय के उत्तर में स्थित सरगुजा जिले में भी नक्सलियों द्वारा चुनाव पूर्व किसी बड़ी वारदात को अंजाम दिया जा सकता है। इसे देख सुरक्षा बलों तथा पुलिस के जवानों को एलर्ट कर दिया गया है। नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ के सरगुजा तथा बस्तर क्षेत्र में नक्सलियों का आतंक पिछले पांच सालों में कम होने की बजाय बढा है। यह जरुर है कि सरगुजा जिले के बलरामपुर पुलिस जिले में पुलिस की सख्त कार्रवाई के कारण नक्सलियों की कमर टूटी है। लेकिन बस्तर के बीजापुर, दंतेवाड़ा तथा दक्षिण बस्तर के आंध्र सीमा से लगे क्षेत्रों में नक्सलियों ने अपना गढ़ स्थापित कर लिया है। कई ऐसे क्षेत्र है जहां आज भी पुलिस तथा सुरक्षा बल के जवान नहीं जाना चाहते। सोमवार को नक्सलियों ने पोंगपल्ली में सीआरपीएफ दल पर हमला कर चुनाव पूर्व अपने खतरनाक मंसूबे से अवगत करा दिया है। नक्सली यहां पहले से चुनाव का विरोध करते रहे है। विरोध में खुलेआम बैनर पोस्टर भी चस्पाया जाता रहा है। नक्सली यहां सबसे यादा भाजपा का विरोध कर रहे है। भाजपा सरकार में ही यहां नक्सल विरोधी जन आंदोलन सलवा जुडूम की शुरुवात हुई और सरकार ने सलवा जुडूम नामक इस आंदोलन को पूरा समर्थन दिया। यह जरुर है कि विधानसभा प्रतिपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा भी इस आंदोलन का समर्थन करते रहे हैं। सलवा जुडूम के कारण बस्तर के कई गांव खाली हो गये और उन्हें कैंपो में रहना पड़ रहा है। नक्सलियों द्वारा यहां उसी राजनीतिक दल को अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव में सहयोग किये जाने की संभावना है। जो सलवा जुडूम के खिलाफत रहते हुए यहां स्थापित हो रहे उद्योगों का विरोध किया है। नक्सली चुनाव पूर्व बस्तर में आतंक की स्थिति बनाने का प्रयास कर रहे है। इससे पुलिस एलर्ट है। पुलिस तनिक भी लापरवाही नहीं बरतना चाहती क्योंकि चुनाव पूर्व नक्सली और भी बड़ी घटना की योजना बनाकर अंजाम दे सकते है। नक्सली आतंक के कारण ही चुनाव आयोग ने छत्तीसगढ़ में दो अलग-अलग तारीखों में चुनाव का फैसला लिया। बस्तर में चुनाव के दौरान सुरक्षा बलो के अलावा सात हेलीकॉप्टरों से भी निगरानी रखी जायेगी। वहीं यहां 14 नवम्बर को मतदान होने के बाद सरगुजा में बीस नवम्बर को मतदान होना है। सरगुजा झारखंड से लगा हुआ है और नक्सली चुनाव से पहले अपना पैठ बना रहे हैं। हालांकि इससे निपटने पुलिस के जवान तैयार हैं। ऐसे में सरगुजा के घोर नक्सल प्रभावित बलरामपुर पुलिस जिले में भी नक्सली किसी वारदात को अंजाम दे सकते हैं।
प्रस्तुतकर्ता‍ दिलीप जायसवाल

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

बंधक हजारो लड़किया लूटा रही अस्मत ,सरकार चुप

छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा लडकियों के विकास के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। उसके बाद भी राज्य के आदिवासी बाहुल्य जशपुर तथा सरगुजा जिले की हजारों लडकियां महानगरों की सब्जबाग के झांसे में आकर वहां नरक की जिंदगी जी रही हैं। कईयों की मौत के बाद उनकी लाश तक घर नहीं पहुंच पाई। किसी तरह भागकर घर पहुंची लड़कियां विक्षिप्त और रोग ग्रस्त होकर काल के गाल में समा गई। इसके बाद भी अच्छी नौकरी दिलाने के नाम पर इन आदिवासी क्षेत्रों से लड़कियों की तस्करी जारी है। अब तक कई तस्कर भी पकड़े जा चुके है। लेकिन सरकार इस दिशा में गंभीर नहीं हुई है। बंग्लादेश, मिजोरम तथा नेपाल की तरह छत्तीसगढ़ की लड़कियों की तस्करी पिछले सात सालों से बखौफ चल रहा है। लड़कियों को दिल्ली, गोवा जैसे महानगरों का सब्जबाज तथा ऐश की जिंदगी जीने सपना दिखाकर तस्कर अपने जाल में फांस रहे हैं। लेकिन दुभाग्य की बात है कि सरकार द्वारा इस ओर कोई सार्थक पहल नहीं किया जा रहा है। जशपुर में मानव व्यपार के खिलाफ पिछले दो सालों से अभियान चला रही संत अन्ना एनजीओ की सि. सेवती पन्ना बताती हैं कि सन् 2005-07 में किये गये सवरॊ में जशपुर के 98 पंचायतों से 3191 लड़कियों को एजेंटों ने अपने जाल में फांसकर कथित प्लेसमेंट एजेंसियों के हवाले कर दिया। अगर पूरे जशपुर जिले का सर्वे किया जाये तो यह आकड़ा बीस हजार तक पहुंच सकता है। उन्होंने बताया कि दलालों को एक लड़की पर छह हजार से लेकर आठ हजार रूपये तक कमीशन मिलता है। यह कमीशन तब और भी यादा होता है जब लड़की की उम्र बारह से पन्द्रह साल के बीच होती है। जहां से एजेंट लड़कियों को दिल्ली स्थित प्लेसमेंट एजेंसियों के हवाले कर देते हैं। वहां एजेंसी संचालक महिने भर तक लड़कियों को छोटे-छोटे कमरो में पन्द्रह, बीस-बीस की संख्या में रखते है और उनके साथ लड़के भी होते हैं। जहां उन्हें जबरन शराब पिलाई जाती है, ब्लू फिल्म दिखाई जाती है और उन्हें कई लोगों के साथ सेक्स के लिए अभ्यस्त किया जाता है। महिने भर बाद उन्हें रईस जादों के बंगलों में काम करने के लिए भेज दिया जाता है। बंगलों के मालिक प्लेसमेंट एजेंसी के संचालकों से 11 माह के लिए अनुबंध करते हैं। पैसा सीधे लड़की को न देकर प्लेसमेंट एजेंसी के संचालकों को मिलती है। उसका बीस-पचीस फीसदी राशि ही लड़कियों को दी जाती है। प्लेसमेंट एजेंसी में ही लड़कियों के साथ शारीरिक, मानसिक प्रताड़ना खत्म नहीं होती बल्कि जब ये लडक़ियां रईसों के घर काम करती है वहां भी इनके साथ जानवरों की तरह सलूक किया जाता है। घर मालकिन जहां इन्हें खाना नहीं देकर तथा मारपीट करते हुये प्रताड़ित करती है वहीं दूसरी तरफ इात के साथ खिलवाड़ होता रहता है। कभी बंगले का मालिक तो कभी उसका बेटा और कभी उसका गार्ड व ड्राईवर अपनी हवस मिटाते रहते हैं। उन्होंने बताया कि जिस हालत में गांव छोड़कर लड़कियां जाती है उस हालत में नहीं लौट पाती। कईयों की तो वहीं मौत हो जाती है और लाश तक का पता नहीं चलता। जशपुर के बगीचा थाना क्षेत्र स्थित महुवाडीह निवासी आलोचना बाई 17 वर्ष की घर लौटते ही मौत हो गई। जबकि तीन अन्य लड़कियां विक्षिप्त अवस्था में घर लौटी । जशपुर में तीन साल के भीतर 11 लड़कियों की मौत हो चुकी है। आलोचना बाई के ईलाज के नाम पर प्लेसमेंट एजेंसी ने तीस हजार रूपये का बिल उसके पिता को थमा दिया और बेटी को किसी तरह घर तक लाने में जमीन जायजाद बिक गई। आलोचना ही एक ऐसी लड़की नहीं है बल्कि सरगुजा जिले के सीतापुर क्षेत्र स्थित राजापुर निवासी एक लड़की की लाश दिल्ली में ही सड़ गई। यह युवती अपनी छोटी बहन के साथ दिल्ली चली गई थी। इस घटना के बाद आशंका जताई जा रही थी कि जब वह गर्भवती हुई होगी तो उस पर गर्भपात का दबाव डाला गया होगा और जब उसने इंकार किया होगा तो उसकी हत्या कर दी गई। इस आशंका पर पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। इसी तरह कोट छाल निवासी 17 वर्षीय सीतो बाई को एजेंट द्वारा अपने साथ ले जाया गया था लेकिन कुछ महिने बाद एक सुबह वह घर के बाहर विक्षिप्त अवस्था में पडी हुई मिली। उसके हाथ-पैर बंधे और टूटे हुए थे। मानव तस्क री से सरगुजा और जशपुर के शैक्षणिक संस्थान भी सुरक्षित नहीं रह गये है। सरगुजा जिले के राजपुर विकासखंड स्थित कोदौरा के मिशन स्कूल के हॉस्टल से तीन लड़कियों को एजेंट ने दिल्ली ले जाकर नरक के दलदल में डाल दिया था। इनमें एक गुंगी लड़की भी थी। सरगुजा में मानव तस्करी तथा एड्स जागरूकता के खिलाफ काम कर रहे आशा एसोसिएशन तथा नवा बिहान कल्याण समिति के पदाधिकारियों ने छुटकारा दिलाया। ये दोनों एन.जी.ओ. कुछ सालों से मानव तस्करी के खिलाफ काम कर रहे है। एनजीओ को मानव तस्करी व एड्स के खिलाफ अभियान चलाने के लिए क्रिश्चयन रिलिफ सर्विस द्वारा दो वर्ष पूर्व बजट उपलब्ध कराया गया था। संत अन्ना की सि. सेवती का कहती है कि उन्होंने दिल्ली स्थित 144 प्लेसमेंट एजेंसियों का निरीक्षण किया है और वहां रहने वाली लड़कियों की नरकीय जिन्दगीं को नजदीक से देखा है। दिल्ली में करीब तीन हजार प्लेसमेंट एजेंसियां है और करीब-करीब सभी एजेंसियों का नाम देवी देवताओं तथा धर्म पुरोहितों के नाम से है। इनमें मरियम, गणेश, संत अन्ना, जय माँ दुर्गा, मदर टेरेसा, आदि शामिल हैं। इन नामों का बोर्ड लटके देख किसी को सहसा यकिन नहीं होता कि यहां काम दिलाने के नाम पर लडक़ियों के साथ जल्लाद जैसा व्यवहार भी होता होगा। उन्होंने बताया कि लड़कियों का नाम तथा पता प्लेसमेंट एजेंसी में बदल दिया जाता है ताकि कोई उन्हें ढूंढने जाये तो उसका पता न चले। सरगुजा तथा जशपुर के अलावा रायगढ़ तथा झारखंड एवं बिहार की लड़कियों को भी दलाल अपने जाल में फांस रहे है। झारखंड की तीन लड़कियां मार्च 2006 में गर्भवती हो गई थी। इनमें एक लड़की जयपुर के आबकारी अधिकारी के घर में काम करती थी जहां उसके साथ अधिकारी के प्रमोद नामक बेटे ने बलात्कार किया । जब वह गर्भवती हुई तो कमिश्नर के बेटे ने गर्भपात कराने का दबाव डाला। जब उसने इससे इंकार कर दिया तो एक रात उसे गार्ड के माध्यम से इस रईस जादे के बेटे ने घर से निकाल दिया और वह चेतनालय नामक एक एनजीओ में पहुंची और जहां आप बीती बताई। चेतनालय के डोमेस्टिक वर्कर फोरम ने युवती को जयपुर पश्चिम कोतवाली ले जा कर घटना की रिपोर्ट लिखवाई । फोरम के निर्देशक सिस्टर लेवना बताती हैं कि पुलिस ने अपराध दर्ज कर आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन डाक्टरी रिपोट में बलात्कार का मामला नहीं आने पर आरोपी बेल पर न्यायलय से छूट गया । अब मामला न्यायलय में विचाराधीन है पर गरीबी एवं जागरूकता के अभाव में पीडित युवती कोर्ट नही आ रही है। इससे आरोपी युवक न्यायालय से बरी हो सकता है। कई रईस जादे प्लेसमेंट एजेंसियों से लड़कियों को काम पर इसलिए भी रखते है ताकि उन्हें और उनके परिवार के युवकों को शादी के पहले वेश्यालय न जाना पड़े। नवा बिहान कल्याण समिति के नौसाद अली बताते है कि मानव तस्करी की समस्या काफी गंभीर हो गई है। इससे सरगुजा जिले के कुसमी, शंकरगढ़, बतौली, सीतापुर, उदयपुर क्षेत्र सबसे यादा प्रभावित है। सीतापुर, बतौली तथा उदयपुर विकासखंड का निरीक्षण किया गया था जिसमें 762 लड़कियां दिल्ली गई थी। लेकिन उस समय लोग खुलकर बताने को तैयार नहीं थे। संस्था ने आशा एसोसियएशन के साथ मिलकर सर्वे करना शुरु किया तो एक-एक गांव से चालीस-पचास लड़कियां गायब मिली। इसके लिए जागरुकता का कार्यक्रम शुरु किया गया। इसका अच्छा प्रतिसाद देखने को मिला लेकिन सरकार द्वारा इसके लिए कोई बजट नहीं मिलने के कारण वे ठीक से काम नहीं कर पा रहे है। इसी सप्ताह सरगुजा जिले से दिल्ली गई 70 लड़कियों को वापस लाया गया। ये लड़कियां अब भूलकर भी वहां नहीं जाना चाहती। नौसाद बताते है कि दोनों संस्थाओं द्वारा ऐसी लड़कियॊ के अभिभावकों से संपर्क कर पहले तो गुमशुदगी की थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है या फिर बहला फु सलाकर ले जाने की जानकारी पुलिस को दी जाती है। इसके बाद पंचायत से युवती तथा उसके अभिभावक रिश्ता बताते हुये एक प्रमाण पत्र पंचायत से जारी किया जाता है। जिसमें दोनों का फोटो होता है। इतनी कार्रवाई कर अभिभावाकों को दिल्ली भेज दिया जाता है। दिल्ली में मानव व्यापार के खिलाफ काम करने वाले सिस्टर सोफिया व मैक्सिमा युवतियों को जाल से छुडाने अभिभावकों का मदद करती हैं। नौसाद मानव व्यापार रूपी इस पलायन को देह व्यापार का बिगड़ा स्वरूप मानते हुए कहते है कि इससे सरगुजा तथा जशपुर में एड्स की भयावह स्थिति है। अगर जांच की जाये तो चौकाने वाले तथ्य सामने आ सकते हैं। सिस्टर सेवती पन्ना कहती है कि कई लड़कियां वापस घर आने के बाद दोबारा फिर दिल्ली जाना चाहती है। इसका प्रमुख कारण है कि गांव लौटने के बाद उन्हें समाज दूसरी नजर से देखने लगता है और वे कुंठित रहने लगती है। यही नहीं वहां रहकर ये लड़कियां फ्री सेक्स के लिए स्वतंत्र रहती है। लेकिन यहां वह संभव नहीं होता। सब्जबाग में फंसकर लड़कियॊ के दिल्ली जाने के लिए सेवती पन्ना गरीबी को यादा जिम्मेदार नहीं मानती बल्कि वे नैतिक शिक्षा के अभाव को महत्वपूर्ण मानती है। एनजीओ ने जब लड़कियॊं की तस्करी के खिलाफ काम करना शुरु किया तो मामला खुलकर सामने आया और पुलिस ने भी एजेंटो के खिलाफ कार्रवाई शुरु की। दोनों जिलों में कुछ सालों के भीतर दर्जन भर से अधिक एजेंट पकड़े जा चुके है। इन एजेंटों में महिलाएं तथा स्थानीय लोग भी शामिल हैं। जशपुर के कुनकुरी में एजेंटो के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर उन्हें छोड़ देने का मामला विधानसभा में भी उठा था और गृहमंत्री ने कुनकुरी थाना के तीन पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया था। उसके बाद भी दोनों जिलों सहित दूसरे प्रभावित राज्यों में पुलिस द्वारा एजेंटो पर सख्ती से कार्रवाई नहीं की जाती। जशपुर में बाहरी एजेंटों के अलावा लड़कियॊ की तस्करी में लोहार तथा डोम जाति के लोगों का हाथ भी सामने आता रहा है। यही नहीं जशपुर जिले के सोनकयारी गांव का एक व्यक्ति दिल्ली में प्लेसमेंट एजेंसी चलता है और इसी समय कुनकुरी की दर्जनों लड़किया दिल्ली स्थित श्री गणेश प्लेसमेंट एजेंसी में फसी हुई है। बताया जाता है कि इन्हें जशपुर के बटईकेला निवासी बंटी नामक एजेंट ने एजेंसी के हवाले कर दिया है। जशपुर में लड़कियों को काम दिलाने के नाम पर तस्करी का धंधा सन् 2000 के आस-पास शुरु हुआ था। उस समय लड़कियां खुद काम की तलाश में बड़े शहरों की ओर रुख कर रही थी। लेकिन उस समय इसका पता शायद उस समय किसी को नहीं था कि आने वाले दिनों में इसका भयावाह रूप देखने को मिलेगा। वहीं सरगुजा में इसकी शुरुवात मैनपाठ से हुआ जहां के गलीचा सेंटर वाले क्षेत्र के लड़कियों को बनारस स्थित भदोही के कालीन उद्योग के लिए भेज रहे थे। मैनपाठ से लड़कियों की तस्करी अभी नहीं रूकी है। आशा एसोसिएशन के डायरेक्टर फादर विलियम ने बताया कि संस्था द्वारा इन दिनों सीतापुर क्षेत्र के 50 गांव में लोगों को जागरूक करने के लिए काम किया जा रहा है लेकिन जागरूकता कार्यक्रम में सबसे बड़ी बाधा लोगों द्वारा धर्मान्तरण की गलतफलमी है। दूसरी समस्या पंचायतों से पंचायत प्रतिनिधियों का सहयोग नहीं मिलना है। संस्था के कार्यकर्ताओं के साथ दिल्ली,मुंबई,बंगलोर से पीड़ित होकर लौटी लड़कियों द्वारा गांवो में जाकर लोगों को आप बीती सुनाई जाती है ताकि एंजेटों के बहकावे में दूसरी लड़कियां न आवे। संस्था द्वारा गांव में निगरानी समिति भी बनाई गई है जो गांव में लडकियों को बहला-फुसलाकर ले जाने वालों पर नजर रखती है। लड़कियों की तस्करी को देखते हुये राष्ट्रीय स्तर पर घरेलू कामकाजी महिलाओं तथा लड़कियों के लिए कानून बनाने पर भी विचार किया गया। मार्च 2007 में भी मंत्रालय ने देश भर के सभी राज्यों से महिला बाल विकास तथा एनजीओ के प्रतिनिधियों को इसके लिए आगे आने कहा था। लेकिन छत्तीसगढ़ के एक मात्र सिस्टर सेवती पन्ना इस बैठक में गई थी। अभी तक सरकारी स्तर पर डोमेस्टिक वर्करों के लिए कोई कानून नहीं बनाया जा सका है। प्रस्तुतक‌र्ता दिलीप जायसवाल

बुधवार, 24 सितंबर 2008

जरा सोचिये

दो वक्त की रोटी के लिए हर पल मशकत करते हाथ , हाथ में कटोरा लिए बच्चे , कूड़ा कचरे से कुछ आशा ,शराब दुकानों के आसपास खाली बोतल इकठ्ठा करते मासूम । क्या यही महान कहे जाने वाले भारत का भविष्य है । गरीबो के विकास का दावा करने वाले नेताओ - अधिकारियो को यह सब नजर आता है , उसके बाद भी उन्हें फर्क नही पड़ता । इनके दिल में गरीबो के लिए कोई जगह नही रह गया है । इसके खिलाफ लामबंद होने की जरुरत है ,अगर हम चुप बैठे रहे तो ये रोटी के अधिकार के साथ लोकतंत्र को भी छीन लेंगे ।

गुरुवार, 18 सितंबर 2008

वक्त है मंथन का

विधान सभा चुनाव होने वाला है ऐसे में नेताओ के बीच टिकट को लेकर घमासान तेज हो गया है। लोग यहः भी समझते है कि टिकट के लिए क्यो लड़ते है फ़िर भी सही नेता का चुनाव नही कर पाते, यह भी कोई समझ से परे की बात नही है । ऐसे में इस बार गाँव से लेकर राजधानी तक की जनता को देने की जरुरत होगी । शिव खेडा जी के इस वाक्य को याद करने की जरुरत है , हम जिन्हें अपने बचों का गार्जियन नही बनाना चाहते उन्हें देश का गार्जियन बना देते है । तो वक्त है मंथन का ।