शनिवार, 1 नवंबर 2008

भगवान ने उसके लिए बंद कर ली है आंख

कहते है कि भगवान के करीब रहने वालों पर कोई आंच नहीं आती। यही कारण है कि लोग मंदिर और मस्जिद जाया करते है। लेकिन अगर कोई अपनी जिंदगी का महत्वपूर्ण पल मंदिर में गुजार दे और जब उसका शरीर जवाब दे तो उसे आसियाना की बात तो दूर दो वक्त की रोटी ही नसीब न हो। इसे क्या कहा जाये?
राजधानी रायपुर स्थित लाखेनगर भोईपारा स्थित भवानी मंदिर में शांति नामक एक महिला अपने पति के साथ तब तक काम की जब तक उसके हांथ-पैर चले और जब उसके पति की मौत हो गई तो उसे मंदिर प्रबंधन ने मंदिर से बाहर निकाल दिया। इस महिला की हालत यह है कि आज उसके हांथ पैर तक नहीं चल रहे और उसे दो वक्त की रोटी के लिए ही नहीं तरसना पड़ रहा है बल्कि सिर छुपाने के लिए कोई जगह भी नहीं है। वह मंदिर से चंद कदम की दूरी पर एक चौराहे में बने घर की ओट पर पिछले तीन सालों से पड़ी हुई है। वह बताती है कि आस-पास के लोग उसे खाने के लिए कुछ ला देते है।
मंदिर प्रबंधन यह बात जरुर स्वीकार करता है कि शांति अपने पति के साथ मंदिर में काम करती थी लेकिन उसे वृध्द होने पर बाहर क्यों निकाला गया। मंदिर प्रबंधन के पदाधिकारियों के पास इसका कोई जवाब नहीं है। शांति की एक बेटी है जिसकी शादी के बाद उसके पति की भी मौत हो गई है। वह भी उसे कभी-कभार ही देखने पहुंचती है।
शांति कहती है कि उसने तो अपनी जिंदगी का अहम दिन मंदिर में मां भवानी की सेवा में ही गुजार दी। उसके बाद भी उसे यह दिन देखने पड़ रहे है। शायद भगवान को यही मंजूर है। वह मंदिर प्रबंधन को दोष नहीं दे रही है। लेकिन आस-पास के लोग यह कहने से भी नहीं चुकते की कम से कम मंदिर प्रबंधन को चाहिए था कि वह शांति की देख-रेख नहीं कर पाने पर वृध्दाआश्रम पहुंचा देता। उसके कमर में गिर जाने के कारण चोट लगी हुई है और वह इस कारण उठ भी नहीं पाती । वह घर की ओट में नाली के किनारे इस तरह पड़ी हुई है जैसे इस दुनिया में उसका कोई न हो। आस-पास के लोगों ने बताया कि शांति ने अंतरजातीय प्रेम विवाह किया था और उसके पति की मौत मंदिर में काम करने के समय ही दमा से पीड़ित होने के कारण हो गई।
प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

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