बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

ग्रामीण पत्रकारिता के सामने बाजारवाद की चुनौती

गांव, खेत, खलिहान और भी बहुत कुछ। विकास के लिए चलाई जा रही योजनाओं का हाल, ग्रामीणों की संस्कृति और रहन-सहन आदि। ऐसी कई चीजें ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से मीडिया तक पहुंच पाती है। लेकिन मीडिया गांव की खबरों को कितना महत्व दे रहा है, किसी से छूपा हुआ नहीं हैं। भूत-प्रेत और अंधविश्वास की खबर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया द्वारा विशेष कार्यक्रमों में पैकेज बना कर दिखाया जाता है। लेकिन दो वक्त की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ों के मोहताज लोगों की आवाज को मीडियो अनदेखा करने लगा है।
मीडिया बाजारवाद की मोहमाया में फंस कर अपना दायित्व भुलता जा रहा है। जब हम संचार सुविधाओं को प्रेस के विकास के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं तो यह बात पचने वाली नहीं लगती। इससे प्रेस का नहीं बाजार का विकास हुआ है। सबसे अधिक बाजार अमीर वर्ग करता है। ऐसे में संचार माध्यमों अर्थात मीडिया मं गांवों में कुपोषण से मरने वाले टीव्ही स्क्रीन में अपना जगह शायद ही बना पाते हैं, क्योंकि इससे उनकी टीआरपी नहीं बढती और न ही रईस एयर कडिशनर में बैठ कर ऐसी खबरें देखना पसंद करते हैं।
ग्रामीण पत्रकार कितने जद्दोजहद के बाद सूचनायें जिला मुख्यालयों तक पहुंचाता है, यह चिंतन करने योग्य है। क्योंकि पत्रकारिता की पढ़ाई करने में लाखों रूपये खर्च करने के बाद बना पत्रकार गांव में पत्रकारिता करने में रूचि नहीं रखता। वह मोटी तनख्वाह और सुख-सुविधा की ख्वाहिस करता है। ऐसे में गांवों और कसबाई क्षेत्रों की खबरें संयोग से अखबारों और टीव्ही चैनलों की सुर्खियां बन पाती हैं तो उसमें उसी पत्रकार का अथक मेहनत होता हैं, जिन्हंे ठीक से कागज और कलम तक का पैसा नहीं मिलता। अखबार का जितना कमिशन मिलता है, वही उसका कमाई होता है। आज भी गांवों में कितने अखबार बिक रहे हैं, इसे समझा जा सकता है।
टीव्ही स्टिंगर की खबर चल गई तो वह उत्सव मनाता है, भले उस खबर का दो-चार सौ रूपये कभी भी मिलें। यह बड़ी सच्चाई है कि कई बाऱ इन पत्रकारों से ऐसी भी सूचनाएं मिलती है, जिन्हें सही स्वरूप देकर बनाई जाती है तो खबर हिट हो जाती है। यहां हिट कहने का तात्पर्य केवल टीआरपी बढ़ाने से नहीं है, बल्कि ऐसी खबर जो सरकार को कुंभकर्णी नींद से जागने को मजबूर कर देता है।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के घोर नक्सल प्रभावित वाड्रफनगर मंे अखबारों के संवाददाता के रूप में काम करने वाले अजय सिंह कहते हैं कि वे पिछले 10 सालों से जिला मुख्यालय तक खबरें पहुंचा रहे हैं। अब फोन और नेट के माध्यम से खबर पहुंच जाता है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। कभी फोन खराब रहता था, तो कभी दूसरी समस्या। लेकिन अब पहले से बेहतर है। उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, वे दूरदराज के गांवों से खबरें अखबारों तक पहुंचाते हैं। कभी मलेरिया और उल्टी-दस्त से होने वाली मौत की खबर, तो कभी सरकारी योजनाओं का हाल। अजय सिंह की बातों से साफ झलकता है कि अगर गांवों की खबरें मीडिया तक न पहुंते तो गांवों की हालत कैसी है, शायद शहर में बैठा आदमी नहीं जान सकता।
हमारा देश गांवों का देश है और गांव की हालत जाने बगैर हम नहीं जान सकते की देश की स्थिति कैसी है। इन सब के बाद एक और गंभीर पहलु है कि आज अखबारों के इतने संस्करण हो गये हैं कि वहां की खबर जिले तक ही सिमट जाती है। कभी-कभार राजधानी के संस्करणों के किसी स्थान पर मुश्किल से गांव की खबरें अपना जगह बना पाती हैं। हालांकि गांव की खबरों को राजधानी से निकलने वाले संस्करणों में स्थान मिल रही है, लेकिन बहुत कम। इसके लिए जिम्मेदार कौन है,
जवाब स्पष्ट है- मीडिया बाजारवाद की चपेट में पूरी तरह से आ चुका है, वह उसी खबर को अपने संस्करण में शामिल करता है जिसे ज्यादा लोग देखना या पढ़ना चाहेंगे। ऐसे में राजधानी स्तर पर जहां सरकार के मंत्री और जनप्रतिनिधि तथा अधिकारी बैठते हैं उन तक खबरों के माध्यम से गांवों की तस्वीर नहीं पहुंच पाती। इसके लिए मीडिया अकले जिम्मेदार नहीं हैं। उपभोक्तावाद समाज भी जिम्मेदार है। मीडिया के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वह गांवों का असली रूप नीति-निर्धारकों तक पहुंचा सके।
मीडिया ने ग्रामीण पत्रकारिता को मजबूत बनाने की कोशिश भी की है। गांवों में सुदूर क्षेत्रों तक अखबार पहुंचने लगा है, लेकिन इसका उद्देश्य कुछ और है, जिसे उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना कह सकते हैं। बिहड़ क्षेत्रों में रोज अखबार पहुंच पाना आसान नहीं है, वहां बासी अखबार पहुंचता है लेकिन लोग उसे बासी नहीं बल्कि ताजा मान कर पढ़ते हैं। पहले की तुलना में गांव में जागरूकता भी आई है। मीडिया ने लोगों को अपने हक के प्रति काफी हद तक संघर्ष करने के काबिल बनाया है। लोगों को कम से कम इतना ज्ञान हो गया है कि क्या गलत और क्या सही है। लोग अपने अधिकारों को लेकर अफसरों के दरवाजे खटखटाने लगे हैं और जब उन्हें लगता है कि उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है तो वे मीडिया का सहारा लेते हैं। मीडिया का भी असर नहीं हुआ तो वे अपना दूसरा रूप भी दिखाते हैं जो विरोध प्रदर्शन और चक्काजाम के रूप में दिखता है।
ऐसा नहीं कि पहले अधिकारों को लेकर अत्याचार नहीं होता था। लेकिन अब वे अपना आवाज खुद ही बुलंद करने लगे हैं। लोगों में यह अंकुरण काल से गुजर रहा है। अभी मीडिया और ग्रामीणों पत्रकारों पर चुनौती भरे इस दौर में दायित्व काफी ज्यादा है।-दिलीप जायसवाल

कोई टिप्पणी नहीं: