मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

खेत में टंगी खोपडी...


देश के किसान एक ओर आधुनिक तोर-तरीकों से खेती कर रहे हैं, वहीं अशिक्षा और अंधविश्वास के बीच आज भी किसानों को एक बड़ा वर्ग फंसा हुआ है। पिछले दिनों मेरा सरगुजा जाना हुआ, जहां खेतों में गाय-बैल के सिर की हड्डियों को खेतों में लकड़ी के सहारे लटकते देख बड़ा आश्चर्य हुआ। यह तब इसलिए भी जब गांव-गांव में किसान उन्नत खाद-बीज और कीटनाशकों का उपयोग करने लगे हैं।
श्याम लाल नामक किसान ने बताया कि वे बैल की सिर की हड्डियों को इसलिए लटका रखे हैं ताकि फसल पर किसी की बुरी नजर न लगे। किसी की नजर नहीं लगेगी तो फसलों पर कोई रोग या कीट का प्रकोप नहीं होगा। पूछने पर वह बताने लगा कि फसलों को बुरी नजर से बचाने के लिए वे और भी कई उपाय करते हैं। जब मवेशियों की हड्डियां नहीं मिलती हैं तो मिट्टी के बर्तन में लाल और काला धब्बा के साथ सिंदूर लगाकर उसे खेत में लटका देते हैं। हालांकि श्याम लाल ने यह भी बताया कि वे कीट नाशकों का भी प्रयोग करते हैं, लेकिन ऐसा टोटका भी करते हैं।
छत्तीसगढ़ में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जब सही तरीके से फसल नहीं होने या रोगग्रस्त हो जाने पर जादू-टोना का आरोप लगाकर महिलाओं के साथ मार-पीट भी हुई है। ऐसा अंधविश्वास फसलों को लेकर ही नहीं है, बल्कि मवेशियों के बीमार होने पर भी अंधविश्वास की छाया दिखाई देती है। इसकी परिणति यह होती है कि मवेशियों की मौत तक हो जाती है। सालों पहले यहां मवेशी खुरहा नामक संक्रामक बीमारी से पीड़ित होते थे, इस पर गांव भर के लोग ग्राम देव की पूजा-अर्चना करते थे। वैसे अब ऐसी तस्वीर कम ही दिखाई देती है।
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जादू-टोना में विश्वास करने वाले लोगों में शिक्षित वर्ग भी शामिल है। यही कारण है कि ऐसा कोई गांव नहीं है जहां जादू-टोना से ठीक करने वाले बैगा-गुनिया नहीं है। कई बार तो ऐसा भी होता है जब बैगा-गुनियाओं को झाड़-फूंक कराने घर ले जाने वालों की भीड़ लगी रहती है।
सरगुजा में तो एक और भी गजब का रिवाज है। दीवाली की रात यहां जादू-टोना के प्रभाव से बचने के नाम पर हर कोई अपनी नाभी पर सरसों का तेल तथा काजल लगा कर सोता है। अंधविश्वास है कि इस दिन जादू-टोना करने वाली महिलायें उन लोगों को अपना निशाना बनाने में सफल होती हैं, जो ऐसा नहीं करते। यही नहीं उस दिन घर परिवार पर किसी की नजर न लगे इसके लिए घर के सभी दरवाजों पर रामरेणी (एक पौधा) की पत्तियां लगाई जाती हैं।
राज्य सरकार ने जादू-टोना के नाम पर महिलाओं को प्रताड़ित करने तथा कई बार हत्या और बलात्कार जैसी घटनाओं को देखते हुए सन 2005 में छत्तीसगढ़ टोनही प्रताड़ना अधिनियम बनाया है। बावजूद हर साल टोनही के नाम पर दर्जनों महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है तो कई ऐसी भी घटनायें सामने आती है जब महिलाओं को परिवार के लोग ही मायके भेज देते हैं। परिवार और समाज में रहकर मानसिक रूप से कितनी महिलायें प्रताड़ित होती है। इसका तो कोई आकड़ा ही नहीं है। टोनही प्रताड़ना कितने खतरनाक रूप में है, वह इसी साल सरगुजा के लखनपुर क्षेत्र में देखने को मिला था, जहां एक गांव में टोनही के नाम पर भूत-प्रेत भगाने की बात कर महिलाओं को लोहे ही छल्लेदार जंजीर से पीटा ही नहीं गया, बल्कि पचास से ज्यादा महिलाओं के बाल काट दिये गये और उन्हें पूरे गांव में घूमाया गया।
यहां के कई गांव में जादू-टोना करने वाले महिलाओं को चिंहाकित करने के नाम पर गांव के लोगों एक स्थान पर एकत्र होगा कई-कई दिनों तक बैगा-गूनियाओं के साथ झाड़-फूंक करते हैं। जब ये बैगा-गुनिया किसी महिला को टोनही घोषित कर देते होंगे तो उस महिला के मन में क्या गुजरता होगा ? ऐसी स्थिति में गांव और उसके पड़ोसी ही नहीं बल्कि रिश्तेदार और परिवार के लोग भी उसे दूसरी नजर से दिखने लगते हैं। वहीं जब कभी आस-पड़ोस या परिवार में कोई बीमार पड़ता है, कोई अनहोनी हो जाती है तो सबसे पहले उसी महिला पर सबकी नजर होती है कि कहीं उसी की कारामात तो नहीं। भारत की आत्मा कहे जाने वाले ऐसे गांवों से यह खतरनाक जहर कब दूर होगा, कहना मुश्किल है। -दिलीप जायसवाल

बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

ग्रामीण पत्रकारिता के सामने बाजारवाद की चुनौती

गांव, खेत, खलिहान और भी बहुत कुछ। विकास के लिए चलाई जा रही योजनाओं का हाल, ग्रामीणों की संस्कृति और रहन-सहन आदि। ऐसी कई चीजें ग्रामीण पत्रकारिता के माध्यम से मीडिया तक पहुंच पाती है। लेकिन मीडिया गांव की खबरों को कितना महत्व दे रहा है, किसी से छूपा हुआ नहीं हैं। भूत-प्रेत और अंधविश्वास की खबर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया द्वारा विशेष कार्यक्रमों में पैकेज बना कर दिखाया जाता है। लेकिन दो वक्त की रोटी और तन ढकने के लिए कपड़ों के मोहताज लोगों की आवाज को मीडियो अनदेखा करने लगा है।
मीडिया बाजारवाद की मोहमाया में फंस कर अपना दायित्व भुलता जा रहा है। जब हम संचार सुविधाओं को प्रेस के विकास के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं तो यह बात पचने वाली नहीं लगती। इससे प्रेस का नहीं बाजार का विकास हुआ है। सबसे अधिक बाजार अमीर वर्ग करता है। ऐसे में संचार माध्यमों अर्थात मीडिया मं गांवों में कुपोषण से मरने वाले टीव्ही स्क्रीन में अपना जगह शायद ही बना पाते हैं, क्योंकि इससे उनकी टीआरपी नहीं बढती और न ही रईस एयर कडिशनर में बैठ कर ऐसी खबरें देखना पसंद करते हैं।
ग्रामीण पत्रकार कितने जद्दोजहद के बाद सूचनायें जिला मुख्यालयों तक पहुंचाता है, यह चिंतन करने योग्य है। क्योंकि पत्रकारिता की पढ़ाई करने में लाखों रूपये खर्च करने के बाद बना पत्रकार गांव में पत्रकारिता करने में रूचि नहीं रखता। वह मोटी तनख्वाह और सुख-सुविधा की ख्वाहिस करता है। ऐसे में गांवों और कसबाई क्षेत्रों की खबरें संयोग से अखबारों और टीव्ही चैनलों की सुर्खियां बन पाती हैं तो उसमें उसी पत्रकार का अथक मेहनत होता हैं, जिन्हंे ठीक से कागज और कलम तक का पैसा नहीं मिलता। अखबार का जितना कमिशन मिलता है, वही उसका कमाई होता है। आज भी गांवों में कितने अखबार बिक रहे हैं, इसे समझा जा सकता है।
टीव्ही स्टिंगर की खबर चल गई तो वह उत्सव मनाता है, भले उस खबर का दो-चार सौ रूपये कभी भी मिलें। यह बड़ी सच्चाई है कि कई बाऱ इन पत्रकारों से ऐसी भी सूचनाएं मिलती है, जिन्हें सही स्वरूप देकर बनाई जाती है तो खबर हिट हो जाती है। यहां हिट कहने का तात्पर्य केवल टीआरपी बढ़ाने से नहीं है, बल्कि ऐसी खबर जो सरकार को कुंभकर्णी नींद से जागने को मजबूर कर देता है।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के घोर नक्सल प्रभावित वाड्रफनगर मंे अखबारों के संवाददाता के रूप में काम करने वाले अजय सिंह कहते हैं कि वे पिछले 10 सालों से जिला मुख्यालय तक खबरें पहुंचा रहे हैं। अब फोन और नेट के माध्यम से खबर पहुंच जाता है, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। कभी फोन खराब रहता था, तो कभी दूसरी समस्या। लेकिन अब पहले से बेहतर है। उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता, वे दूरदराज के गांवों से खबरें अखबारों तक पहुंचाते हैं। कभी मलेरिया और उल्टी-दस्त से होने वाली मौत की खबर, तो कभी सरकारी योजनाओं का हाल। अजय सिंह की बातों से साफ झलकता है कि अगर गांवों की खबरें मीडिया तक न पहुंते तो गांवों की हालत कैसी है, शायद शहर में बैठा आदमी नहीं जान सकता।
हमारा देश गांवों का देश है और गांव की हालत जाने बगैर हम नहीं जान सकते की देश की स्थिति कैसी है। इन सब के बाद एक और गंभीर पहलु है कि आज अखबारों के इतने संस्करण हो गये हैं कि वहां की खबर जिले तक ही सिमट जाती है। कभी-कभार राजधानी के संस्करणों के किसी स्थान पर मुश्किल से गांव की खबरें अपना जगह बना पाती हैं। हालांकि गांव की खबरों को राजधानी से निकलने वाले संस्करणों में स्थान मिल रही है, लेकिन बहुत कम। इसके लिए जिम्मेदार कौन है,
जवाब स्पष्ट है- मीडिया बाजारवाद की चपेट में पूरी तरह से आ चुका है, वह उसी खबर को अपने संस्करण में शामिल करता है जिसे ज्यादा लोग देखना या पढ़ना चाहेंगे। ऐसे में राजधानी स्तर पर जहां सरकार के मंत्री और जनप्रतिनिधि तथा अधिकारी बैठते हैं उन तक खबरों के माध्यम से गांवों की तस्वीर नहीं पहुंच पाती। इसके लिए मीडिया अकले जिम्मेदार नहीं हैं। उपभोक्तावाद समाज भी जिम्मेदार है। मीडिया के सामने यह एक बड़ी चुनौती है कि वह गांवों का असली रूप नीति-निर्धारकों तक पहुंचा सके।
मीडिया ने ग्रामीण पत्रकारिता को मजबूत बनाने की कोशिश भी की है। गांवों में सुदूर क्षेत्रों तक अखबार पहुंचने लगा है, लेकिन इसका उद्देश्य कुछ और है, जिसे उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना कह सकते हैं। बिहड़ क्षेत्रों में रोज अखबार पहुंच पाना आसान नहीं है, वहां बासी अखबार पहुंचता है लेकिन लोग उसे बासी नहीं बल्कि ताजा मान कर पढ़ते हैं। पहले की तुलना में गांव में जागरूकता भी आई है। मीडिया ने लोगों को अपने हक के प्रति काफी हद तक संघर्ष करने के काबिल बनाया है। लोगों को कम से कम इतना ज्ञान हो गया है कि क्या गलत और क्या सही है। लोग अपने अधिकारों को लेकर अफसरों के दरवाजे खटखटाने लगे हैं और जब उन्हें लगता है कि उनकी आवाज नहीं सुनी जा रही है तो वे मीडिया का सहारा लेते हैं। मीडिया का भी असर नहीं हुआ तो वे अपना दूसरा रूप भी दिखाते हैं जो विरोध प्रदर्शन और चक्काजाम के रूप में दिखता है।
ऐसा नहीं कि पहले अधिकारों को लेकर अत्याचार नहीं होता था। लेकिन अब वे अपना आवाज खुद ही बुलंद करने लगे हैं। लोगों में यह अंकुरण काल से गुजर रहा है। अभी मीडिया और ग्रामीणों पत्रकारों पर चुनौती भरे इस दौर में दायित्व काफी ज्यादा है।-दिलीप जायसवाल

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

बीएसएफ में महिलाएं, पाक का इरादा नापाक

पाकिस्तान को भारत की मजबूत होती सैन्य शक्ति अब बर्दाश्त नहीं हो रही है। वह तुच्छता पर उतर आया है। पाक का यह कहना है कि भारत में जवानों की शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए बीएसएफ ने महिला कर्मियों की तैनाती की है। भारत भूमि पर कई विरागनायें हुई हैं। जो इतिहास के पन्नों को गौरवांवित कर रही है। आज भी भारत में ऐसी लड़कियों की कमी नहीं है, जिन्हें नापाक इरादों से निपटने अच्छे से आता है। पाक के दुष्प्रचार से भारतीय सेना और ड्यूटी कर रही महिला सुरक्षाकर्मी आहत हो सकती है। ऐसे स्थिति में सरकार को चाहिए की वह पाक को उसके वक्तत्यों पर मुकम्मल जवाब दे और आरोप पर सही जांच कराये ताकि सीमा पर बेटियों को भेजने वाले मां-बाप विश्वास के साथ गर्व कर सके। यह इसलिए भी जरूरी है कि दूसरे देश भी पाक की तरह भविष्य में उंगली न उठाये। चाहे जो भी हो पाक अपने देश की महिलाओं के प्रति जैसी भावना रखता है, वह उसके इस बयान से भी झलका है। आज भी पाकिस्तान में महिलाओं की हालत दयनिय है। उसे अपने सोच बदलनी चाहिए। पाक मीडिया के माध्यम से उसका यह बयान उस समय आया है जब यहां नवरात्र चल रहा था। नारी शक्ति की आराधना में पूरा देश डूबा हुआ था। उसकी नियत भी साफ है, वह हर हाल में भारत को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता। हमारी सरकार भी सुनने की आदी हो गई है। और उसकी करतूतों को बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया है। पाकिस्तान का ऐसा बयान इसलिए भी हो सकता है ताकि भविष्य में भारतीय लड़कियां बीएसएफ में जाने से सोचें और मां-बाप उनके पैरों पर परम्परारूपी जंजीर जकड़ दे। -दिलीप जायसवाल

रोज बिस्तर में बिछती मंजूला

मंजूला कभी स्कूल जाती थी, वह सबसे होनहार लड़की थी। परीक्षा में हमेशा अच्छे नम्बर लाती थी। वह जब कक्षा दसवीं में पढ़ रही थी, तभी उसके पिता की मौत हो गई। अब उसकी मां रमा पर उसे और छोटे चारों भाई-बहन को पढ़ाने-लिखाने की जिम्मेदारी आ गई। मंजूला से यह रहा नहीं गया और उसने पढ़ाई छोड़ दी। वह मां के साथ गांव से मजदूरी करने शहर आने लगी। रायपुर की चैड़ी गली में मां बेटी दूसरे मजदूरों के साथ बैठे रहते, कि कोई उन्हें मजदूरी पर ले जाएगा।
दो वर्ष बाद मंजूला की मां की उम्र भी थकने लगी। वह गांव से रोज मजदूरी के लिए पैदल आने में असमर्थ महसूस करने लगी। गांव में सरपंच के घर वह काम करने लगी, ताकि चूल्हा तो जल सके। अब मंजूला दूसरी लड़कियों के साथ मजदूरी के लिए रायपुर आने लगी, दिनभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी सिर्फ अस्सी रूपये ही मिलते। ऐसे में राशन और भाई-बहनों की पढ़ाई के लिए पैसा नही के बराबर ही हो पाता था। वह पड़ोसियों से उधार लेकर छोटे भाई-बहनों को पढ़ाने लगी, ऐसा कब तक चलता ? एक दिन उसकी मां भी बीमार पड़ गई। इलाज के लिए घर में एक कौडी भी नहीं थी। घरेलु काम करने पर रमा को सरपंच के घर से मिलने वाले कुछ पैसे भी बंद हो गये। मां के लिए दवा खरीदनी थी। मंजूला के पास पचास रूपये ही थे। वह आज मजदूरी के लिए शहर निकली तो यह सोची कि मां के लिए दवा भी लेकर आयेगी। वह शहर पहंुचते ही पहले दवा दुकान में गई, तो उसके होश उड़ गये। दवा के लिए पांच सौ रूपये चाहिए थे। वह मायूस होकर जल्दी-जल्दी चैड़ी गली पहुंची ताकि उसे आज काम तो मिल सके।
उसे मायूस देखकर एक महिला ने पूछा तो वह उसे अपनी हालत बताई। यह सुनकर महिला ने उसे जो करने के लिए कहा, उससे मंजूला के पैरों तले की जमीन खिसक गई। उसे मां की भी परवा थी। वह महिला की बात पर हामी भर ली। महिला के माध्यम से मंजूला दुनिया के सबसे पुराने धंधे के लिए तैयार थी। रागनी नामक महिला ने उसका पहचान एक आटो वाले से कराया। मंजूला जैसी जवान लड़की को देखकर आटो वाला खुश हो गया, मानो उसे कोई बड़ा मुनाफा मिलने वाला था। आटो वाले ने फौरन मोबाईल से फोन लगाया और रागनी के साथ मंजूला आटो में बैठ गई। आटो वाला शहर के बाहरी छोर में उन्हें लेकर पहुंचा। वहां दो लड़के मोटरसायकल में पहले से उनका इंतजार कर रहे थे। वही पर एक घर भी था। आटो वाले ने लड़कों को मंजूला को दिखाने के बाद मोल-भाव किया। वे लड़के हजार रूपये देने तैयार हो गये।मंजूला की आत्मा मर रही थी। वह खुद को मानो समझा रही थी। वह यह सोच रही थी कि अब लोग उसे मंजूला ही नहीं बल्कि और नामों से जानेगें। वह यह सब सोच रही थी कि आटो वाले ने मंजूला को आटो से उतारा और दोनों लड़के आगे-आगे तथा मंजूला पीछे-पीछे चलने लगी। वे उस घर में पहुंच गये, जहां और भी लड़कियां थी। अब मंजूला भी बिस्तर पर बिछ चुकी थी।युवकों ने हवस मिटाने के बाद आटो वाले को पांच-पांच सौ रूपये के दो नोट दिये और मोटरसायकल चालू कर चल दिये। इधर मंजूला को पांच सौ का एक नोट आटो वाले ने दिया और ढाई-ढाई सौ रूपये रागनी के साथ बांट लिये। मंजूला कभी सपने में भी नहीं सोची रही होगी कि कभी ऐसा होगा।वह दवाई दुकान पहुंची और जल्दी-जल्दी दवा ली, शाम को घर जाने के लिए तैयार थी। उसकी दूसरी सहेलियां भी आज उसे दूसरी नजर से देखने लगे थे। मंजूला जब घर पहुंची तो हाथ में दवा की थैली देखकर रमा खुश हो गई। मंजूला ने मां को खाना बनाकर खिलाया और डाॅक्टर के बताये अनुसार गोलियां और दूसरी दवाईयां मां को खिलाई। मंजूला की छोटी बहन सुनिता दसवीं में पढ़ने लगी थी। सुबह होते ही वह कहने लगी- दीदी परीक्षा फार्म जमा करना है, दो सौ रूपये चाहिए। मंजूला रोज की तरह फिर शहर पहुंची, आटो वाला मंजूला को देखते ही उसके पास पहुंच गया और बोला- चलना है क्या ? मंजूला ने हामी भरी, उसके आंख से आंसू आ गये। वह आटो में आंसू पोछते हुए बैठ गई। आटो वाला सिगरेट जलाते हुए बातो ही बातो में उसे जलाने की कोशिश करना शुरू कर दिया। आज मंजूला के सामने एक ऐसा व्यक्ति था जिसके बारे में वह कल तक भी नहीं सोची थी। साठ साल से भी अधिक उम्र का यह व्यक्ति अपने हवस मिटाने मंजूला का इंतजार कर रहा था। बेटी की उम्र की मंजूला की इज्जत फिर उसी बिस्तर पर तार-तार हो गई। तीन-चार माह गुजर चुके हैं, एक दिन मंजूला पड़ोस में गई थी, जब वह घर आई तो उसकी सांसें थम गई और वह सब कुछ देखकर सहमी सी रह गई। वही बुजुर्ग आज उसके घर में रमा से बातचीत कर रहा था, जो मंजूला की जिस्म से चंद पैसों के बल पर खेल चुका था। जब वह बुजुर्ग उसके घर से चला गया, तब मंजूला अपनी मां से उसके बारे में पूछने लगी। रमा उसे दूसरी बातों में उलझाने की कोशिश की, लेकिन मंजूला ने मां की एक भी नहीं सुनी और वह उस बुजुुर्ग के बारे में जानकर ही रही। रमा ने बताया- उसकी पहली शादी उसी से हुई थी, बाद में दोनों के बीच तलाक हो गया। दोनों ने दूसरी शादी कर ली, कुछ दिन बाद ही उसकी दूसरी पत्नी की मौत हो गई। वह पड़ोस के ही गांव में रहता था, अब शहर में रहने लगा है, पेंशन पर गुजारा करता है और किराया का घर लेकर रहता है। यह सुनते ही मंजूला फूट-फूट कर रोने लगी। अब वह रोज किसी किशोर, किसी जवान, किसी अधेड़ या किसी बूढ़े आदमी का हवस मिटाने बिस्तर पर बिछ जाती है। दिलीप जायसवाल