बुधवार, 2 दिसंबर 2009

मंहगाई का ऐसों को अर्थ भी मालूम है क्या...?


वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने राज्यसभा में मंहगाई को लेकर उठे सवालों पर अपनी मानसिक स्थिति को असंतुलित दिखाते हुए जो प्रयास किया उससे आम जनता का कोई तालुकात नहीं है। उनका कहना था कि मांग और उत्पादन में असमानता के कारण ऐसे स्थिति बनी है। सवाल उठता है कि सरकार जमाखोरी के खिलाफ कानून को कितने सख्त तरीके से क्रियान्वित कर रही है। व्यवसायियों के बड़े गोदामों में छापा मार कार्यवाही क्यों नहीं होती और जब कार्यवाही शुरू होती है तो राजनैतिक दबाव शुरू हो जाता है। दो-चार दिनों की कार्यवाही कर सरकारी नुमांईदों को खानापूर्ति करनी पड़ती है। जमाखोरों के पकड़े जाने के बाद भी उनके खिलाफ अदालती कार्यवाही क्यों नहीं हो पाती।

जमाखोरी के कारण बढ़ती मंहगाई को देखते हुए छत्तीसगढ़ में कुछ व्यवसायियों के गोदामों पर छापे पड़े तो व्यवसायी एकजुट हो गये। मुख्यमंत्री के सामने भण्डारण छमता बढ़ाने की मांग कर गिड़गिड़ाने लगे। उसके बाद से जमाखोरों के खिलाफ कार्यवाही बंद हो गई है। हालात जैसी है उससे स्पष्ट है कि सरकार व्यसायियों के सामने घुटने टेक चुकी है। चाहे चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रूपये की जरूरत हो या फिर दूसरे राजनैतिक गतिविधियों के लिए। व्यवसायी और उद्योगपति इसमें मदद करते हैं।

सदनों में मंहगाई पर इन नेताओं का नाटक आम आदमी अच्छी तरह समझ रहा है। देश में वित्तमंत्री द्वारा मंहगाई पर मांग और आपूर्ति को लेकर रोना कुछ हद तक सही है। लेकिन जवाब में यह बताना और बच निकलना समस्या का हल नहीं है। मंहगाई के लिए सरकार द्वारा आनलाईन खरीदी-बिक्री पर प्रतिबंध लगाने चर्चा भी शुरू हुई, लेकिन उस पर अभी तक कोई सार्थक विचार नहीं हो सका।

मंहगाई रोकने के लिए इन नेताओं और अफसरों द्वारा ईमानदारी से प्रयास करने की उम्मीद करना बेमानी है। मंहगाई पर ये नेता तभी बात करते है जब वोट बैंक की बात हो। इन्हें मंहगाई से कोई फर्क नहीं पड़ता है। ऐसा इसलिए क्योंकि जिनके अरबों रूपये विदेशी बैंकों में जमा हो उन्हें मंहगाई का अर्थ भी कैसे मालूम हो सकता है। मंहगाई का मतलब तो मध्यम और गरीब तबके के लोग ही समझते है। जो दो किलो दाल की जगह एक किलो खरीददता है और उसे उतने दिन तक परिवार के साथ खाता है जितने दिन तक दो किलो दाल को खाता था।

बात साफ है मंहगाई रोकने के लिए ऐसे लोगों को ही आगे आकर इन नेताओं से सवाल पूछने की जरूरत है िकवे व्यवसायियों के गोदामों में क्या कभी छापा मारेगें, नहीं तो जमाखोरों के खिलाफ सरकारी नुमांईदें की जगह आम आदमी खुद से ही यह कार्यवाही करें। यह अलग बात है कि यह रास्ता सरल नहीं है, लेकिन जब दूसरे रास्ते बंद दिखने लगे, गाड़ी पंचर प्रतीत हो तो अपने पैर से ही सफर तय करना होता है, चाहे रास्ता कितना भी लम्बा या कठिन क्यों न हो।
दिलीप जायसवाल

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