शनिवार, 12 दिसंबर 2009

कितना बचा, कितना बदला मेरा गांव

हमने कभी बस नहीं देखी थी। गांव में शादी-ब्याह होता था तो टेक्टर से बारात आती-जाती थी। एक दिन पापा के साथ गांव से शहर गया तो वहां बस देखी। उस समय कक्षा तीन में पढ़ रहा था। गांव से बस चलनी शुरू हुई। बस का नाम गरीब नवाज था। सड़कें इतनी खराब थी कि बस कुछ दिन बाद चलनी बंद हो गई। सुबह जब बस शहर के लिए निकलती तो दोस्तों के साथ हम सब देखने के लिए पहुंच जाते थे। ड्राइवर हमें गांव से गुजरने के दौरान कुछ दूरी तक बस में बैठा लेता था। इससे हम काफी खुश होते थे और उछलते-कुदते घर आते थे।

इस समय मेरी उम्र आठ साल के करीब थी। गांव में आज भी एक ही मिनी बस चलती है। यहां से कई बसें चलती है और बंद हो जाती हैं। 15 साल बाद भी सड़क जैसी की तैसी है। एक साल पहले सड़क का निर्माण शुरू हुआ जो पूरा नहीं हो पाया है। गांव की गलियां भी वैसी ही हैं जैसे पहले थी। यह बात जरूर है कि पहले के मुकाबले लोगों के पास ज्यादा पैसा आ गया है। लोगों के पास पैसा खेती के माध्यम से आया है। गांव में औसतन हर मोहल्ले में दो-चार टेलीविजन और मोटरसायकल भी हो गया है। अब वे दूसरों की खेतों में मजदूरी नहीं करना चाहते। गांव में पहले की तरह मेझरी और कोदो की खेती नहीं होती। किसान अब गन्ना और दूसरी नगदी फसलों की खेती करते हैं। व्यवसायिक दृष्टि से किसान सब्जियों की खेती कर रहे हैं जिसे बेचने बस, सायकल और अपनी दुपहिया गाड़ियों से बाजार तक पहुंचते हैं।

इतना सब कुछ होने के बाद भी शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधा सही नहीं हो पाई है। लोग अभी भी नदी किनारे रेत को खोद कर पानी पीने के लिए निकालते हैं। हाईस्कूल तो है लेकिन शिक्षकों की कमी है। गणीत के शिक्षक का पद स्कूल खुलने के दस साल बाद भी खाली पड़ा हुआ है। बीमार होने पर लोग झोला छाप डाॅक्टरों से ईलाज कराते हैं। इन सब के बाद भी लोगों में जागरूकता आई है। वहीं विकास में शराब बड़ी समस्या है। लोग जितना पैसा कमाते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा शराब में बर्बाद कर देते हैं।

लोगों को रहन-सहन बदला है। संचार की इस दुनिया में यहां भी मोबाईल फोन युवाओं के हाथों में देखे जा सकते हैं। बाजारवाद का असर यहां के दुकानों में मिलने वाली कोको-कोला और पेप्सी की बोतलों से पता चलता है। लोगों डेढ़ दशक पहले राख से कपड़े और मिट्टी से बाल धोते थे। अब इनका स्थान ब्राॅन्डेड साबुनों ने ले लिया है। पारम्परिक त्यौहारों में बदलाव आया है। एक समय बच्चे छेरता (नव वर्ष पर मनाये जाने वाला त्यौहार) पर पिकनिक जाते थे। इससे पहले वे एक-दूसरे के घर समूहों में जाकर छेर-छेरा, कोठी कर धान निकाल दे, चिल्लाते थे। महिलाएं उन्हें अपने हाथों से एक-एक मुठ्ठी धान देती थीं और धीरे-धीरे बच्चों के झोले भर जाते थे। जिनके पास झोले नहीं होते थे वे बांस से बनी टोकरियां रखते थे। अब धीरे-धीरे यह परम्परा धूमिल होती जा रही है।

गांव में शैला नृत्य भी होता था। शैला नृत्य की टीमें एक गांव से दूसरे गांव जाती थी और सप्ताह-सप्ताह भर का घूम-घूम कर नृत्य करते थे। ये हर किसी के घर जाते थे जहां उनका पारम्परिक रूप से आदर सम्मान होता था। चरवाहे भी दशहरा के मौके पर मांदर की थाप के साथ निकलते थे। वे उनके घर जाते थे जिनका मवेशी चराते थे। इनका भी मवेशी मालिक चावल, दाल और महुआ शराब देकर सम्मान किया करते थे। अब तो यह सब दूर, गाय-बैलों की संख्या भी कम होती जा रही है। अब न तो पहले जैसे मवेशी मालिक रह गये हैं और न ही चरवाहे। बस इसी से समझा जा सकता है कितना बचा, कितना बदला मेरा गांव।
-दिलीप जायसवाल

3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सब बदल रहा है तो गाँव भी बदल रहे हैं.

सतीश पंचम ने कहा…

बदलाव की बयार तो हर ओर चल रही है बंधु। हां, कहीं बहुत तेज तो कहीं बहुत धीमी।
बढिया लिखा।

वर्ड वेरिफिकेशन को हटा दें तो टिप्पणी देने में सुविधा होगी. बेमतलब का खटर पटर करना पडता है :)

शरद कोकास ने कहा…

कितने अलग अलग तरह के गाँव है इस देश मे