शनिवार, 19 दिसंबर 2009

सरकारी तंत्र का दुरूपयोग, चुनाव आयोग खामोश

छत्तीसगढ़ में इन दिनों नगरीय निकाय के चुनाव में सरकारी धन और संसाधनों का खुलेआम दुरुपयोग किया जा रहा है। इस ओर सरकार और चुनाव आयोग जैसी संस्थाएं गंभीर नहीं हैं। पार्षद पद के लिए प्रत्याशी लाखों रुपए तक खर्च कर रहे हैं, लेकिन जब चुनाव आयोग को खर्च का ब्योरा सौंपा जाएगा । उसमें साफ तौर पर चुनाव खर्च की जानकारी फर्जी प्रतीत होने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की जाती है।
मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह खुद चुनाव प्रचार में जिस तरह से गरीबों के विकास की बात कर सरकारी मिशनरी का दोहन कर रहे हैं, उसी से समझा जा सकता है कि दूसरे मंत्री और विधायक अपने क्षेत्रों में जनता के पैसों की किस तरह से बर्बादी कर रहे होंगे। जबकि मंदी के इस दौर में केन्द्र सहित कई राज्यों की सरकारें धन के अपव्यय को रोकने की बात कर रहे हैं।

चुनाव जीतने के लिए प्रत्याशी मतदाताओं को दारू, मुर्गा और अच्छा भोजन देकर रिझाने की कोशिश कर रहे हैं।ं सत्ता दल के प्रत्यासी कहीं गाड़ियों का तो कहीं सरकारी मानव संसाधन का खुलेआम दुरुपयोग कर रहे हैं। राजधानी होने के नाते रायपुर में अधिक समझदार और पढ़े-लिखे लोगों की जमात मानी जा सकती है, लेकिन यहां भी चुनाव में धन की बर्बादी को लेकर न तो अखबारों में कुछ लिखा जा रहा है और न ही टेलीविजन के पत्रकार इस ओर ध्यान दे रहे हैं। ऐसे में क्या कोई सक्षम व्यक्ति अदालत की शरण लेकर इस फिजूलखर्ची पर गुहार नहीं लगा सकता। जहां तक मीडिया संस्थानों की बात है वे इन प्रत्याशियों और राजनैतिक दलों से चुनाव में मिलने वाले विज्ञापन और चुनाव पैकेज पर शायद बिक गए हैं।

ऐसे में जरूरत इस बात की है कि आखिर हमारा समाज कब जागेगा। चुनाव को लोकतंत्र का त्योहार माना जाता है और इसमें गरीबों को कुछ दिनों तक भरपेट भोजन मिल जाता है। वह भी तब जब वे प्रत्याशियों के प्रचार में आगे-पीछे चलते हैं। शहर में ऐसा कोई भी झुग्गी-बस्ती नहीं है जहां इन दिनों त्योहार जैसा माहौल न हो। लेकिन कम-से-कम इन गरीब की बस्ती में बुनियादी सुविधाओं की हमेशा के लिए व्यवस्था हो पाए वही सार्थक होगा।

चुनाव में पैसे भी बंट रहे हैं। ऐसे में हमारे विचार से पैसे लेने से मतदाताओं को पीछे नहीं हटना चाहिए, क्योंकि इस तरह से बटने वाला पैसा पसीने की कमाई का नहीं होता है, वह कहीं-न-कहीं गरीबों के हक का ही पैसा होता है, जो उन तक दूसरे रास्ते से पहुंच गया होता है। पैसा लेने के बाद अपने विचार को मजबूत रखते हुए वोट देना चाहिए।

यह तो रही झुग्गी-झोपड़ियों से निकलकर वोट डालने वालों के लिए लेकिन समाज में सबसे संपन्न समझा जाने वाला वर्ग वोट देने के लिए लाईन में खड़ा ही नहीं होना चाहता, जब तक की उसका कोई स्वार्थ न जुड़ा हो। यहां स्वार्थ का मतलब प्रत्यासी उनसे किसी प्रकार से जुड़ा न हो और उसके जीतने या हारने से उन्हें किसी प्रकार का फर्क पड़ता हो। यहां हमने मंदी से धीरे-धीरे उबर रही परिस्थितियों में फिजूलखर्ची के साथ ही वोट पर बात की, लेकिन यह तभी सार्थक हो सकता है जब हम गंभीर हों और इस सोच के साथ की हमें अपने अधिकारों के लिए अब चक्काजाम, हड़ताल और विरोध प्रदर्शन नहीं करना है। दिलीप जायसवाल

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