सोमवार, 18 जनवरी 2010

जंगलों से बाहर भी बदहाल राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र

राष्ट्रपति के दत्तक पु़त्र पहाड़ी कोरवाओ की संख्या छत्तीसगढ. में दस हजार से ज्यादा नहीं है। वहीं पहाड़ी कोरवाओं के विकास के लिए अब तक करोडों रुपये खर्च किया जा चुका है। इसके बाद भी पहाड़ी कोरवा विकास की मुख्य धारा से नहीं जुड़ सके हैं। वे आज भी जंगलो में कंद मूल खाकर झोपड़ियों में रहने के लिए मजबूर हैं। वहीं जो पहाड़ी कोरवा परिवारो के साथ जंगलो और पहाड़ो से उतरकर गांवो में बस गए हैं, उनके विकास के लिए भी ईमानदारी से कोशिश नहीं की गई। जबकि अक्सर यह कहा जाता है कि पहाड़ी कोरवा पहाड़ों से उतरना ही नहीं चाहते।

पिछले दिनो सरगुजा के शंकरगढ़ इलाके में एक पहाड़ी कोरवा दंपति की झोपड़ी में जलकर मौत हो गई। वे रात में ठंड़ से बचने के लिए अलाव जलाकर सो गए थे। पहाड़ी कोरवा ठंड़ के दिनों में एक लकड़ी के बडे़ लटठे को जलाकर सो जाते हैं और सेकाने के लिए पूरी रात करवट बदलते रहते हैं और रात गुजर जाती है। इनके विकास की योजनाओं को संचालित करने के लिए विशेष रुप से पहाड़ी कोरवा विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है। इसके माध्यम से हर साल पहाइ़ी कोरवाओं के विकास के लिए लाखों रुपए खर्च किया जा रहा है। लेकिन नौकरशाही रवैये और भ्रष्ट्राचार के कारण विकास की किरणों से कोशों दूर है।

इस पिछड़ी जनजाति की विकास के नाम पर इन्हें साईकिलें बांटी गई, खेती के लिए उन्नत किश्म के खाद बीज और पशु पालन तथा मछली पालन से उन्हें जोड़ने के तमाम प्रयास हुए, प्रयास सरकारी अदूरदर्शिता के कारण असफल साबित हुए है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है जब पहाड़ में रहने वाले व्यक्ति को सायकल दिया जायेगा, तो वह क्या करेगा। आज भी खेती के लिए इन्हें दिया जाने वाला खाद बीज, फावड़ा, सब्बल और खेती के दूसरे हथियार भ्रष्टाचार के भेंट चड़ रहे हैं। इनके विकास के पैसे से सरकारी नुमाईंदें लाल हो रहे है।

राज्य के सरगुजा, जशपुर और कोरबा में पाये जाने वाले पहाड़ी कोरवाओं की एक बड़ी संख्या पहाड़ों से गांव की ओर रूख किया और वे गांव के आस-पास रहने लगे। सरगुजा के नान दमाली की पहाड़ी में दर्जनों पहाड़ी कोरवा परिवार रहते हैं। इनके लिए बुनियादी सुविधाएं तो दूर की बात पीने के लिए एक अदद हैण्डपम्प या कोई दूसरा साधन विकसित नहीं किया जा सका है। ये नदी पोखर का पानी पीने के लिए मजबूर है। पहाड़ी कोरवाओं को विलुप्त होते देख सरकार ने नशबंदी जैसे अभियान से इन जनजाति को अलग रखा है। यही कारण है कि इनके बच्चों की संख्या दर्जन भर तक होती है, लेकिन गरीबी के कारण वे उनका सही तरीके से देखभाल नहीं कर पाते। ऐसे में कई बार पहाड़ी कोरवा नशबंदी केंद्रों में पहुंचते हैं तो डाक्टर नशबंदी करने से मना कर देते हैं।

देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जब पहली बार सरगुजा के आदिवासियों से मिले उनमें पहाड़ी कोरवा भी थे। एक पहाड़ी कोरवा से राजेंद्र प्रसाद ने जब पूछा कि रोटी खा लिए हो तो उसने रोटी शब्द से अनभिज्ञता जाहिर की थी। यह देखकर राजेंद्र प्रसाद भी इस जनजाति की दयनीय हालत को देखकर सोचने के लिए मजबूर हो गये थे। उन्होंने इस जनजाति के इस पिछडे़पन के कारण उन्हें राष्ट्रपति गोदपुत्र के रूप में घोषित किया था।

पहाड़ी कोरवा ठिगने कद वाले होते है। ये काले रंग के होते है। इन्हें निग्रांे और द्रविड़ के कोलारियस प्रजाति का माना जाता है। डाल्टन ने कोरवाओं को प्राचीन आदिमानव की कोलेरियन प्रजाति के समूह का एक वर्ग माना है। पहाड़ों में रहने वाली यह जनजाति समय के साथ-साथ मैदानी क्षेत्रों में भी आकर बसने लगा। जिन्हें मैदानी या देहाती कोरवा कहा जाता है। ये साल के डंगलों और उसकी पत्तियों से झोपड़ी बनाते हैं। ये बांस का झोपड़ी बनाने में उपयोग नहीं करते है। पहाड़ी कोरवा पछिमा देवता की पूजा करते हैं, इनके परिवार में पति-पत्नी और अविवाहित बच्चे होते हैं। शादी के बाद बच्चे अलग रहने लगते है। पहाड़ी कोरवाओं का दस गौत्र होता है, इनमें इसिट, कुदूम, मुठियार, गिनुमन, तेलिहा, तेनुरिहा, गिढुवार, इदमी, हसदा और पमाट है। इनमें संगौत्र विवाह की मनाही है। वर पक्ष वधु की तलाश करता है। वर पक्ष वधु पक्ष के घर जाता है और रात भर वहीं रूकता है, इस दौरान अगर सियार की आवाज सुनाई देती है तो शादी का रिश्ता तय नहीं हो पाता है। सियार की आवाज को यह जनजाति अशुभ मानती है। ऐसी स्थिति नहीं आने पर लड़की पक्ष लड़के पक्ष को कुछ रूपये देकर ससम्मान वापस भेजता है। उसके बाद वर पक्ष कुछ दिनों में चावल और चावल से बना शराब (हड़िया) लेकर पहुंचता है, जिसे पीकर खुशियां मनाई जाती है और शादी का दिन तय किया जाता है। शादी सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को छोड़कर दूसरे दिन सम्पन्न नहीं होता है। शादी से पहले वर पक्ष डेढ़ क्विंटल धान (तीन खण्डी पांच तामी धान) तथा माय कापड़ देता है। माय कापड़ बुनकर द्वारा बुना गया कपड़ा होता है जो वधु के मां के लिए होता है। शादी के लिए ये साल के तनों से मंडप तैयार करता है। शादी पांच दिनों तक चलती रहती है।

शादी दो प्रकार से की जाती है। ठांड मांदी विवाह में तत्काल विवाह कराया जाता है जिस दिन बारात आती है उसी दिन विवाह हो जाता है, जबकि बैठमांदी विवाह में बारात रातभर वधु पक्ष के घर आकर रूकती है और दूसरे दिन शादी होती है। पहाड़ी कोरवा घर में लड़की पैदा होने पर ज्यादा खुशियां मनाते हैं, वहीं मासिक धर्म के दिनों में महिलाओं को खाना बनाने पर मनाही होती है। हालांकि स्त्री परिवार की प्रमुख इकाई होती है।

पहाड़ी कोरवाओं में पितृ सत्तातमक परिवार होता है। ये लंगोट धारण करते है और महिलाएं एक ही कपड़े को लपेट कर पहनती है। पहाड़ी कोरवा कंद मुल के अलावा भेलवा और तेंदू फल तथा साल बीज को उबाल कर खाते हैं। ये जब जंगल में शिकार के लिए निकलते हैं तो तीर, धनुष तथा कुल्हाड़ी प्रमुख हथियार होता है। ये पारम्परिक तरीके से कोदो, कुटकी के अलावा और धान की भी खेती करने लगे है। हालांकि आज भी जीविकोत्पार्जन और अर्थव्यवस्था का प्रमुख स्रतोत जंगल से लकड़ी काटकर बेचना ही है।

पहाड़ी कोरवा मृतक के सिर को उत्तर की तरफ रखकर उसका अंतिम संस्कार करते है, जबकि पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु पर उनकी लाश पेड़ के नीचे जमीन पर गाड़ देते है। मान्यता है कि इससे बच्चे की आत्मा उनके घर में नये शिशु के रूप में आता है। वहीं जब परिवार का कोई मुखिया मरता है तो वे उस झोपड़ी को तोड़कर नई झोपड़ी दूसरे स्थान पर बना लेते है।

पहाड़ी कोरवाओं के परम्पराओं के बीच वर्तमान हालत को देखकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू की एक पंक्ति याद आती है। उन्होंने कहा था - जनजातियों का विकास उनके स्वयं के परिधि में किया जाना चाहिए तथा उन पर कुछ भी अध्यारोपित नहीं करना चाहिए। पहाड़ी कोरवाओं के विकास के लिए वाकई में आजाद भारत के पचास साल बाद भी ईमानदारी से कोशिश नहीं की जा रही है और न ही जवाहर लाल नेहरू की इन पंक्तियों को याद रखा जा रहा है।-दिलीप जायसवाल

1 टिप्पणी:

rajkishor ने कहा…

bhai sab bahut badhiya likha hai.... pahadi korva ke bare me kuchh aur jankar ho to mujhe mail kar dijiye.....

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