शनिवार, 23 जनवरी 2010

...तो लोकतंत्र का खूटां कहलाने का कोई हक नहीं

मीड़िया पर दायित्वों का सही निर्वहन नहीं करने पर हर रोज उंगलियां उठ रही हैं। आलोचना करने वालों में पत्रकारों के अलावा समाज का वह वर्ग भी जो मीड़िया से कभी अपने काले करततूतों के उजागर होने के भय से दहशत में रहता था। ऐसी स्थिति के लिए मीड़िया हर रोज कहीं न कहीं जिम्मेदार दिखता है।

15 जनवरी को देश के टेलीविजनों में जो स्थिति दिखी उसने एक बार फिर साबित कर दिया कि चैनलो की टीआरपी बढ़नी चाहिए, चाहे इसके लिए कुछ भी क्यो न दिखाना पडे़। यूं तो सूर्य ग्रहण पूरे दिन नहीं था लेकिन चैनलों ने सूर्य ग्रहण की खबर एक दिन पहले से जो दिखाना शुरु किया और ग्रहण खत्म होने बाद शाम तक ही नहीं बल्कि दूसरे दिन तक उसी की खबर दिखाई जाती रही। मानो ग्रहण ने चैनल वालो को जकड़कर रख लिया हो। एक चैनल ने तो पहले दिन स्टूड़ियो में कुछ वैज्ञानिको और ज्योतिषियों को बुलाकर ग्रहण पर गहमा गहमी की स्थिति बनाकर दर्शको को बांधे रखने की कोशिश की। दूसरे दिन इसी को ग्रहण पर सबसे लम्बी बहस बताकर दिखाया गया।
जब ये 15 जनवरी को ग्रहण की खबर दिखा रहे थे उसी दिन देश में सेना दिवस भी मनाया जा रहा था लेकिन उसकी खबर की बात तो दूर चैनलो में उसका स्क्राल तक नहीं चला। वो तो भला हो दुरदर्शन का जिसने इसकी खबर दिखा दी नहीं तो देश के लोगोें को यह पता भी नहीं चल पाता कि सेना दिवस किस तरह मनाया गया। यह पहली बार नहीं है जब ऐसी स्थिति बनी हो, इससे पहले भी चैनलों का गैर जिम्मेदाराना रवैया दिखाई देता रहा है।

कुछ दिन पहले मीडिया का एक और चेहरा दिखाई दिया। यहां कोई मीडिया कर्मियों को दायित्व से विमुख करने वाले उनके पूंजीपति मालिक नहीं थे, बल्कि वे बिना किसी दबाव के अपनी मानवता का परिचय दे सकते थे। लेकिन मानवता की मानसिकता के स्थान पर समाचार और टीआरपी की मानसिकता मौजूद थी। तमिलनाडु में हुए उस घटना को कैसे भुलाया जा सकता है, जहां अपराधियों ने एक पुलिस अधिकारी का पैर काटकर सड़क पर फेंक दिया था। मीडिया के कैमरामैन तथा पत्रकार अलग-अलग एंगल से उस घायल अधिकारी का फुटेज बना रहे थे। कुछ देर बाद पुलिस अधिकारी की मौत हो जाने पर मीडिया वहां मौजूद मंत्रियों को दोषी ठहराने लगी। मीडिया द्वारा यह कहा जाने लगा कि मंत्री अगर चाहते तो उसकी जान बच सकती थी, वे उसे अस्पताल भेजवा सकते थे।

चलो मान गये कि मंत्रियों ने जो किया उन्हें उसकी सजा मिलनी चाहिए क्योकि किसी मंत्री के सामने कोई कराहते हुए मर जाये। सवाल उठता है कि क्या वे मीडियाकर्मी मंत्रियों की लापरवाही को देखते हुए खुद उस पुलिस अफसर को अस्पताल नहीं पहुंचा सकते थे। मीडियाकर्मियों की क्या यही ड्यूटी है कि वे किसी मरते हुए का वीडियो बनाये और दूसरों पर मानवता कि बात करते हुए आरोप मढे। मीडियाकर्मी यहां पर उस खबर को दिखा कर जितना हीरो बने उतना हीरो उस अफसर की जान बचा कर भी बन सकते थे।

अभी भी वक्त है मीडिया अपनी जिम्मेदारियों को समझें, नही तो हालत ऐसी बन गई है कि मीडिया की बातों पर लोग विश्वास करना छोड़ रहे है और अगर मीडिया जगत का काला चिट्ठा आम लोगों के बीच सरलता से और बड़े पैमाने पर आने लगा तो मीडिया के प्रति लोगों का बचा हुआ विश्वास भी नहीं रह जायेगा।

कुछ दिन पहले बनी बालीवुड की फिल्म पा में मीडिया की एक भयावह तस्वीर दिखती है जो सच्चाई का एक छोटा सा नमुना है। इस फिल्म में नये चैनलों के आगमन के बाद दूरदर्शन के प्रति बनी मानसिकता पर सकारात्मक माहौल पैदा किया गया है।

मीडिया अपने काम करने के प्रवृत्ति में सुधार नहीं कर सकता तो कम से कम वर्तमान हालत में लोकतंत्र के चैथे स्तंभ का तमगा को अलग रखते हुए खुलकर बनिये की दुकान की तरह अपनी संस्थाओं का संचालन करना चाहिए ताकि कम से कम लोकतंत्र की गरिमा की रक्षा हो सके। वैसे भी नेता मंत्रियों और रिश्वतखोरी करने वाले न्यायधीशों ने इस लोकतंत्र को निगल कर अपनी व्यवस्था कायम करने की पूरी कोशिश की है और उसमें भी तमाम प्रयासों के बाद कोई सुधार होते नहीं दिख रहा है।
-दिलीप जायसवाल, रायपुर

1 टिप्पणी:

Gappe bazi ने कहा…

aapne bahut achcha lekh likha hai,aise hi likhte rahen.nayi jankariyo ko bhi apne blog me samil karen.dusre blogers ke blog padhe or apne comment bhene ka kast karen.