गुरुवार, 14 जनवरी 2010

नौकरशाही में तैयार हो रहा नक्सल भूमि

शाम ढलते ही सन्नाटा, चरवाहे भी गाय बैल लेकर जल्दी घर आ जाते थे और घरों के दरवाजे बंद हो जाते थे। रात में किसी का भी पदचाप सुनकर रोगंटे खडे हो जाते थे। कभी भी कहीं भी किसी की हत्या कर दी जाती थी। घर जला दिए जाते थे, मारा पीटा जाता था और लोग सब कुछ खामोस होकर देखते रह जाते थे। रिर्पोट पर पुलिस भी दहशत से वर्दी उतार कर दूसरे दिन पहुंच पाती थी।

तीन चार सालों से परिस्थितियां बदली है। हां मैं बात कर रहा हूं, छत्तीसगढ. के उत्तर में स्थित सरगुजा क्षेत्र की। नया राज्य बनने के साथ ही झारखंड से यहां नक्सली संगठन एम सी सी का आगमन हुआ। नक्सली संगठन के अधिकतर नेता झारखंड के थे। सरगुजा के युवाओं को वे गुमराह कर अपने साथ करने लगे। बाद में एमसीसी का विलय पीपुल्स वार ग्रुप में हो गया। इससे नक्सलियों की ताकत और बढी। सरगुजा में नक्सलियो की खूनी खेल को अपनी आखों से देखा हूं। अब मुझे जब भी वो दिन याद आते हैं तो कुछ पल के लिए खामोश हो जाता हूं। उस वक्त गांव में एक रात भी चैन के साथ गुजरती थी तो ऐसा लगता था मानो कई रात गुजर गए। उस समय स्कूल में पढा करता था।

नक्सलियों का खौफ इस कदर था कि लोग नक्सलियों का नाम लेने से घबराते थे। मुझे याद है शंकरगढ क्षेत्र में एक पटवारी की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी, तब तात्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी घटना के दूसरे दिन वहां पहुंचे थे। मुख्यमंत्री का भाषण सुनने वालो की भीड में खडा था, लोगों को उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री उस घटना पर कुछ बोलेगे, लेकिन मुख्यमंत्री की जुबान से एक शब्द भी नही निकला। दहशत जदा लोग फिर अपने घरों में आकर दुबक गए।

एक और घटना याद है जब गांव में पन्द्रह अगस्त के दिन तिरंगा की जगह पूरे दिन काला झंड़ा फहरता रह गया। यह काला झंडा नक्सलियों ने फहराया था। स्कूल के एक लड़के ने उस काले झंडे़ को उखाड़ कर फेकने की कोशिश की तो दहशत से शिक्षक और दूसरे लोगों ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। बाद में शिक्षक ने बच्चों को मिठाई बांटकर घर के लिए भेज दिया। लेकिन दूसरे दिन उसी लड़के ने उस काले झंडे को उखाड़कर फेका। उसके बाद दहशत के कारण लड़के के मां बाप उसे लेकर दो तीन दिन के लिए गांव छोड़कर दूसरे गांव चले गए।

नक्सलियों का दहशत इतना था कि कोई व्यक्ति घर से बाहर जाता था और शाम तक लौट कर नहीं आ पाता था या लौटने में देर होती थी तो परिवार की सदस्यों की धड़कने अनहोनी की आशंका में रोने लगते थे।
मैने वह हालत भी देखा है, जब नक्सली शाम को किसी के घर भी घुस जाते थे और मुहल्ले में दर्जन से अधिक की संख्या में बंटकर दहशत के बल पर खाना बनवाते थे। ऐसी स्थिति में कई बार परिवार के लोगों को भूखे सोना पड़ता था। दूसरे दिन जब इसकी जानकारी पुलिस को लगती थी, पुलिस गंाव पहुंचती थी और उन परिवार के सदस्यो को उठाकर पुछताछ के नाम पर थाने ले जाती थी। जहां उन्हें कई-कई दिनों तक बैठाकर रखा जाता था। जब वे घर लौटते थे, तो कई बार नक्सली मुखबीर होने का आरोप लगाकर हत्या कर देते थे।

अत्याचार करते हुए नक्सलियों को यहां अगर पांव पसारने में सफलता मिली तो मुख्य कारण था जमीन विवाद। जन अदालत लगाकर नक्सलियों ने विवादो का निपटारा कर कईयो को उनकी जमीन वापस कराया वहीं इन विवादो को निपटाने के नाम पर नक्सलियों ने दर्जनों लोगों की हत्या की। हलांकि धीरे धीरे ग्रामीण नक्सलियों की नियत को समझने लगे थे, अब नक्सलियों के प्रति ग्रामीण विरोध का रुप अख्तियार कर रहे थे कि ठीक इसी समय सरकार ने नक्सलियो से लोहा लेने के लिए आईपीएस एस आर पी कल्लूरी को पुलिस अधीक्षक के पद पर बलरामपुर में पदस्थ किया। इसके साथ ही नक्सलियों के खिलाफ कार्यवाही हुई। दर्जनो मुठभेड़ हुए और दर्जनो बडे़ ओहदेदार नक्सली मारे गए। जब मुठभेड़ों में जवान शहीद होते थे और उनकी लाशें जिला मुख्यालय गाड़ियों में भरकर लाया जाता था तो शहर के लोगों के लोगों की भीड़ ऐसी उमड़ती थी कि लोगों को रोकना पड़ता था। जब षहीद जवानों के शव ताबूतों में बंदकर उनके गांवों के लिए भेजा जाता था तो उनके साथियों के आंसूओं को देखकर ही लोगों की आंखें नम हो जाया करती थी।

मुठभेड़ों में कई नक्सलियों की गिरफतारियां भी हुई। इससे नक्सलियों के खिलाफ मुंह खोलने के लिए लोगों को ताकत मिली और पहली बार प्रतापपुर क्षेत्र के जजवाल सहित आस-पास के ग्रामीणों ने नक्सलियों के खिलाफ रैली निकाली। इसी दौरान सरकार ने नक्सलियों के आत्मपसमर्पण के लिए पुनर्वास नीति का ऐलान किया। इसके तहत कुछ स्थानीय ऐसे युवक जो नक्सलियों के साथ हो लिए थे, उन्होंने पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण किया। यह अलग बात है कि उन्हें पुनर्वास नीति के तहत क्या मिला। हालांकि इन कार्यवाहियों को लेकर पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ों का भी आरोप लगे। वहीं इन कार्यवाहियों के बाद सरगुजा क्षेत्र में नक्सलियों की कमर टूटनी शुरु हुई। आज यहां के लोग पहले की अपेक्षा भय मुक्त होकर जिदंगी जी रहे हैं।

दुर्भाग्य की बात है कि जिन कारणों से सरगुजा मे नक्सलियों के पांव गहरे हुए थे, वे कारण नौकरशाही के कारण आज भी विद्वमान है। अब नक्सलियों के नहीं होने के बाद भी जमीन विवादो को लेकर हर साल यहां दर्जनों हत्या की वारदात होती रहती हैै। वहीं पंचायतो में खुलेआम भ्रष्टाचार हो रहा है। कहने से कोई हिचक नहीं कि जब यहां नक्सलियों का खौफ था तब कोई भी सरपंच कम से कम किसी विधवा का पेशन डकारने की दुस्साहस तो नहीं ही कर पाता था आज सरकारी नुमांइदों की इतनी दहशत नहीं कि कोई सरपंच या सचिव किसी विधवा की मौत के बाद उसे मिलने वाली पेशन की राशि खाने से पहले थोड़ा भी सोचे। इस ओर सरकार को गंभीर होने की जरुरत है, जो दिखाई नहीं दे रही है। ऐसे में नक्सली आतंक से मुक्त गांवों में विकास और सरकारी नुमाइंदों के प्रति आम लोगों में लंबे समय तक भरोसा बना रहे वह सहज दिखाई नहीं देता। ऐसी स्थिति में यहां फिर से यही सब नक्सलियों के लिए पैर जमाने खाद बीज बने तो कोई बड़ी बात नहीं होगी।
दिलीप जायसवाल