शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

मांदर की थाप और कुहू-कुहू

मांदर की थाप गांव के दूसरे छोर में गुंज रही थी। शैला नृत्य कर रहे लोगों ने मुझे देखा तो वे और भी मस्त होकर नाचने लगे, मांदर की थाप की आवाज बढ गई। वे मुझे भी नाचने के लिए कहने लगे। उनका जोश और उत्साह देख खुद को नहीं रोक पाया। गलियों में उनके साथ आधा घण्टे तक झूमने के बाद वे मुझे महुआ शराब पिलाकर स्वागत करना चाहते थे, जब मैंने मना किया तो वे गुड खिलाकर पानी पिलाये।

गांव और यहां रहने वाले लोगों से मुझे जो अपनापन मिलता है, जो प्यार मिलता है वह और कहीं नहीं। मैंने मिडिल स्तर से आगे की प$ढाई शहर में जाकर की, लेकिन गांव के प्रति मेरा लगाव आज भी कम नहीं है। दस साल हो गए, गांव कभी-कभार ही जा पाता हूं। मोबाइल फोन की सुविधा होने के कारण गांव के लोगों से बातचीत होती रहती है। कुछ दिन पहले एक दोस्त ने फोन किया और कहा - शैला नृत्य शुरू होने वाला है, आएगा क्या।

मंैने हामी भर दी। मुझे दो दिन बाद गांव के लिए निकलना था। शैला नृत्य और गांव का परिवेश मेरे दिलो दिमाग में दौडऩे लगा। जब रायपुर से टे्रन बैठा, रात भर मन में जल्दी गांव पहुंचने की बेचैनी छाई रही। मेरी नींद खुली तो उस वक्त टे्रन को अंबिकापुर स्टेशन पहुंचने में दो घंटे का समय शेष था। हाड़ कपाने वाली भीषण ठंड के कारण कुछ और गर्म कपड़ों से लदा ,चाय की चुस्की लेते-लेते अम्बिकापुर स्टेशन पहुंचा। ठंड के साथ चारो तरफ कोहरा छाया हुआ था और खेत बर्फ की पतली चादरों से सफेद दिख रहे थे। धीरे-धीरे सूरज भी निकल रहा था। सूरज की लालिमा दिखने के साथ ही आटो से अंबिकापुर शहर छोड़कर और फिर बस में बैठकर गांव के लिए निकला।

बस में बजता गीत - मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती और बस से बाहर देखने पर पर रवि की लहलहाती फसलें, खेतों में काम करते किसान, खलिहानों में धान की म$डाई करने में लगी महिलाएं। यह सब देखकर सुखद अनुभूति हो रही थी कि अपनी मंजिल तक पहुंच गया, लेकिन गांव अभी भी यहां से १२ किलोमीटर दूर ही था। मोटरसायकल में मुझे लेने के लिए दोस्त वहां पहले से ही मौजूद थे। उनके साथ गांव के लिए निकला। सड़क के दोनों ओर जंगल और कुछ दूर तक टायरिंग की हुई सड़क। जंगल से निकलने में अभी एक-डेढ़ किमी का रास्ता बचा हुआ था कि यहां तक शैला के मांदर की थाप सुनाई दे रही थी। कुछ ही देर में गांव पहुंच चुका था, गांव में पहुंचने की खबर दोस्तों से शैलानृत्य के सदस्यों को मिली। वे हमारे घर की ओर पहुंचे, जैसे ही घर के बाहर निकला वे मुझे अपने साथ कर लिये।

वैसे तो शैला नृत्य पहले से देखता आ रहा था, लेकिन इस बात को लेकर अक्सर चिंतित रहता था कि इसके कलाकारों की संख्या कम होती जा रही है। आज ऐसा नहीं था। १५ से २० साल के लडके भी पारंपरिक परिधानों में आकर्षक रूप से शैला नृत्य में लगे थे और अब जब यह सब कुछ लिख रहा हूं, गांव में चल रहा शैला नृत्य और उसके मांदर की थाप के साथ-साथ कुहू-कुहू की आवाज मेरे कानों तक पहुंच रही है। ऐसी आवाज नृत्य दल का सदस्य निकालता है। कुहू-कुहू आवाज निकाल कर शैला खेलने वाले एहसास दिलाते है कि बसंत का मौसम आने वाला है। बसंत के मौसम में कोयल कुछ इसी तरह से आवाज करती है।

धान-चावल शैला खेलने वालों को दिया जाता है। उसका अर्थ संपन्नता से लगाया जाता है। यह नृत्य ग्रामीण खेती-किसानी का काम खत्म होने के बाद करते है। शैला और सुगा नृत्य सरगुजा के विशेष पारंपरिक नृत्य हैं। शैला पुरुष खेलते है जबकि महिलाएं सुगा। हालांकि संरक्षण के अभाव में धीरे-धीरे इन पारंपरिक नृत्यों का अस्तित्व खतरे में है। शैला नृत्य के कलाकार अभाव की जिंदगी जी रहे हैं।

शैला नृत्य दल में एक कलाकार चेहरे पर लक$डी का मुखौटा लगाकर बच्चों का मनोरंजन करता है। शैला नृत्य करने वाले सदस्यों के हाथ में एक-एक डंडा होता है, जो कई रंगों से रंगा होता है। डंडे में रंग-बिरंगे कपड़े बंधे होते है। डंडे ऐसे पेड़ों की लकडिय़ों से बनाये जाते हैं जिसके टकराने पर अच्छी आवाज आती हो। डंडों को कलाकार ग्राम देवता के समक्ष पूजा करने के बाद पकडते हैं और जब शैला नृत्य सप्ताह, १५ दिन में खत्म हो जाता है तो फिर से ग्राम देवता की पूजा कर साल भर के लिए उसके सामने डंडो को अर्पित कर देते हैं।

कलाकारों की सजावटी, वेशभूषा में गले पर सिक्कों की गुथी हुई विशेष माला होती है। पीले रंग की पगड़ी और चेहरे में खुशियों का प्रतिबिम्ब कलाकारों के जुनून को दर्शा रहा था। यह भी एहसास हो रहा था कि उन्हें अपनी संस्कृति और माटी से कितना प्यार है। सरगुजा के इस लोकनृत्य में काफी बदलाव आया हैं। पहले हर कलाकार के कमर में मयूर के पंखों से आकर्षक सजावट होती थी, पैरों में घूघंरू होते थे, अब यह सब नहीं। इस बार जो खास दिखा वह था, सभी के पैरों में जूते।

वहीं अगर कुछ नहीं बदला तो वह है अनुशासन। नृत्य के दौरान थोड़ी सी चूक होने पर फिर से नृत्य का क्रम शुरु किया जाता है। कम से कम गलती हो इसके लिए वे समूह बनाकर महीने-डेढ़ महीने लगातार अभ्यास करते है। समूह के मुखिया धर्मपाल ने बताया कि दो साल बाद गांव में शैला नृत्य हो रहा है। युवा और किशोरों की रूचि कम होते देख उन्हें अभ्यास के दौरान शामिल किया गया। इसका अच्छा परिणाम देखने को मिल रहा है। नये कलाकार उत्साह के साथ लगातार भाग ले रहे हैं।

शैला नृत्य करने वाले आसपास के गांवों में जाते हैं और इनका सम्मान और रहने-खाने की व्यवस्था गांव के लोग तो करते हैं, उस समय इन्हें ऐसा अपनापन मिलता हैं उसे शब्दों में बयां करना आसान नहीं है। जैसा कि अनुभव किया। वाकई में साफ तौर पर यह महसूस हो रहा था कि गांव में जो एकता, भाईचारा और प्रेम है वह शहरो में नहीं, चाहे भले ही लाखों-करोडों खर्च कर त्यौहार मनाये जायें, आतिशबाजी की जाये, या महंगी थालियों में रंग-बिरंगे व्यंजन परोसे जाएं।
दिलीप जायसवाल

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