शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

झुग्गी वालों के बिना महलों में रौनक नहीं

देश में गरीबों की संख्या घटाने और बढ़ाने का खेल लम्बे समय से चल रहा है। वहीं गांव से पलायन कर रोटी के लिए हर तरह का अत्याचार और पीड़ा सहने वाले शहरों के झुग्गी-झोपड़ी के रहवासियों के विकास के नाम पर उन्हें वहां से हटाने की साजिश पूरे देश में चल रही है। कभी भी झोपड़ियां उजाड़ दी जाती है। चाहे वह बारिश का मौसम हो या कड़कड़ाती ठण्ड का। सरकारी नुमांईदें ऐसा इसलिए भी कर पाते हैं क्योंकि ये लोग अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए सक्षम नहीं है। जब दूसरे लोगों का अतिक्रमण हटाने की बात आती है तो यही सरकारी अमला इस पर हाथ बढ़ाने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाती।
शहरों में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। दिल्ली की कुल जनसंख्या का 55 फीसदी लोग झुग्गी बस्तियों में वहां रहते है। ऐसे में देश की तस्वीर को आसानी से देखा और समझा जा सकता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में झुग्गी बस्तियों की कोई कमी नहीं है, जहां गांवों से पलायन कर लोग लगातार पहुंच रहे है। अब तो यहां झुग्गी में भी इनके लिए जगह नहीं है। जमीन इतनी मंहगी है कि राजधानी या उसके आस-पास कोई गरीब या सामान्य परिवार जमीन ही नहीं खरीद सकता। घर बनाने की बात तो सपना देखने के सामान है। ऐसी परिस्थितियों में सुबह-शाम जी-तोड़ मेहनत करने वाला यह वर्ग रेल्वे की पटरियों के आस-पास झोपड़ियों में रह रहा है। जहां उसे नरकीय जिंदगी नसीब हो रही है। कभी गंभीर बीमारियों के कारण मौत हो जाती है, तो कभी कुपोषण का शिकार होकर यहां इंसान दम तोड़ देता है। इन सब से बचता है तो टेªन की पटरियों में रौंदा जाता है। झोपड़ी तो कब उजड़ जाये उसकी तो कोई गांरटी भी नहीं है।
समाज का यह तबका अगर शहर में न रहे तो एक गंभीर स्थिति उत्पन्न होगी और वह रईस समझे जाने वाले वर्ग पर भारी होगा। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों से ही महलों में रहने वालों की जिन्दगी शुरू होती है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि बर्तन धोने, कपड़े धोने, पोछा लगाने से लेकर और भी घरेलु काम करने बाई जिस दिन काम करने नहीं आती है तो कैसी स्थिति बनती है। ये रईस समझे जाने वाले लोगों को इनके बिना सिनेमा घरों और गार्डनों में चैन का एक पल भी गुजारने के लिए वक्त नहीं मिलेगा। उसके बाद भी झुग्गियों में बसने वाले इस वर्ग के बारे में ईमानदारी से कोई सोच काम नहीं कर रही है।
दुर्भाग्य की बात है कि पहली पंचवर्षीय योजना में देश के लिए झुग्गियों में रहने वाले लोगों को एक धब्बा कहा गया था। वहीं अब तक समाज के इस तबके के लिए कागजों में योजनाएं बनती और बिगड़ती रही है। पिछले वर्ष केंद्रीय आवास और गरीबी उन्मुलन मंत्री कुमारी शैलजा ने कहा था कि पांच वर्षों के भीतर शहरों को झुग्गी झोपड़ी से मुक्त किया जायेगा। इसके लिए राजीव गांधी आवास योजना के तहत घर बनाये जायेंगे। सच्चाई तो यह है कि लाख योजनाओं के बाद भी इस तबके का विकास समाज का प्रबुद्ध और सम्पन्न वर्ग नहीं चाहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो कम से कम इन गरीबों को आबंटित होने वाली प्लाटों को अधिकारी अपने नाम नहीं कराते। ऐसी स्थिति देश की राजधानी दिल्ली में देखी जा चुकी है। समाज का रईस वर्ग इसलिए भी इनका विकास नहीं चाहता कि अगर झुग्गी बस्तियों में रहने वालों का विकास हुआ तो उनके घर काम करने कौन आयेगा और जब वे विकास के पथ पर होंगे तो उनका शोषण करना भी आसान नहीं होगा। वहीं सरकार तो गरीबों को अभी भी देश के लिए एक दाग ही समझती है जो समय-समय पर उसके व्यवहार से दिखाई देती है।
सरकार की रणनीति में देश से गरीबी खत्म करने की नहीं बल्कि गरीबों को ही खत्म करने की साजिश दिखाई देती है। दिल्ली में होने वाले राष्ट्र मण्डल के खेलों के पूर्व कुछ ऐसी ही स्थिति दिखाई दी है। दिल्ली विकास प्राधिकरण के कार्यकारी प्रमुख के पद पर तीस साल काम कर चुके सूर्य प्रकाश का कहना है कि झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों में अपने अनेक दौरों के दौरान मैं हजारों लोगों से मिला, जो चाहते थे कि उन्हें बेहतर दशाओं में जीने का मौका मिले। भिखारीनुमा पहनावा और हाव-भाव के माध्यम से वे प्रदर्शन करते थे, कुछ गिड़गिड़ाते थे, कुछ धिक्कारते थे। लेकिन मेरी परेशानी का कारण तो वे लोग थे, जो उनके पास से गुजरते हुए नजरें फेर लेते थे।
बात साफ है नौकरशाही और देश का वर्तमान तंत्र गरीबी और तंगहाल जिन्दगी जीने वालों को सीधे शहरों से गायब ही कर देना चाहता है। अगर ईमानदारी से आंखें खोल कर इस वर्ग के विकास के लिए काम हुआ होता या अभी भी हो तो भारत दुनिया का नम्बर-1 राष्ट्र बन सकता है। इन झुग्गी बस्तियों में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। यहां तो मिस वल्र्ड और मिस वल्र्ड बनने की काबिल लड़कियां भी रहती है। आईएएस और आईपीएस बनने की खबरें तो हर साल कहीं न कहीं पढ़ने-सुनने को मिलती ही रहती है। ऐसे में तो जरूरत इस बात की है कि गांव में रोजगार के साधन विकसित किये जाये, ताकि शहरों में ऐसी स्थिति न बने और जहां झुग्गी बस्तियां है वहां से उन्हें ईमानदारी के साथ विस्थापन की प्रक्रिया पूरा कर हटाया जाये। झुग्गियों को हटाया जाये न कि वहां रहने वाले लोगों को। उन्हें वहां की नरकीय जिन्दगी से बाहर एक ऐसा माहौल दिया जाये ताकि वे सर उठा कर जिन्दगी जी सके। ऐसी सोच नहीं तो इसके लिए अभी भी सलम-डाग मिलेनियम फिल्म को जरूर देखना चाहिए, जिसमें भारत के प्रबुद्ध वर्ग को झुग्गी बस्तियों के लोगों की गरीबी और दुर्दशा का अहसास कराया था।
दिलीप जायसवाल

1 टिप्पणी:

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

दिलीप जी जो इधर है
आज वो उधर भी है
उधर एक जनसत्‍ता है
जनसत्‍ता में पेज 6 है
उसमें समांतर स्‍तंभ है
वहां शीर्षक विकास का वर्ग है।
देखिएगा जनसत्‍ता आपके यहां भी आता है
अगर आपको नहीं मिल पाता है
तो बतलाइयेगा avinashvachaspati@gmail.com
आपको स्‍कैनबिम्‍ब मैं भिजवाऊंगा।

डेशबोर्ड की सैटिंग में जाकर शब्‍द पुष्टिकरण इसलिए निष्क्रिय करें क्‍योंकि हिन्‍दी के रास्‍ते में यह एक बाधा है।