शनिवार, 7 मार्च 2009

होश में आ जाओ छत्तीसगढ़िया, वक्त काफी कम है

छत्तीसगढ़ की संस्कृति खतरे की दौर से गुजर रही है। छत्तीसगढ़ के मूलनिवासियों का जड़ भी कमजोर होता दिखाई दे रहा है। मध्यप्रदेश से विभाजित होकर छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद से स्थिति और भी खतरनाक हुई है। छत्तीसगढ़ियों को सामाजिक ,आर्थिक तथा राजनैतिक रूप से कमजोर किया जा रहा है। राज्य के ऐसे कई क्षेत्र है जहां मूल निवासियों की संख्या पचास प्रतिशत से भी कम होती दिख रही है। रायपुर, बिलासपुर , अंबिकापुर तथा दुर्ग शहर में हालत काफी खराब हो चुकी है। इन शहरों में छत्तीसगढियों का वर्चस्व खत्म हो गया है। यहां का मूल निवासी इन शहरों में रहने वाले लोगों के घर का नौकर मात्र बनकर रह गया है। बेटी-बहू भी इनके घरों की नौकरानी बनकर रह गई है। छत्तीसगढ़ियों के विकास को लेकर जब कोई क्षेत्रीय राजनैतिक दल सामने आता है तो उसे समर्थन नहीं मिल पाता। उसे क्षेत्रवाद बढ़ाने का हवा दिया जाता है। हालांकि ऐसा हवा देने वाले भी यहां के मूल निवासी नहीं हैं। दुर्भाग्य की बात है कि इसके बाद भी हम उसी हवा में बहे जा रहे हैं। एक बात यह भी है कि इन दलों का नेतृत्व करने वाले भी लोगों का विश्वास अर्जित नहीं कर पाते और न ही इनके पास इतना धन है कि आर्थिक बदहाली और भुखमरी से जुझ रहे मूल निवासियों कॆ लियॆ चुनाव में खर्च किया जा सके। इस पर गंभीरता से मनथन करने की जरूरत है।
यह कहना लाजमी होगा कि राज्य बनने के बाद जो राजनैतिक परिदृश्य बना, वह किसी भी सूरत में छत्तीसगढ़ियों के हित में नहीं था। कांग्रेस की सत्ता के बाद भाजपा की सरकार आई इन दलों का नेतृत्व भी ऐसे हाथों में है जिन्हें छत्तीसगढ़ की अस्मिता की कोई चिंता नहीं है। आका जैसा कहते हैं और उनकी जैसी रणनीति बनती है, सरकार भी उसी रास्ते चलती है। भले ही सरकार मॆ छत्तीसगढ़ी मत्री हैं लेकिन वे भी छत्तीसगढ़ की अस्मिता पर आवाज नहीं उठा पाते । आवाज उठाते भी हैं तो पार्टी के अनुशासन का डर दिखाकर उन्हें चुप करा दिया जाता है। इसे आखिर कैसे भुला सकता है कि जब भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे चन्द्रशेखर साहू को छत्तीसगढ़ स्वाभिमान रैली निकालने के बाद पार्टी से बेदखल कर दिया । अब तो इसके बाद से कोई भी मुंह खोलने तक की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। नेता मंत्री इस मामले में रबड़ स्टाम्प से ज्यादा कुछ भी नहीं रह गये हैं। सवाल छत्तीसगढ़ियों की अस्मिता का है तो यह भी बात सामने आती है कि सिर्फ राजनैतिक रोटी सेकने के लिए आखिर ऐसा कब तक होता रहेगा।
छत्तीसगढ़ को देश का सबसे विकसित राज्य बनाने का सपना भले ही दिखाया जाता हो, सड़कों चमकाने की बात की जाती हो लेकिन यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या इन चमचमाती सड़कों पर छत्तीसगढ़िया भीख मांगेंगे? छत्तीसगढ़ियों की उपेक्षा इस कतर हो रही है कि उद्योगों में ठीक से चपरासी तक की नौकरी नहीं मिल पा रही है। उद्योगों की स्थापना से पूर्वजों की जमीन गंवा चुके छत्तीसगढ़ियों को हमाल का काम करना पड़ रहा है और उसकी धरती में कोई दूसरा राज् कर रहा है। क्या राज्य का यही औद्योगिक विकास है? क्या छत्तीसगढ़ियों का विकास मुफ्त के चावल और नमक से ही हो पायेगा। राज्य के विश्वविद्यालयों , महाविद्यालयों तथा दूसरे शैक्षणिक संस्थानों में कितने छत्तीसगढ़िया छात्र पढ़ रहे हैं, कितनों को नौकरी मिल रही है? इधर नजर घुमाकर क्यों नहीं देखा जाता। सबसे बदहाल हालत आदिवासियों की है। जिन्हें सिर्फ सत्ता पाने का हथियार बनाकर रख लिया गया है। ऐसा नहीं है तो आदिवासियों तथा छत्तीसगढ़ियों के अस्तित्व के प्रति सत्ता प्रतिष्ठान चिंतित क्यों नहीं है । महानगरों में बेची जा रही आदिवासी तथा गरीब लड़कियों के मामलों को अनदेखा क्यों किया जा रहा है? प्रदेश स्तर पर आदिवासी नेता-मंत्रियों की बड़ी मौजूदगी होने के बावजूद भी सरकार इसके खिलाफ सख्त कानून नहीं बना सकी है।
यह भी एक कडवा सच है कि छत्तीसगढ़ में उत्तरप्रदेश तथा बिहार के लोगों की आबादी बढ़ती जा रही है और मूल निवासियों को दरकिनार कर उन्हें राजनैतिक विकास तथा सत्ता की दृष्टि से संरक्षण भी दिया जा रहा है। वहीं मूल निवासियों को छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया का जुमला देकर खुश करने का प्रयास किया जा रहा है। सच तो यह भी है कि मूल निवासी इस षड़यंत्र को सही तरीके से समझ ही नहीं पा रहे हैं। इसके लिए छत्तीसगढ़िया कहलाकर गौरवान्वित महसूस करने वालों को आगे आने की जरूरत है नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब छत्तीसगढ़िया अपनी ही धरती पर गुलामी की जिंदगी जीने मजबूर होगा। यह जरूर है कि आगे आने पर लाठियां भी खानी पड़ सकती है, जेल भी जाना पड़ सकता है लेकिन अब वक्त निकलता जा रहा है। छत्तीसगढ़ के स्वाभिमान को बचाना है तो इसके लिए पीठ भी मजबूत करना होगा। हालांकि ऐसी स्थिति न बने इसके लिए वैचारिक विकास की जरूरत है, जो सत्ता के हुक्मरान कभी नहीं चाहेंगे।
प्रस्तुर्तकत्ता -दिलीप जायसवाल

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