मंगलवार, 3 मार्च 2009

काश वह देख पाती कांच के टुकडे से उन चेहरों का सच...

हर रोज उसका कांच के टूकडे से खुद के चेहरे को बार-बार निहारना .... गोद में नवजात शिशु और उसका चुप रहना....। हां मैं एक ऐसे अर्धविक्षिप्त युवती की बात कर रहा हूं जिसका दिमाग सही होता तो शायद उसके गोद में नवजात शिशु नहीं होता। नवजात शिशु हर साल नया होता है, वह भी कुछ महिनों तक ही उसके साथ दिखाई देता है और अचानक सुबह होने के बाद गायब हो जाता है।
राजधानी रायपुर स्थित पुरानी बस्ती के कंकाली मंदिर के पास पिछले चार-पांच सालों से एक युवती अर्धविक्षिप्त होने के कारण पडी रहती है। उसकी उम्र महज 24 साल से अधिक नहीं होगी। उसे दरिंदे अपने हवस को मिटाने के लिये शिकार बनाते रहे हैं लेकिन समाज के ठेकेदारों की जुबान इस पर नहीं खुलती। अब तक वह तीन बच्चों को जन्म दे चुकी है लेकिन ये बच्चे भी उसकी गोद से चोरी हो जाते हैं। मुझे इस युवती के बारे में एक दिन का वह वाक्या याद आ रहा है जिस दिन उसके हाथ में कांच के कई टुकडे और उन टुकड में से एक बडे टुकडे से वह खुद के चेहरे को तो निहार रही थी लेकिन अपसोस उस टुकडे में उसे समाज का असली चेहरा नहीं दिख रहा था। वह समाज के असली चेहरे को भी देखने की शक्ति खो चुकी है। जब इस पर मैं दोस्तों से बात किया तो उनका कहना था कि यह सिर्फ यहां ही नहीं बल्कि उनके शहरों भी दिखाई देता है।
ऐसी घटनायें मीडियां की सुर्खियां नहीं बटोर पाती। वहीं अगर किसी विदेशी महिला के साथ छेड-छाड़ की घटना भी हो जाये तो मीडिया उसे पूरे दिन दौड़ाती रहती है। ऐसी घटनाओं पर बयान बाजी करने वालों की फेहरिस्त भी लंबी होती है। दूर्भाग्य की बात है कि लोगॊ को अब तनिक भी सोचने तक की फूर्सत नहीं है। ऐसे में कभी-कभी सोचने पर विवश हो जाता हूं कि आखिर लोग इतने भी अंधे कैसे हो जाते है कि जिंदा लाश की तरह रहने वाले अर्धविक्षिप्त महिलाओं और युवतियों से अपने हवस का भूख मिटाते है और समाज मौन व्रत में बैठा हुआ है। फिर ऐसा भी लगता है कि समाज से ही तो ऐसे दरिंदे बाहर निकलते हैं।
प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

1 टिप्पणी:

आवारा प्रेमी ने कहा…

नवजात शिशु हर साल नया होता है.
अच्छी बात है.