रविवार, 1 मार्च 2009

आदिवासियों की संस्कृति पर ही मोहित मत होइये जनाब,इधर भी झांककर देख लीजिए...

छत्तीसगढ़ के उत्तर में स्थित सरगुजा जिला के बारे में आपने पहले सुना होगा, यहां की संस्कृति और घने जंगलों के बारे में। चूंकि मैं सरगुजा के ही धंधापुर गांव का रहने वाला हूं और कम से कम सरगुजा के आदिवासियों की दुर्दशा को बचपन से लेकर अब तक देख रहा हूं। आदिवासी जिला मुख्यालय अम्बिकापुर नहीं देख सके हैं। लगभग आठ माह पूर्व जब कुसमी के सामरी पाट से बैकालू नामक एक ग्रामीण अपने साथियों के साथ रोजगार गांरटी का मजदूरी नहीं मिलने पर अम्बिकापुर पहुंचा था तो वह काफी डरा हुआ था। उसके चेहरे में डर देखकर जब मैने पूछा था तो उसने यही कहा था कि वह इससे पहले शहर कभी नहीं आया था। इनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि बस से अम्बिकापुर पहुंचते। दो दर्जन से अधिक की संख्या में मजदूरी के लिए कलेक्टर का दरवाजा खटखटाने ग्रामीण पैदल ही लगभग 150 किलोमीटर की दूरी तय कर पहुंचे थे। बैकालू के पैर में तो चप्पल भी नहीं था। यही है आजादी के साठ साल बाद भी आदिवासियों की दुर्दशा। यह तो एक छोटी सी झलक जो मेरी स्मृति में आज भी है। सच तो यह भी है कि यहां इंसान और जानवर एक ही घाट का पानी भी पीते हैं। कडकडाती ठंड़ हो या भीषण गर्मी तन लपेटने के लिए भी ठीक से चार मीटर कपड़ा नसीब नहीं होता। बच्चे तो भूखे- नंगे ही देखे जा सकते है। आदिवासियों की बदहाली इससे भी और क्या खतरनाक हो सकता है कि सामरी तथा जोका पाट में रहने वाले पूरे दिन भर जब किसी के घर पसीना बहाते है और रात में दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं होता। आखिर सरकार के विकास को क्या कहा जाये? इन आदिवासियों के विकास के लिए सरकार के मंत्री और अधिकारी तमाम बाते करते है पर सच्चाई को छुपाया भी नहीं जा सकता। कई बार ऐसी सच्चाई को बताने पर यह कहा जाता है कि नकारात्मक सोच नहीं रखना चाहिए, शायद इसे पढने के बाद भी कुछ लोग यही बात करें तो उनसे मैं क्षमा प्रार्थी हूं। आदिवासियों की हालत की बात हो ही रही है तो यह भी बताना लाजमी होगा कि आदिवासियों के विकास की बात करने वाले कई आदिवासी नेता भी इसी धरती पर पैदा हुए, उनमें भाजपा से सांसद रहे लरंगसाय को अलग नहीं रखा जा सकता। वर्तमान में जिले के बड़े आदिवासी नेता में पंचायत मंत्री रामविचार नेताम हैं जो गृहमंत्री भी रह चुके हैं। वर्तमान के सभी बड़े आदिवासी नेता जमीनी हकीकत को अच्छे से जानते हैं क्योंकि कभी उनकी हालत भी ऐसी ही थी लेकिन अब एसी गाड़ियों और अकू त धन के कारण सब भूल गये हैं। ये नेता आदिवासियों की संस्कृति शराब को भी दूर नहीं करना चाहते। वनमंत्री रह चुके गणेश राम भगत तो इसका कई सभा में खुलकर समर्थन करते रहे हैं। मेरे नजर में शराब आदिवासियों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है और नेता भले ही आदिवासियों का कितना बड़ा भी मसिहा बन लें, सच तो यह है कि अगर शराब के खिलाफ में बात करेंगे तो शराब से वोट कैसे जीत पायेंगे। आदिवासियों का दर्द कम करने का शायद दिल से अब तक किसी ने भी प्रयास नहीं किया। जितनी भी योजना बनाई गई या बनाई जा रही है, वोट बैंक और भ्रष्टाचार का सोच , नेता- मंत्रियों तथा सरकारी नुमाइदों के जेहन में आ जाता है। हां मैं बात से नहीं भटक रहा हूं, आदिवासियों को ऊर्जा देने की जरूरत है और इसमें काफी देर हो रही है। अगर हालत यही रहा तो सिर्फ मुंह जुबानी विकास दिन दूनी रात चौगुनी विकास करता रहेगा और आदिवासी अपनी हाल में तडपता रहेगा, वैसे भी ये तड़प तो अब इनकी जिन्दगी का एक हिस्सा बन गया है। प्रस्तुतकर्ता - दिलीप जायसवाल

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

दिलीप जी,
जब कोई व्‍यक्ति नेता बन जाता है तो वह आदमी नहीं रहता। साधारण आदमी तो बिल्‍कुल नहीं। फिर वह आदिवासी कैसे रह सकता है। अगर आदिवासियों का विकास हो गया तो वह समझदार हो सकते हैं और नेतागिरी समझदारों के बीच चलना मुश्किल होती है। आप एक भेड़ के सहारे पूरे झुंड को एक दिशा में ले जा सकते हैं क्‍योंकि उनमें बुद्धि का अभाव होता है।

P.N. Subramanian ने कहा…

बिलकुल सही कहा गया. आदिवासी यदि शिक्षित हो जाएँ तो फिर नेताओं का क्या होगा. उन्हें गरीब और अशिक्षित रहने में ही इन सब का स्वार्थ है.