रविवार, 22 मार्च 2009

जब मदहोशी के बाद आई होश


रायपुर की भागदौड़ की जिन्दगी, कू दता- फंादता इंसान। किसी को किसी से दो पल बात करने की फुर्सत तक नहीं। ऐसे में मुझे उस वक्त काफी सुकून मिला जब टे्रन से अंबिकापुर के लिए निकला। यूं तो अंबिकापुर शहर को मै तब से जान रहा हूं, जब से होश संभाला है। लेकिन अंबिकापुर से गांव जाने के लिए ट्रेन से उतरने के बाद ही योजना बना ली। मोटरसायकल से निकल पड़ा गांव और जंगल क ी दुनिया में। महुआ चुनती महिलाएं और महुआ की सोधीं खुशबू, साल के घने जंगल और फूलों से लदे साल के पेड़, पलाश की सुर्ख लाल फूलों से मदहोश हुआ जा रहा था। यहीं नहीं गुलाबी ठंडी हवा मन में उत्साह का संचार कर रही थी तो कोयल की सुमधुर तान का हो गया था दिवाना। जंगल रास्ते के इस छोटे से सफर में अकेला होने का एहसास तो हुआ ही नहीं। यहां तो यह भी भुल गया कि पूरी रात ट्रेन की सफर में थका भी था।
जंगल का रास्ता खत्म हो रहा था। ऐसे में एक पेड़ के नीचे लेट जाने की इच्छा को नहीं टाल सका। जैसे लेटा जंगल के कोने से धुंआ उठती हुई देख अचानक उठ बैठा। पता चला कि जंगल में आग पिछले कई दिनों से लगी हुई है। इस ओर किसी का कोई ध्यान नहीं है। गांव पहुंचा तो लोगों ने बताया कि जंगल में आग तो लगी ही है। पेड़ों की कटाई भी बेखौफ चल रही है। वे इसकी शिकायत भी विभाग के अधिकारियों से करते हैं, लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मेरे मुंह से जंगल की तारीफ सुनकर गांव के एक वृध्द से रहा नहीं गया, वह कहने लगा तुमन जंगल ला देख के खुश होवत हा, येही हाल रही तो दोई- तीन साल मा ये गांव ले आने गांव ह आर पार दिखी। वृध्द की बात सुनकर मंथन में डूब गया। वृध्द की यह चिन्ता भले ही सामान्य हो लेकिन उसके चेहरे और ऑंखों में जंगल के प्रति जो श्रध्दा देखी वह काफी सुखद थी। मन में यह भी विचार आने लगा कि काश ऐसी सोच हमारी युवा पीढ़ी में भी होती। यह इसलिए भी क्योंकि जवान और विशालकाय पेड़ों को वृध्द हाथ नहीं काटते, बल्कि पेड़ों की गर्दन पर युवाओं का कुल्हाडी चलता है।
शहरी चकाचौंध के बीच लोगों को फूर्सत के क्षण में पार्क का ख्याल आता है। सिर्फ इस लिए क्योंकि प्रकृति की छांव उनसे दूर हो चूकी है। कभी गांवों में रहने वाले लोगों को भी प्रकृति की छांव की तलाश न करनी पडे, यह चिन्ता भी मेरे जेहन में है। जब सरगुजा के प्रेमनगर क्षेत्र में इफको पॉवर प्लांट की स्थापना पर लाखों की संख्या में होने वाले पेडाें की कटाई के विरोध में सैकड़ो ग्रामीणों ने सिर मूड़ाया था और महिलाओं ने पेड़ों पर राखियां बांधी थी। शायद ही कहीं ऐसा पेडाें के प्रति लोगों का प्यार दिखा हो। ऐसा प्यार लोगों में पेडाें के प्रति स्थाई तौर पर आखिर क्यों नहीं दिखता।
आदिवासी समाज पेड़ों की पूजा करता है। आदिवासियों की संख्या भी सर्वाधिक है, इसके बाद भी जंगल असुरक्षित हो गये हैं। ऐसा नहीं है कि आदिवासी समाज यह सब भूल गया है लेकिन उसे पेट की फिक्र करनी पड़ती है और ऐसे में वह अपनी संस्कृति को नजर अंदाज करने मजबूर हो गया है। बात तो जंगल की सुनहरी वादियों से शुरू हुई थी, परंतु जंगल में धधकती आग ने रास्ता ऐसा मोड़ा कि यह कलम भी उसी रास्ते पर निकल चला। बस अब तो यही लगता है कि जंगल को देखकर खुश होना लाजमी है पर इसी से काम नहीं चलने वाला उसक ी सुरक्षा भी हमारी हाथों पर है।

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