शनिवार, 8 अगस्त 2009

सूचना के अधिकार में सरकारी कतरन लाल फीताशाही की निशानी

भ्रष्टाचार और गोपनीयता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं जहां भ्रष्टाचार होगी वहां गोपनीयता होगी और जहां पारदर्शिता होगी वहां भ्रष्टाचार की उर्वरा भूमि तैयार नहीं हो सकती। इसी को ध्यान में रखते हुए 15 जून 2005 को सूचना का अधिकार कानून बना और 120 दिन बाद यानि 12 अक्टूबर 2005 को यह लागू हो गया। इस कानून को भारत में भ्रष्टाचार रोकने प्रभावी कदम बताया गया। क्योंकि इसके तहत सरकार दस्तावेजों और प्रपत्रों को देखने तथा प्राप्त करने का अधिकार है लेकिन चार साल में ही इस कानून से कई सरकारें खिन्न नजर आई। सबसे पहले कर्नाटक सरकार और अब छत्तीसगढ़ सरकार इस कानून से कितने दहशत में हैं, यह भी साफ हो गया है । गत 15 जून को छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य सूचना अधिकार आयोग की अनुसंशा से सूचना के अधिकार कानून में संशोधन किया है कि एक आवेदन ने एक ही विषय वस्तु पर जानकारी मांगी जा सकती है तथा डेढ़ सौ शब्दों से ज्यादा के आवेदन स्वीकार नहीं किये जायेंगे। नौकरशाहों द्वारा सूचना के अधिकार कानून को कतरा गया लेकिन विरोध के स्वर कहीं से नहीं दिखे जो प्रभावी रूप ले सके। समाज के प्रबुद्ध कहे जाने वाले वर्ग की भूमिका पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। सरकार का कानून में यह कतरन भ्रष्टाचार के कारण तो नहीं है। वैसे भी महालेखाकार की रिपोर्ट पर नजर डालें तो छत्तीसगढ़ भ्रष्टाचार के मामले में नम्बर वन है। सूचना के अधिकार के लिए काम करने वाले छत्तीसगढ़ नागरिक पहल के प्रतीक पांडे कहते हैं कि लालफीता शाही की मानसिकता सरकार के इस संशोधन में दिखाई दे रहा है। सबसे पहले कर्नाटक सरकार ने सूचना के अधिकार कानून को कतरा जिसका बुरा प्रभाव वहां बड़े पैमाने पर दिखाई दिया है और अब इसे छत्तीसगढ़ सरकार ने यहां लागू किया है। खास बात तो यह है कि इस संशोधन में जिस तरीके से कहा गया है कि एक आवेदन में एक ही विषय वस्तु की जानकारी दी जायेगी लेकिन विषय वस्तु को परिभाषित ही नहीं किया गया है। विषय-वस्तु आंतरिक स्वरूप को रेखांकित करता है वहीं विषय क्षेत्र बाहरी आवरण को दिखाता है। नौकरशाही में जिस तरीके से मौलिक अधिकारों में शामिल इस कानून के साथ खिलवाड़ किया है वह किसी भी सूरत में आम आदमी के हित में दिखाई नहीं दे रहा है। राज्य ही नहीं अब तो केन्द्र सरकार भी सूचना के अधिकार कानून में छेड़छाड़ करने की कोशिश कर रही है। जब कानून बना उस समय भी कईयों का विरोध झेलना पड़ा था। राज्य सरकार ने जिस तरीके से इस कानून के साथ खिलवाड़ किया है वह उसके दायरे में भी नहीं था और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि राज्य सूचना आयोग जिसके पास इस कानून के संरक्षण की जिम्मेदारी है उसने ही कानून को कतरने की इजाजत दे दी।यहंा बताना लाजमी होगा कि सरकार सूचना के अधिकार कानून का प्रचार प्रसार भी नहीं करना चाहती। यह बात अलग है कि इसके नाम पर करोड़ों रूपए खर्च हो चुके हैं। सूचना का अधिकार कानून ब्लेकमेलरों के लिए वरदान साबित हुई है। ऐसे में इस कानून का उद्देश्य सिर्फ कागजों तक ही सीमित दिखाई दे रहा है। हालंाकि इस कानून से मीडिया को काफी लाभ हुआ है और वह इसके माध्यम से सूचनाएं प्राप्त कर समय-समय पर कई सरकारी घोटालों और कालगुजारियों का पर्दाफाश किया है। जो इस कानून के बिना संभव ही नहीं था। देश में इस कानून के लागू होने के बाद भी लालफीताशाही की छाया दूर नहीं हो सकी। क्योंकि इसी के भीतर ही यह कानून संचालित है। यही कारण है कि आवेदन करने पर भी कोई भी सरकारी नुमाईंदा जानकारी नहीं चाहते। सैकड़ों आवेदन राज्य सूचना आयोग के पास पड़े हुए हैं और आयोग के निर्देशों के बाद भी अधिकारी जानकारी नहीं देना चाहते यानि आम आदमी सरकारी नुमाईंदों के रवैये के कारण आसानी से जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता । उसे इसके लिए भी सूचना आयोग के आगे लंबी लड़ाई लडऩी पड़ रही है। यहां उल्लेख करना जरूरी होगा कि संविधान अनुच्छेद 19(1)के तहत सूचना का अधिकार मौलिक अधिकारों का एक भाग है। सरकार से कुछ भी पूछे यह कोई भी सूचना मांगा जा सकता है। किसी भी सराकरी निर्णय की प्रति ,दस्तावेजों का निरीक्षण, सरकारी कार्यो का निरीक्षण और सरकारी कार्यो के पदार्थो का नमूना लिया जा सकता है। खाश बात तो यह है कि सरकार द्वारा नियंत्रित वित्त पोषित या नियंत्रित इकाईयां भी इस कानून के दायरे में हैं लेकिन इसकी धज्जियां उड़ रही है। छोटी सी बात की हर सरकारी दफ्तर के बाहर सूचना के अधिकार संबंधी बोर्ड लगा होना चाहिए लेकिन आज भी कई दफ्तरों में बोर्ड का अता पता नहीं है। ऐसे में इन संस्थानों में 30 दिन के भीतर जानकारी देने और जीवन की स्वतंत्रता प्रभावित होती हो तो 48 घंटे के भीतर जानकारी देने की बात सपनों में भी दिखाई नहीं देती है। इसका प्रमुख कारण यह भी है कि पूरा सरकारी तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से इसके लिए अनुकूल माहौल बना चुका है। इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि इस कानून को सालों बाद दबाव में आकर संसद द्वारा पास किया गया। राज्य सरकार के अफसरों की सुने तो उनका कहना है कि एक ही आवेदन में ऐसी जानकारियां मांगी जा रही थी जिसे दे पाना व्यवहारिक दृष्टि से दे पाना संभव नहीं था। लोग कुछ भी जानकारी मांगते थे। लेकिन यहां यह भी साफ है कि लोग मौलिक अधिकारों में शामिल इस कानून के तहत सरकार से कुछ भी जानकारी मांग सकते हैं जो देश, समाज, राष्ट्र हित के विपरीत न हो और न ही इससे देश की सुरक्षा पर प्रतिकूल असर पड़ता हो। प्रस्तुतकर्ता - दिलीप जायसवाल