शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

सच बोलने की सजा अनुशासनहीनता

आजादी के बाद हमें मौलिक अधिकार मिले हैं लेकिन हमेशा से ही नौकरशाह वर्ग द्वारा इसे कुचलने की कोशिश की जाती रही है। इससे संघर्ष नहीं करने पर यह कहना कि हम आजाद भारत में है, गलत लगता है। इस पर चार माह पूर्व की एक घटना याद आ रहा है। हमारे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में एडिटिंग का साफ्रटवेयर नहीं था और उसके वजह से पढ़ाई तथा प्रेक्टिकल नहीं हो पा रहा था। हमारे सीनियर तो बिना एडिटिंग सीखे ही इस विश्वविद्यालय से निकल गये, लेकिन उस दिन जब विश्वविद्यालय में राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन का पहली बार आगमन हुआ था और मीडिया के लोग भी उसकी रिपोटिंग के लिए पहुंचे थे, इसी दरम्यिान जब मैंने एक टीव्ही चैनल से एडिटिंग साफ्रटवेयर नहीं होने के कारण प्रेक्टिकल में आने वाली दिक्कतों के बारे में बताया तो उसी समय से विश्वविद्यालय प्रशासन तथा प्रोफेसरों की आंखों की किरकिरी बन गया। दूसरे दिन से विभागाध्यक्ष ने मुझे अप्रत्यक्ष रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और दंडित करने की मंशा दिखाई। ऐसा भी नहीं था कि मैं सीधे मीडिया से एडिटिंग साफ्रटवेयर नहीं होने की शिकायत की थी बल्कि इससे पहले भी कई बार हमारे सीनियर इस अव्यवस्था से विश्वविद्यालय प्रशासन को अवगत करा चुके थे। मीडिया में सच बोलने की सजा जो मिली वह भी अनुशासनहीनता। अनुशासनहीनता के नाम पर प्रेक्टिकल के 25 अंकों में से सभी पांचों विषय से सात-सात अंक काट दिये गये, जबकि थ्योरी पेपरों में मिले अंकों के अनुसार कक्षा में मेरा दूसरा स्थान था। सच बोलने और अभिव्यक्ति को अगर इस तरह पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुचलने की कोशिश हो तो इसे क्या कहा जाये ? दुर्भाग्य की बात तो यह है कि अभी भी व्यवस्था नहीं सुधरी है और इस पर सकारात्मक सोच रखने की नसीहत दी जाती है। ऐसी स्थिति में सकारात्मक सोच रखने का भी एक निश्चित होता है। यह सब बताने और लिखने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि क्या इसी को अनुशासनहीनता कहते है। अभिव्यक्ति और स्वतंत्र भारत में अपनी बात रखने पर क्या यही अधिकार मिला है कि उसे नौकरशाह जब चाहे, जैसे चाहे कुचल दे और जिस भी रूप में चाहे उसकी सजा दे। देश में कितने लोगों को उनके अधिकार मिल रहे हैं, यह भी सोचने की जरूरत है। अब हालत तो ऐसी बन गई है कि जीने का अधिकार भी कुचलता हुआ दिखाई दे रहा है। मौलिक अधिकारों की बात करने पर पुलिस की लाठियां बरस जाती है। कभी किसानों पर तो कभी मजदूरों और छात्रों पर वहीं हमारा लोकतंत्र और नेता लगातार लालफीताशाही वर्ग को बढ़ावा दे रहें है। इसका एक कारण यह भी है कि वे इसी से खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत में अधिकार और न्याय अब भी कठिन है। यह सरल होने के बजाय व्यवहारिक दृष्टि से और भी जटिल होता जा रहा है। हालत देखकर यही लगता है कि सन 1947 के बाद देश की टोपी भर बदली है, सब कुछ वही है। आज पूरा लोकतंत्र नौकरशाही के तंत्र से इस कदर जकड़ा हुआ है कि सांस लेने में भी उसका दम घूट रहा है। ऐसे में पत्रकारिता विश्वविद्यालय भला कैसे सुरक्षित रह सकता है। यहां मेरे साथ जो कुछ भी हुआ वह मुझे ज्यादा चिंतित इसलिए करता है क्योकि यहां लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के लिए खंूटे तैयार हो रहे हैं और जब वे मीडिया के संक्रमण काल में यहां के नौकरशाही तंत्र से घाव खाकर जायेंगे तो भला किस तरह से व्यवस्था के प्रति समाज में सकारात्मक सोच के साथ काम करेंगे। प्रस्तुतकर्ता-दिलीप जायसवाल

1 टिप्पणी:

हें प्रभु यह तेरापंथ ने कहा…

कृष्ण जन्माष्ट्मी व स्‍वतंत्रता दिवस की बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं !!

जय हिन्द!!

भारत मॉ की जय हो!!

आई लव ईण्डियॉ


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