सोमवार, 10 अगस्त 2009

अफसरशाही की फांसी और मंजू की खुदकुशी

सरकारी तंत्र की जटिलता और नौकरशाहों का रवैया जान पर बन आया है। सरकारों का अफसरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया है, आम आदमी त्राहि-त्राहि है। बस्तर के केशकाल में मंजू यादव नामक छात्रा ने इसलिए फांसी लगाकर जान दे दी क्योंकि वह छह माह से जाति प्रमाण पत्र बनवाने के लिए तहसील कार्यालय का चक्कर काट रही थी। इसी तरह अम्बिकापुर में जाति प्रमाण पत्र नहीं बन पाने के कारण एक युवती की लगी लगाई नौकरी छिन गई। प्रमाण पत्र जारी करने वाले इन सरकारी नुमांईदों का जेब गर्म करने पर 24 घंटे में भी प्रमाण पत्र बन जाते हैं, भले ही फर्जी ही क्यों न हो। ऐसे कई मामले जांच में सामने आ चुके है। इससे कईयों की नौकरी भी गई है जो फर्जी प्रमाण पत्रों के सहारे नौकरी कर रहे थे और कई आज भी सरकारी पदों पर विराजमान है, ऐसी स्थिति बनने के लिए कौन जिम्मेदार है ? इस व्यवस्था को दूरस्थ करने के लिए पहल क्यों नहीं होनी चाहिए। मंत्रियों द्वारा व्यवस्था सुधारने और आम लोगों को परेशानी न हो इसी उद्देश्य से हर महीने समीक्षा बैठक होती रहती है, उसमें लाखों खर्च होते हैं, लेकिन शायद बैठकों के बाद एयरकडिशनर से निकलते ही अफसर और सीख देने वाले सब भूल जाते है। राज्य में जाति प्रमाण पत्रों के सत्यापन के लिए युवाओं की लम्बी कतारें धूप और बारिश हर मौसम में देखी जा सकती है। आखिर सरकारी व्यवस्था में इतनी जटिलता क्यों ? सिर्फ इसलिए की जांच सही तरीके से हो सके। लेकिन उसके बाद भी झूठ पकड़ाता है तो किसके खिलाफ कार्यवाही होती है ? कार्यवाही भी कितने सालों बाद हो पाती है या फिर जांच की फाईल धूल खाती रह जाती है, क्योंकि दोषी अफसर किसी मंत्री का रिश्तेदार या पैसे के बल पर पहुंच वाला होता है। बस्तर के बीहड़ में आत्महत्या करने वाली छात्रा और उसके प्राथमिक कारण सुर्खियों में भले ही न आ पाया हो, लेकिन मुख्यमंत्री डाॅ. रमन सिंह को इस ओर सोचने की जरूरत है कि बस्तर जैसे नक्सल प्रभावित इलाके में भी नौकरशाहों का रवैया जान लेने के लिए काफी है। ऐसे में नौकरशाहों के बिरादरी के प्रति बस्तर के आदिवासी किस सोच के साथ हमदर्दी दिखायें। बस्तर के केशकाल की मंजू यादव का परिवार काफी गरीब है और वह काॅलेज में दाखिला लेने के लिए प्रमाण पत्र बनवा रही थी ताकि उसे छात्रवृत्ति मिल सके, लेकिन अफसरों का रवैया उसे आत्महत्या के लिए सोचने का विवश कर गया। यह अलग बात है कि अभी पुलिस आत्महत्या के कारणों की जांच कर रही है और यह उम्मीद करना कि वह अफसरों के खिलाफ ईमानदारी से जांच करेगी। हालात देखकर बेईमानी लगती है। मंजू जैसी छात्रा घर से तहसील कार्यालय तक कई किमी तक हर 15 और 20 दिन में बस से, तो कभी दूसरे साधनों से जाती थी। उसे आने-जाने तक का पैसा पड़ोसियों से कर्ज में लेना पड़ता था और जब वह तंग आ गई तो घर नहीं लौटी। उसकी लाश फांसी में लटकती हुई मिली। मंजू जैसी जाने कितनी छात्राओं का आवेदन फाईलों में धूल खा रही है। अब दूसरी मंजू फांसी न लगाये सरकार की नींद खुल जानी चाहिए। -दिलीप जायसवाल

कोई टिप्पणी नहीं: