रविवार, 8 फ़रवरी 2009

.... तॊ भारतीय भाषाओं को भगवान भी नहीं बचा सकते

देश के वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने कहा है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा से मातृभाषा को दूर करने का प्रयास कर रही है, ऐसा हुआ तो भारतीय भाषाओं को भगवान भी नहीं बचा सकते। देश के बीस रायों में कक्षा एक से ही अंग्रेजी की शिक्षा दी जा रही है। वर्तमान में भारतीय भाषाओं पर नहीं बल्कि भारतीयता पर संकट दिखाई दे रहा है। हिन्दी मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। वह भी हिन्दी भाषा की हत्या कर रही है।
कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, छत्तीसगढी राजभाषा आयोग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के संयुक्त तत्वाधान में हिन्दी और आंचलिक बोलियों के बीच अंतर संवाद विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। राष्ट्रीय संगोष्ठी को संबोधित करते हुए सीएनईबी चैनल के प्रमुख राहुल देव ने कहा कि समाज व देश की सम्प्रभुता के लिए एक भाषा की जरूरत होती है और उसी से खुद को देखना और समझना चाहिए। वर्तमान में भारतीय भाषाओं पर नहीं बल्कि भारतीयता पर संकट दिखाई दे रही है। भारत शब्द भी हिन्दी से धीरे-धीरे बाहर होता जा रहा है। भाषा को यंत्र या उपकरण माना जा रहा है,भाषा को माध्यम मानना भी किसी मूर्खता से कम नही है। भाषा को गंभीरता से लेने की जरूरत है। बदलती भाषा से मन बदलता है यही कारण है कि देश अपनी नजर से खुद को देखना भूल गया है। उन्होने कहा कि संकर भाषा जरूरी है, लेकिन भाषा को भ्रष्ट किया जाना घातक है। राहुल देव ने हिन्दी भाषा में अनावश्यक अंग्रेजी के प्रयोग पर चिंता जाहिर की और कहा कि वे अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं करते लेकिन जो स्थिति है ,वह हिन्दी के लिए नहीं बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के लिए खतरनाक है।
वरिष्ठ पत्रकार राहुलदेव ने कहा कि सरकार देश को सन् 2050 तक महाशक्ति बनाना चाहती है और इसके लिए वह कक्षा एक से ही अंग्रेजी की शिक्षा अनिवार्य कर रही है। देश के 20 रायों में प्राथमिक शिक्षा के साथ ही अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू हो गई है । ऐसे में सन् 2050 तक हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि किसी भी भारतीय भाषा के अस्तित्व को बचाना आसान नहीं होगा। उन्होंने हिन्दी मीडिया पर भी खुलकर कटाक्ष किया और कहा कि हिन्दी मीडिया हिन्दी भाषा की हत्या कर रही है।
वरिष्ठ पत्रकार एवं नवनीत के संपादक विश्वनाथ सचदेव ने कहा कि पत्रकारों के सामने सम्प्रेषण की समस्या दिखाई दे रही है। पैंतीस सौ अंग्रेजी के शब्द हिन्दी में है। हालांकि वर्तमान में अंग्रेजी के शब्दों का अनावश्यक प्रयोग हो रहा है। अखबार अंग्रेजी के शब्दों को जबरन ठूंस रहे हैं। एक-दूसरे भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए लेकिन फैशन के कारण ऐसा होना गंभीर है।
राष्ट्रीय संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए लेखक एवं पत्रकार रमेश नैय्यर ने कहा कि भाषा में परिवर्तन आने से संस्कृति में भी उसका प्रभाव दिखाई देता है। देश में हिन्दी को विस्थापित करने का षड़यंत्र चल रहा है जो चिंता का विषय है। अंग्रेजी से कोई परहेज नहीं है लेकिन साम्रायवाद को समझने की जरूरत है। अगर हमें भारतीय अस्मिता का ख्याल है तो लोक भाषाओं के शब्दों के प्रयोग को गलत नहीं मानना चाहिए। भाषाओं के द्वार खुले रखने की जरूरत है।साहित्यकार डॉ सुशील त्रिवेदी ने कहा कि हिन्दी ही नहीं बल्कि दूसरी भाषाओं पर भी उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के कारण संकट है। सामाजिक अवधारणा भी बदल गई है पहले जैसे रिश्ते थे अब वैसा नहीं, अब सिर्फ निकट का ही रिश्ता रह गया है। उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दी में मौलिक सोच को लाने में काफी देर हुआ। यह भी वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है।
दीनदयाल मानव अध्ययन शोध पीठ के अध्यक्ष रमाशंकर अगि्होत्री ने कहा कि साहित्य ने साहित्यकारों को पत्रकारिता से अलग कर दिया है। साहित्य वर्तमान में लक्ष्य की तलाश नहीं कर पा रहा है और ऐसे साहित्यकारों की फाौ बढ़ी है। साहित्य अपना परिचय भी भूल गया है और परिचय बताने वालों को साहित्यकारों ने भूला दिया है। साहित्य जगत में पत्रकारों को अभिष्ठान दिलाने की जरूरत है।
लेखक एवं साहित्यकार इंदिरा मिश्रा ने कहा कि हिन्दी अखबारों में हिग्ंलिस का प्रयोग हो रहा है। संपादकों को ध्यान देने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि अरबी और फारसी के सात हजार हिन्दी कोष में है। दूसरे भाषाओं के शब्दों को लेकर भाषा समृध्द होती है। हिन्दी से आंचलिकता प्रभावित हुई है और आंचलिकता ने हिन्दी को प्रभावित किया है।
हिन्दी लेखक निरंजन महावर ने कहा कि हिन्दी किताब पढ़ने और खरीदने वालों की संख्या कम हुई है। सम्प्रदायिक सोच ने हिन्दी को संर्कीण बना दिया है। हिन्दी अब लोचदार और मुहावरेदार भाषा नहीं रह गई है। आंचलिक बोलियों की तरफ झुकाव बढ़ा है। आंचलिक बोलियों के मुहावरों का प्रयोग हिन्दी में करने से कोई संकोच नहीं करते। यही सब कारण है कि हिन्दी की सम्प्रेषण शक्ति कम हुई है।
संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुए वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक गिरीश पंकज ने कहा कि भाषाओं के बीच शब्दों का आदान प्रदान हो ,लेकिन संस्कृति नष्ट न हो, इस पर चिंतन की जरूरत है। हिन्दी के प्रति यहीं नजरिया रहा तो भाषा हासिये में चली जायेगी। हिन्दी पत्रकारिता में भी हिन्दी को तबाह किया है जिसे आने वाले पीढ़ी कभी माफ नहीं करेगी । वैश्विक होने की ललक हमसे अपनी भाषा को छीन रही है और धीरे-धीरे उसका जड़ कटता जा रहा है।प्रस्तुतकर्ता दिलीप जायसवाल

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