रविवार, 8 फ़रवरी 2009

भाषा के विवाद पर छत्तीसगढ़ियों को खलनायक बनाने की कोशिश

छत्तीसगढ क्षेत्रीयता और भाषा को लेकर राजनीति का शिकार हो रही है। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा की मान्यता मिलने के बाद अब छत्तीसढ़ियों को आंचलिक बोलियों के नाम पर बांटने की कोशिश हो रही है। छत्तीसगढ़ियों को भाषा के विवाद पर खलनायक बनाने की कोशिश की जा रही है, जो खतरनाक है। छत्तीसगढ़ियों और छत्तीसगढ़ी राजभाषा के साथ न्याय की जरूरत है और यह सिर्फ नजरिया बदलने से ही संभव है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है, क्योंकि छत्तीसगढ़ियों को भी अपना सम्मान प्यारा है।
हिन्दी और आंचलिक बोलियों के बीच अंतर संवाद विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के पहले दिन कुछ ऐसी ही आवाजें बुलंद हुई। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, छत्तीसगढी राजभाषा आयोग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित इस संगोष्ठी में अपने विचार व्यक्त करते हुए रमेश नाथ मिश्र ने ने कहा कि दिल्ली सल्तनत का छत्तीसगढ़ में कभी शासन नहीं रहा। यही कारण है कि छत्तीसगढ़ की बोलियां सुरक्षित है। यहां मिले शिलालेखों में छत्तीसगढ़ी की समृध्दता दिखाई देती है। इसके अलावा सन् 1920-30 के तरम्यान में निकली विकास एवं उत्थान पत्रिका में हिन्दी भाषा के साथ छत्तीसगढ़ी देखा जा सकता है। पंडित सुन्दरलाल शर्मा ने जेल से जब पत्रिका निकाली थी उसमें भी छत्तीसगढ़ी का स्थान था। इसके अलावा पंडित लोचनप्रसाद, खूबचन्द बघेल सहित दूसरे साहित्यकारों ने भी छत्तीसगढ़ी को आगे बढ़ाया। श्यामलाल चतुर्वेदी ने कहा कि जिस प्रकार हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समांजस्य बनाकर काम किया जा रहा है वह अनुकरणीय है। छत्तीसगढ़ी की समृध्दता को समझने के लिए पांडू लिपियों को सामने लाने की जरूरत है। छत्तीसगढ़ी राजभाषा के आगे बढ़ने से हिन्दी को कोई नुकसान नहीं होगा। छत्तीसगढ़ी में आंचलिक बोलियों के शब्दों का समावेश किया गया है। इससे किसी को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए । भाषा के विकास के लिए व्यक्तिवादी और राजनीतिक पूर्वाग्रहों को भूलकर काम करने की जरूरत है। बिहारीलाल साहू ने कहा कि किसी भी समाज में भाषा व भूमि को मां का दर्जा दिया जाता है। हिन्दी से छत्तीसगढ़ी राजभाषा का घुला हुआ संबंध है। हिन्दी अनेक भाषाओं का गुच्छा है। जिसमें छत्तीसगढ़ी भी शामिल है। वर्तमान में छत्तीसगढ़ी का स्वरूप भिन्न है। उन्होंने कहा कि इसका प्रमुख कारण क्षेत्रीय अस्मिता के सवाल से जोड़कर देखा जाता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि बस्तर और सरगुजा दोनों क्षेत्रों में कई बोलियां हैं। आंचलिक बोलियों के नाम पर छत्तीसगढ़ियों को बांटने की कोशिश न की जाये। भाषा व्यवहार से समृध्द होती जाती है। राजभाषा को किसी सियासी फरमान से मजबूत नहीं किया जा सकता। इसे स्वतंत्र तरीके से व्यवहार में लाना पड़ेगा। संगोष्ठी में अपने विचार रखते हुए नंदकिशोर तिवारी ने कहा कि छत्तीसगढ़ी पत्रिकाओं को दोयम दर्जे में रखा जाता है और छत्तीसगढियों को आपस में लड़ाने की कोशिश की जाती है। दुभार्ग्य की बात है कि हिन्दी साहित्य सम्मेलन में यह प्रस्ताव रखा गया कि किसी भी राजभाषा को संविधान के आठवें अनुसूची में शामिल न किया जाये। व्यास नारायण दुबे ने कहा कि छत्तीसगढ़ी राजभाषा में 22 आंचलिक बोलियों को शामिल किया गया है।भाषा और विचार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। श्री अशोक ने कहा कि भाषा की मौलिकता को मारने की कोशिश की जा रही है। सन् 2002 में राजनांदगांव में आयोजित साहित्य सम्मेलन में छत्तीसगढ़ी भाषा को आत्मा की संज्ञा दी गई थी। ऐसी भावुकता से बचने की जरूरत है। भाषा और बोली आत्मा नहीं होती बल्कि आत्मा तो संस्कृति होती है। उन्होंने भाषा की मानकीकरण पर जोर देते हुए कहा कि इसके बिना किसी भी भाषा का ढाचा नहीं बन सकता। भाषा और बोलियों के बीच छत्तीसगढ़ियों को आपस में लड़ाने से पहले सोच लेना चाहिए कि यहां के लोग कभी भी खलनायक नहीं बन सकते। छत्तीसगढ़ी राजभाषा मंच के उपसंयोजक जगेश्वर साहू ने कहा कि सरकार और प्रशासन में बैठे लोग भाषा के नाम पर लड़ाने की कोशिश कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ में हिन्दी और गैरछत्तीसगढ़ी लोग शासन प्रशासन में बैठे हुए हैं। उन्हें समझ लेना चाहिए कि सामाजिक समरसता और सभी कला संस्कृतियों को यहां सम्मान मिलता है। छत्तीसगढ़ के लोगों के साथ ही छत्तीसगढ़ी राजभाषा बोलने वालों के साथ न्याय की जरूरत है और इसके लिए नजरिया बदलना चाहिए । इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो स्थिति बिगड़ सकती है क्योंकि अब छत्तीसगढ़ के भोले-भाले समझे जाने वाले लोग भी अपने सम्मान के लिए जीने लगे हैं। छत्तीसगढ़ी बोली को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया लेकिन यह कामकाज का भाषा कैसे बने इसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। सरकार के ठेकेदारों को चाहिए कि अब वे राष्ट्रीय भाषा और राज्य भाषा में छत्तीसगढ़ी को सम्मान दिलायें। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रीय नेता पूरे देश को एक नजर से देखें और क्षेत्रवाद की राजनीति न होने दें। भले ही कार्यक्षेत्र क्षेत्रीय हो लेकिन भावना हमेशा राष्ट्रीय होना चाहिए । जगेश्वर साहू ने कहा कि विधानसभा में छत्तीसगढ़ी राजभाषा का प्रयोग करने के लिए शपथ लेने जब विधायकों की बारी आई तो कुछ ही विधायक शपथ लिये। छत्तीसगढ़ के लोग हमेशा से दगाबाजी सहते आये हैं। अब बर्दास्त नहीं किया जायेगा।

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