मंगलवार, 10 नवंबर 2009

पहचान ढूढंते रह जाओगे

गंावों में हमारे देश की संस्कति और रहन सहन छुपी हुई है। यह ऐसा अमूल्य धरोहर है जिसे खोने के बाद नहीं पाया जा सकता और न ही हमारी विशिष्ट पहचान दुनिया में सुरक्षित रह सकती हैै। हम इसे नजर अंदाज कर रहे है। लोग शहर में घर होने की बात कर जितना गौरवान्वित होते हैं उतना गांव में घर होने की बात कर नहीं होते। लोग खुद को शहरी बताकर खुश होते है। ऐसे लोगो को भय होता है कि गांव में रहने की बात करेगें तो वे देहाती समझे जायेंगे। देहाती शब्द उनके लिए मानो अपमान जनक हो। लेकिन जब देहाती टमाटर या मिर्ची बाजार में आती है तो अधिक कीमत के बाद भी लोग खरीदते हैं। इसके बाद भी गांवो के प्रति उपेक्षित रुप खतरनाक है।

ऐसी स्थिति गांवो की आत्मा को मार सकती है। ऐसा होता है तो इस देश की आत्मा कहां होगी चिन्ता का विषय है।

ग्रामीण युवा वर्ग शहरी तडक भडक की जाल में बुरी तरह फंस चुका है। वह शहरों की ओर भाग रहा है। वह खेत में काम नहीं करना चाहता। भले ही शहरों में रहकर उसे रिक्शा चलाना पडे या दूसरे के घर पर बर्तन धोना पडे, वह तैयार दिखता है। वहीं लोग बेटे-बेटियों की शादी शहर में करके अपनी खुश किस्मती समझते हैं। इस तरह शहरी हवा खानं के बाद गंावो को भूलने लगते है और धीरे धीरे गांवो की ओर मुडकर देखने में भी अपना अपमान समझने लगते है। इस सोच से बाहर निकलने की जरुरत है। इसके बिना गंावां का विकास भी नहीं हो सकता है। यह अलग बात है कि सरकारें विकास के लिए काम कर रही हैं लेकिन गांवों के प्रति हमारी संवेदनशीलता जब तक नहीं होगी तब तक यह सफल नहीं हो सकता।

ग्रामीण युवा शहरी आबो हवा में आने के बाद गांवो के बारे में सोचना ही नहीं चाहता। वहीं खेतो में काम करने वालो को पेट और बाल- बच्चो के बाद इतना समय नहीं मिलता कि वे गंावो के प्रति अपने सपनो को सच करने प्रयास कर सकें। कभी प्रयास भी करते हैं तो सरकारी तंत्र के जाल को भेद नहीं पाते। ऐसे में गांव की मिटटी में पैदा हुए लोग एक बार एक बार गांव की ओर मुडकर देखे और वहां की हालत को समझे तो गांवो की तकदीर बदलने से कोई नहीं रोक सकता।

हम क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों का प्रयोग करना भी अपमान समझने लगे हैं। लोग बच्चों को अंग्रेजी की कोचिंग करा रहे हंै, यह जरुरी भी है। वहीं हम अपनी क्षेत्रीय भाषा व बोली का प्रयोग घर और परिवार में भी नहीं करते। इसका उदाहरण अपना छत्तीसगढ है। जब छत्तीसगढ राज्य बना तो यहां के लोगो में छत्तीसगढी के प्रति अगाध प्रेम दिखाई दिया। वह अब दिखाई नहीं देता।

डेढ-दो दशक से शहर में रहने वाले लोगों के लिए गांव घुमने भर का साधन रह गए हैं। भाग-दौड की जिंदगी में शहर के लोगों को जब सुकून की जरुरत होती है तो वे गंाव की ओर निकलते हैं। महंगी कारो से गांव पहुंचते है और मस्ती कर लौट आते हैं। ऐसी तस्वीरे मैने अपनी आंखो से देखी है। ऐसा होता रहा तो कुछ दशको बाद हम अपनी स्वस्थ्य पहचान सुरक्षित नहीं रख पायेगें।
दिलीप जायसवाल

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