मुम्बई में हुए आतंकी हमले के एक साल बाद आज अखबारो और मीडिया के दूसरे साधनों में इस पर जमकर चर्चा हुई है। देश की सुरक्षा व्यवस्था पर अभी भी कई सवाल उठ रहे है। आतंकी हमले में मारे गए लोगों के परिजनो को पर भी अखबारों में संपादकीय और लेख छपे हैं। कहीं सुरक्षा व्यवस्था को लेकर सरकार की आलोचनांए दिख रही है।
इन सब मुद्वो के बीच सवाल उठता है कि इस घटना के बाद हम कितने संवेदनशील हुए। सरकारी तंत्र को छोड दे तो हम कितने जागरुक हुए। ऐसा नहीं हुआ है तो और कितनी लाशे गिनना चाहते हैं। वहीं हमारी नींद खुली है तो सरकारी तंत्र की नींद नहीं खुले, ऐसा नहीं हो सकता है।
ऐसी घटनाओ के बाद हमारी संवेदना मोमबत्ती जलाने और आंसू बहाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। व्यवस्था की आलोचना कर चुप हो जाना ही हमारा कत्वर्य नहीं है। हम सात समुंदर पार भी है। वहां से भी हम अपनी भूमिका निभा सकते हैं।
यह भी समझने की जरुरत है कि हिन्दुस्तानी होने का चादर ओढने वालों के हाथ कितने पाक साफ है। हिन्दुस्तान के हित की बात करने वाले कितने स्वार्थी हैं ? खूफिया एजेसियों का नेटवर्क कितना बेहतर हुआ है। सुरक्षा व्यवस्था के लिए काम करने वाली संस्थाओ के सदस्यो में कितना सामांजस्य है। ईमानदारी की खुशबू के लिए कोई प्रयास हुई या नहीं।
ऐसा नहीं हुआ है तो नेता मंत्रियों और सरकारी नुमाइंदो की ही सुरक्षा हो सकती है। आम आदमी तो उसी तरह मरता रहेगा, जिस तरह 26/11 को मुम्बई के रेल्वे स्टेशन का खौफनाक मंजर था।
दिलीप जायसवाल
बुधवार, 25 नवंबर 2009
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1 टिप्पणी:
यह सही है .. वरना इस की व्यर्थता सिद्ध हो जायेगी । एक पोस्ट यहाँ भी पढ़े
http://kavikokas.blogspot.com
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