सोमवार, 23 नवंबर 2009

संपादक ने शादी के लिए न ली छुट्टी और न दी

पत्रकारिता क्या है और क्या हो रहा है, यह हर रोज वरिष्ठ पत्रकारों से सुनने को मिलता है। कल एक न्यूज एजेंसी के दफतर में पहुंचा तो एक परिचित वरिष्ट पत्रकार से मुलाकात हो गई। वे कुछ महिने पहले ही एक बड़े अखबार की नौकरी छोड़कर वहां से कम वेतन पर यहां काम कर रहे हैं। हालचाल जानने से शुरू हुई चर्चा पत्रकारिता के किस्से कहानियों तक पहुंच गई। इस पर वे बताने लगे कि जब एक अखबार में काम कर रहे थे, उस समय जब उन्होंने शादी के लिए छुट्टी मांगी तो संपादक ने कहा-शादी के लिए भी कोई छुट्टी की जरूरत है। उन्होंने बताया कि संपादक ने भी अपनी शादी के लिए छुट्टी नहीं ली थी। मंडप में शाम को शादी संपन्न होते ही रात में वे ड्यूटी के लिए आ गए थे।

यह बात वे आज की पत्रकारिता के तौर पर चर्चा के साथ बताने लगे थे। उन्हांेने कहा कि अब जमाना वैसा नहीं रहा। वे आफिस जाने की सोच के साथ घर से नहीं निकलते, वल्कि महसूस करते हैं कि किसी बनिए की दुकान में काम करने जा रहे हैं।

चर्चा में संपादकों के साथ रिर्पोटरों के समाचार लेखन में सामंजस्य को लेकर भी बात होने लगी। वे कहने लगे की जब कोई नया संपादक आता है तो रिर्पोटरों को सामंजस्य बनाने में काफी समय लग जाता है। जैसा कि मैंने भी अनुभव किया है-आपकी कोई बात उस संपादक को अच्छी लगती है, जबकि वह दूसरे संपादक के हाजमे लायक न हो। समाचार लिखने का तरीका भी अलग-अलग हो सकता है। जिस नजरिए से रिपोर्टर समाचार लिखता है, हो सकता है वह नजरिया संपादक को अच्छा न लगे। अब तो रिपोर्टिंग से पहले अधिकतर मीडिया संस्थानों में किस नजरिए से रिपोर्टिंग करनी है, यह पहले ही बताकर भेजा जाता है।

इन सबके अलावा बातों-ही-बातों में और भी कई ऐसी बिंदुओं पर चर्चा हो गई । कुल मिलाकर वे पत्रकारिता की वर्तमान हालत पर काफी आहत थे। सवाल उठता है कि जब पत्रकारिता के क्षेत्र में पैसे की चाहत से लोग पहुंचेंगे और समाज एक-दो रुपए में अखवार पढ़ना चाहेगा तो हालत बाजार का ही बनेगा और बाजार में दुकान तो होती ही है।
दिलीप जायसवाल

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