गुरुवार, 19 नवंबर 2009

पंचसितारा होटल में खाने वालों ने किसानों का जख्म देखा..?

देश की राजधानी दिल्ली में किसानों ने गन्ने के समर्थन मूल्य को लेकर अपने ताकत का प्रदर्शन किया, वह यह बताने के लिए काफी है कि किसानों का जख्म अब सहन से बाहर हो गया है। हालांकि आज दिल्लीवासियों को इससे परेशानी का सामना करना पड़ा। लेकिन कम से कम शहर में रहने वालो को ये तो पता चला कि वो वातानुकुलित, पंचसितारा होटलों में बैठ कर जो स्वाद लेते हैं। वह इन्हीं किसानों से ही संभव है।

आजादी के पचास साल बाद भी किसानों की जैसी दुर्दशा हो रही है, वह शोषण और भ्रष्टाचार की सोच रखने वाले नेता-मंत्रियों के रहते कोई बड़ी बात नहीं है। किसानों के अंदर का आग तो बिना किसी राजनीति के भड़क जाना चाहिए था, लेकिन वह हमारे देश में नहीं हो पाता है। दिल्ली की सड़कों में किसानों की जो आवाज सुनाई दी, उसमें भी उनके साथ वही नेता दिखाई दे रहे थे जो चाहते तो किसानों को सड़क में आये बिना ही उनके अधिकार मिल जाते। लेकिन नेता भी ऐसा नहीं करना चाहते। किसानों को सड़क में उतार कर वे अपनी रोटी सेकना चाहते है। इसे किसानों को समझने की जरूरत है और हमारे किसान यहीं पर भूल कर जाते है।

किसानों को सड़क पर उतार कर इनका कथित रूप से समर्थन कर रहे नेता खुद को बलवान समझ रहे होंगे। लेकिन सोचने की जरूरत है कि जो किसान अपना पसीना बहा कर खेत से मिठास पैदा कर सकता है वह बिना राजनीति के अपने हक के लिए लड़ने का मद्दा रखता है।

छत्तीसगढ़ के किसानों को भी विपक्ष में बैठे कांग्रेस ने धान के समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी के लिए सड़क पर उतारा है। किसानों का आंदोलन राज्य में पहली बार मजबूती के साथ उभरती हुई दिखाई दी है, लेकिन यहां भी राजनैतिक स्वार्थ हावी है। ऐसे में स्वार्थ पूरा होते ही साथ देने का वादा करने वाली नेता कब तक उनके साथ रहेंगे, इस पर भी संदेह है।

किसानों की ही बात हो रही है तो यह भी सोचने को मजबूर करती है कि छत्तीसगढ़ के जशपुर के लुडेक में टमाटर की खेती किसानों द्वारा जला दी जाती है। खेत से टमाटर को निकालने के बाद इतना भी पैसा नहीं मिल पाता कि उसे तोड़ने की मजदूरी मिल सके। वहीं सरकार की किसान विरोधी नीतियों के कारण ही मांग के बाद भी यहां टमाटर रखने के लिए कोल्ड स्टोर की स्थापना नहीं हो सकी है और आज बाजार में टमाटर 40 रूपये किलो मिल रहा है। अगर सरकार सचमुच किसानों के विकास के लिए सोचती तो ऐसा हाल न होता।

वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने अंततः आज इस बात को स्वीकार कर लिया कि देश में चावल की कमी है और इसका आयात करना पड़ेगा। कृषि प्रधान देश में खेती और उसके किसान किस हालत में जी रहे हैं। इस पर सरकार को सोचने की फुर्सत नहीं है। जबकि हमारे देश की अर्थव्यवस्था का कृषि बड़ा साधन है।

दुर्भाग्य की बात है कि पचास साल बाद देश के किसान एकजुट नहीं हो सके हैं। यही कारण है कि आज भी किसानों को अपने हक के लिए सड़क पर उतरना पड़ रहा है। इसके बाद भी जब किसानों की आवाज नहीं सुनी जाती तो वे आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते है। नेता, मंत्रियों और सरकारी नुमाईंदों ने जो व्यवस्था बना कर रखी है, उसके रहते किसानों के विकास की बात करना बेमानी है।

यही हाल रहा तो किसान पैकेट बंद दाल-चावल खरीदते हुए बाजार में दिखाई देगा, जो विदेशी कंपनियों के बनाये हुए होंगे। ऐसी स्थिति शहरों में दिखने लगी है लेकिन ऐसी स्थिति उस समय सोचने के लिए मजबूर करेगा जब- किसान की जमीन पर धुंआ उगलती फैक्ट्री लगी है और वह उसमें मजदूरी कर रहा है। पास के दुकान में शाम को दुकान में जायेगा और गुणवत्ता मापक वाले सिम्बाल लगे पैकेटों में बंद चावल-दाल खरीदेगा। -दिलीप जायसवाल

1 टिप्पणी:

शरद कोकास ने कहा…

क्रय शक्ति किसान की कम होती जा रही है और किसान की क्या हर व्यक्ति की कम होती जा रही है । स्थितियाँ कुल मिलाकर ऐसी ही हैं ।