बुधवार, 25 नवंबर 2009

जंगल में शहीद होने वाले क्या दोयम दर्जे के ?

26/11 की घटना के बाद देश में देशभक्ति की भावना और हिन्दुस्तानी होने का जज्बा दिखाई दिया था। शहीदों को चैक-चैहारों पर मोमबत्तियां जला कर नमन किया गया था। वैसा जज्बा जंगल में कई-कई दिनों तक आंतरिक सुरक्षा के लिए अभिशाप बन चुके नक्सलियों से लड़ने वालों के शहीद होने पर दिखाई नहीं देता है। विषम परिस्थितियों में बहादुरी के साथ लड़ कर शहीद होने पर उनके बारे में कोई नहीं जानना चाहता।

छत्तीसगढ़ के बस्तर और दूसरे नक्सल जिलों में कभी सीआरपीएफ तो कभी पुलिस के जवान शहीद होते है, जब उनकी लाशें ट्रकों में भर कर लाई जाती हैं तो हमारे दिल में इतना भी उफान नहीं होता कि कम से कम उनका चेहरा तो देंखे। जिन्होंने हमारे लिए अपनी जान गंवा दी।

पिछले साल भर से रायपुर में हूं, यहां अमीरजादों की कमी नहीं है। जब भी नक्सली मोर्चे में शहीद होने वाले जवानों की लाशें यहां पहुंचती है तो शहरी लोग शहीदों के लिए दो पल भी नहीं निकाल पाते। क्या यही है हमारी देश-भक्ति की भावना, जिनके शहीद होने के खबर मिलने के बाद भी हमारा दिल नहीं पसीजता। क्या मुंबई जैसे हमलों में शहीद होने वाले ही शहीद होते हैं और उनके लिए ही मोमबत्तियां जलाई जा सकती हैं ? ये सब बातें इसलिए क्योंकि घर, परिवार और समाज छोड़कर जंगल में ड्यूटी करने वाले सिर्फ पैसे के लिए ही नहीं जीते हैं। अगर किसी नेता-मंत्री या उसके परिवार के किसी सदस्य की मौत हो जाती है तो आंसू बहाने वालों का तांता लग जाता है, विज्ञप्तियां जारी होती हैं, शोक संदेश छपते हैं, क्या बस्तर में शहीद होने वाले इनके काबिल भी नहीं है।

देश में आंतरिक सुरक्षा, बाहरी हमलों से भी खतरनाक हो चुकी है। इस पर गंभीरता से राजनीतिक स्वार्थ के कारण कोई नीतिगत निर्णय नहीं लिया जा सका है। हाल यही रहा तो शहरों में खुद को महफूज समझने वाले लोगों के बंगलों में भी एके-47 की आवाज सुनाई देगी। शायद तब इस समस्या के प्रति सरकार कोई सही निर्णय ले सकेगी और यहां शहीद होने वालों को कुछ दिनों के लिए याद किया जायेगा।

सरकार द्वारा नक्सलवाद को विकास विरोधी माना जाता है। सरकार कहती है कि जहां सही तरीके से विकास नहीं हो सकें हैं वहां नक्सली समस्या प्रमुख है। सवाल यह है कि जहां नक्सलवाद जैसी कोई समस्या नहीं है, वहां ईमानदारी के साथ प्रयास क्यों नहीं किया जाता।

कुछ दिन पहले बस्तर में तैनात एक पुलिस अफसर से बात हो रही थी। उनका घर बस्तर में ही है। वे दो साल से घर नहीं गये हैं। उनके घर जाने पर परिवार वालों को नक्सली मार डालेंगे। परिवार वाले उनसे बाजार के दिन चोरी-छूपे ही मिल पाते है। इस अफसर ने कहा कि वे अच्छे से जानते है कि बस्तर में नक्सली क्यों पैदा होते हैं और यह समस्या यहां कब तक रहेगी।

वे बताने लगे कि यहां ऐसे कई घर है जहां शाम को लोग कंदमूल खाकर या भूखे पेट ही सो जाते हैं। कई बार उन्होंने अपनी आंखों से नक्सली अभियान के दौरान यह सब देखा है।

हालत यह है कि आदिवासी का बेटा नक्सली बन रहा है या नक्सली उसे जबरन अपने साथ रहने को मजबूर कर रहे है। आपस में पुलिस और नक्सलियों के बीच होने वाले टकराव में भी गरीब का बेटा ही मारा जा रहा है। चाहे वह नक्सली के रूप में मरता हो या फिर सरकारी फोर्स के जवान के रूप में। इन दोनों के बीच जंगल और खेत में पसीना बहाने वाला मरता है।

ऐसे में आखिर एयर कण्डिशनर वाले इन्हें मरने से पहले या इसके बाद याद क्यों करेंगे। याद तो तब करेंगे जब ताज और नरीमन जैसे होटलों या रइसों के क्लबों में मौत का यह खूनी खेल हो।
-दिलीप जायसवाल

कोई टिप्पणी नहीं: